ईश्वर को केवल शुद्ध-हृदय ही स्वीकार है.


ईश्वर को केवल
शुद्ध-हृदय ही स्वीकार है.

यजुर्वेद मंत्र 40/8 में ईश्वर के स्वरूप अलौकिक गुणों आदि का वर्णन किया है। मंत्र में परमेश्वर के 'शुद्धम् अपापविद्धम्' ये दो गुणों का भी वर्णन है। 'शुद्धम्' का अर्थ है अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश इन दोषों से तथा रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण आदि प्रकृति के प्रभाव से जन्म-मृत्यु आदि दोषों से परे है। 'अपापविद्धम्' का अर्थ है जो कभी भी पाप से युक्त अथवा पाप करने वाला नहीं है। वह पाप और पापी को भी नहीं प्रेम करता। इससे यह सिद्ध है कि ईश्वर को प्राप्त करना जो मनुष्य योनि का धर्म है उसे प्राप्त करने के लिए मनुष्य को भी वैदिक मार्ग पर चलकर शुद्धता रखना और पाप कर्म से सदा दूर रहना आवश्यक है। उक्त मंत्र में ईश्वर को प्रजा के लिए वेद के द्वारा भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों उपदेश देने वाला भी कहा है।

चारों वेदों में ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को विद्वानों द्वारा वेद सुनने, उसे तत्त्व से जान लेने की आज्ञा दी है, पिछले युगों में तो जब मनुष्य द्वारा वर्तमान में बनाए हुए पूजा-पाठ आदि के मार्ग नहीं थे तब घर-घर में वेद विद्या का प्रकाश था और सभी नर-नारी संयमी, सत्यवादी और पाप कर्म से सदा दूर रहने वाले थे। वाल्मीकि रामायण में इस विषय में स्पष्ट किया है कि घर-घर में वेद विद्या आचरण में होने के कारण स्वयं राजा दशरथ वेदार्थ को जानने वाले थे। फलस्वरूप उनके राज्य में मनुष्य प्रसन्न, धर्मात्मा, बार-बार वेद सुनने वाले, अपने-अपने धन से संतुष्ट, निर्लोभ और सत्यवादी थे। ऐसा कोई नहीं था जो गरीब हो, कोई भी मनुष्य कामी, कंजूस, निर्दयी, मूर्ख और नास्तिक नहीं था, सब जितेन्द्रिय थे। ऐसा कोई भी न था जो वेद मंत्रों से यज्ञ न करता हो, इत्यादि। और इसी कारण हमारा भारतवर्ष 'सोने की चिडिय़ा एवं 'विश्वगुरू' कहलाता था। परंतु यह दुर्भाग्य है कि स्वयंभू साधु-सन्तों ने वेद विद्या को कठिन बताकर इसकी ओर से जनता का मुख मोड़ दिया। अब जो ईश्वर का नियम है कि वेद विद्या के बिना शुद्धिकरण नहीं हो सकता, पाप बढ़ते हैं। अत: तथाकथित कई संतों का जीवन कलंकित रहा है और जनता में इन्द्रियों पर संयम नियम न होने के कारण छोटी-छोटी बच्चियों से भी दुष्कर्म होने की घटनाओं ने जनता में भयावह वातावरण को अंजाम दिया है। ये सब घर-घर में पहले युगों की भांति वेद-विद्या का प्रकाश न होने के कारण हुआ है क्योंकि वर्तमान में मनुष्यों द्वारा बनाए अपनी भक्ति के मार्ग बहुत है और साधु संतों द्वारा बताए भक्ति मार्ग भी बहुत हैं और घर-घर ऐसी भक्ति भी बहुत है। परंतु वेद विद्या के अभाव में इन्द्रियों पर संयम नग्न प्राय: है और दुष्कर्म, चोरी-डकैती, गुंडागर्दी, दलित जो वास्तव में हम जैसे इंसान ही हैं उन पर अत्याचार, भ्रष्टाचार आदि अत्यधिक स्तर पर बढ़ता ही जा रहा है।

उपर लिखे यजुर्वेद मंत्र 40/8 के अनुसार ईश्वर मनुष्य को शुद्ध और पाप से परे रहने पर ही प्रेम करता है, सुख देता है अन्यथा दण्डित करता है।

अब प्रश्न यह है कि पाप से अविद्या आदि से दूर रहने का क्या उपाय है ? यजुर्वेद मंत्र 40/7 का भाव है कि जो वेद मार्ग पर चलकर ठीक-ठाक योगाभ्यास द्वारा उस सृष्टि रचयिता एक परमेश्वर का दर्शन करते हैं वह ही मोह, शोक आदि का त्याग करते हैं। ऋग्वेद मंत्र 10/31/1 का भाव है कि जो साधक परमात्मा की नित्य वेदानुसार प्रार्थना, स्तुति और उपासना करते हैं, यज्ञ-अग्निहोत्र करते है, पश्चात् ईश्वर प्राप्त योगिजनों द्वारा उपदेश सुनकर उन योगियों के साथ समान धर्मी होते हैं वह ही समस्त पापों को पार कर जाते हैं। अगले मंत्र 3 का भाव है कि इस प्रकार वेद मार्ग पर चलकर अष्टांग योग की साधना तथा उन यति-योगियों का संग और उनसे योग विद्या प्राप्त करके शुद्ध योग बुद्धि से दुष्कर्म-पाप आदि कर्म कभी नहीं होते और ऐसी बुद्धि प्राप्त हो जाने पर ध्यान लगता है और समाधिप्राप्त करके साधक योगी संसार सागर से तर जाता है। अब गहन विचार का विषय यह है कि क्या आज भारतवर्ष में कोई साधु-संत अथवा कोई साधक इस वैदिक पद्धति पर चलता है, स्वयं की इन्द्रियों को वश में रखने का उपदेश देता है? जैसे कि यजुर्वेद मंत्र 19/39 में परमेश्वर से भी प्रार्थना है और वेदों के ज्ञाता विद्वान् ज्ञानी पुरूष से भी प्रार्थना है कि मुझको वेद विद्या के दान से पवित्र करें जिससे ध्यान द्वारा हमारी बुद्धियां पवित्र हों। जैसा उपर भी कहा यदि मनुष्य वेद के ज्ञाता विद्वानों से संपर्क नहीं रखता और उनके आश्रम में रहकर वेद मार्ग पर चलते हुए योग-विद्या आदि नहीं सीखता तो इन्द्रियां पवित्र हो ही नहीं सकती मनुष्य पाप करने पर विवश होगा ही होगा। मनुष्य जब विषय विकार के वातावरण में फंस जाएगा तो वह पाप कर्म करेगा ही करेगा जैसा कि आजकल समस्त जगत् में हो रहा है। अत: पिछले युगों की भांति शुद्ध वातावरण स्थापित करने के लिए विद्वानों से वेद ज्ञान प्राप्त करना ईश्वर ने आवश्यक कहा है। क्योंकि जिसकी इन्द्रियां वश में नहीं वह पाप कर्म अवश्य करता है और उपर कहे वेद मंत्रों के अनुसार ईश्वर ऐसे पापियों का तिरस्कार करता है और दण्ड देता है परंतु शायद ऐसे ही तिरस्कार करने वाले साधु हों, संत हों, नेता हो, जनता के नुमायंदे हों, जनता के साथ रहने वाले जन हों ये ही अपने-आप को साधु-संत, सेवक आदि अनेक नामों से सुशोभित करते हुए जनता को धोखा देते हैं। हमें वैदिक मार्ग अपनाने की आवश्कता है फलस्वरूप ही पापों का नाश होगा।


(योगेन्द्र जी)

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