अनुशासनअपनाएं.
जीवन में जब तक अनुशासन रहता है तब तक मर्यादा और जीवन लक्ष्यों का समानान्तर प्रवाह चलता रहता है। जैसे ही अनुशासन में तनिक सी भी कमी आ जाती है, तभी से शुरू हो जाता है मर्यादाहीनता का प्रवाह जो कि प्राणी के जीवन लक्ष्य को भी हानि पहुंचाता है और समग्र व्यक्तित्व का भी क्षरण करता है।
ख़ासकर इंसान के लिए शैशव से लेकर मृत्यु होने तक अनुशासन का पग-पग पर महत्व है और हर इंसान के लिए अपेक्षित है कि वह अनुशासन का पालन करे, जीवन में अनुशासन के महत्व को समझे।
आजकल अनुशासन और मर्यादा का पालन कर पाना हर किसी के लिए न सहज है न स्वीकार्य। हर कोई चाहता है फ्री-स्टाईल जीवन जीना और अपने उन्मुक्त स्वभाव के अनुरूप विचरना। जब से हर तरह की स्वाधीनता हमें प्राप्त हो गई है तभी से हमने अनुशासन की गति-मुक्ति कर डाली और इसका स्थान पा लिया है उन्मुक्त स्वेच्छाचार ने।
हम हमारे माँ-बाप, गुरुजनों, घर-परिवार वालों और बड़े लोगों तक की कोई बात नहीं मानते, न उनकी किसी आज्ञा का पालन करते हैं फिर दूसरों की बात मानना, उन्हें आदर-सम्मान और श्रद्धा देना तो दूर की बात है।
हम सभी अब जीने लगे हैं हमारी अपनी उन्मुक्त जीवनशैली के हिसाब से, जहां हमें कोई अच्छी बात अंगीकार करना, सुनना और अनुगमन करना बुरा लगता है। हमें वही अच्छा लगता है जो हमारा मन कहता और करवाता है।
हमारी जीवनशैली पूरी तरह अस्त-व्यस्त और अमर्यादित होकर रह गई है। हम सभी लोग अपने आपको स्वयंभू मान चुके हैं इसलिए हमें अधिकार है किसी की भी कुछ भी बात न मानने का। हमारे भ्रम हैं कि हम जो कुछ कर रहे हैं अथवा करते रहे हैं वही हमारे जीवन का सच है और हम चाहते हैं यही जमाने का सच बना रहे तथा दूसरे लोग भी वही करें जो हम चाहते हैं।
एक किस्म ऐसी भी है जो कि अपनी मनमानी को ही जीवन का परम सत्य मानती है और यह चाहती है कि वे जो कुछ भी करें, उसे कोई न रोके, न टोके। बहुत कम लोग हैं जो कि अपनी-अपनी मर्यादाओं के अनुरूप चलते हैं और जीवन के तमाम कर्मों में अनुशासन का पालन करते हैं।
पर अधिकांश ऐसे हैं कि जो चाहते हुए भी अनुशासन से बंधे नहीं रह पाते। इनमें भी बहुसंख्य लोग ऐसे हैं जो कि बिना किसी वजह से अनुशासन भंग करने को अपने व्यक्तित्व की विलक्षणता और महानता समझते हैं । इन लोगों को तभी मजा आता है जब वे अनुशासन को भंग करें, मर्यादाहीनता का परिचय दें और अपनी वजह से औरों को तंग करें।
इस किस्म के लोगों का आजकल सभी स्थानों पर बाहुल्य है। अनुशासन, संस्कार और मर्यादाओं का पालन और अनुसरण आज के आदमी के बूते में नहीं रहा। ये संस्कार किसी के बताए नहीं आ सकते, न किसी प्रकार के दबाव से ये आ सकते हैं।
किसी भी इंसान को संस्कार, सिद्धान्तों, अनुशासन और मर्यादाओं के पालन के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यह आत्मा का विषय है और इसका संबंध दिल से है। किसी आदमी के हृदय में यदि ये संस्कार न हों, इनके बीज न हों तो उस आदमी से संस्कारों, सिद्धान्तों, अनुशासन और मर्यादाओं के पालन की उम्मीद नहीं की जा सकती।
ये संस्कार वंशानुगत होते हैं और परिवेशीय भी। जैसी इंसान की संगति होती है उसी के अनुरूप वह ढलता चला जाता है। आजकल सबसे बड़ी कमी है तो वह है संस्कारों की। इस वजह से सामाजिक और राष्ट्रीय परिवेश प्रदूषित होता जा रहा है और मर्यादाहीनता के कारण स्वेच्छाचार व्याप्त होता जा रहा है।
इसके लिए कोई और नहीं बल्कि हम ही दोषी है। संस्कारों की केवल बातें न करें बल्कि इन्हें जीवन में अपनाएं तभी हम समाज और देश के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
(डॉ. दीपक आचार्य)
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