मन को कुसंस्कारी न रहने दिया जाये.


मन को कुसंस्कारी
रहने दिया जाये.

गुरुकुलों के अध्यापक, प्राचार्य अपने छात्रों को पढ़ाकर सुयोग्य बना देते हैं। व्यक्तिगत संपर्क में भी ऐसा ही होता है। अरस्तू ने सिकंदर का पढ़ाकर महान् पुरुषार्थी बनाया था। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को, समर्थ ने शिवा को, परमहंस ने विवेकानंद को, विरजान्द ने दयानंद को, गाँधी ने विनोबा को इस प्रकार का शिष्य बनाया था कि गुरु और शिष्य दोनों ही धन्य हो गये। वसुदेव ने वासुदेव नाम को अपने पुत्र को प्रख्यात कर दिया। जनक की बेटी जानकी ने अपने पिता के गौरव में चार चाँद लगा दिये। पिता के नाम से पुत्र भी यशस्वी होते हैं और कई बार पुत्र भी पिता को निहाल कर देते हैं। श्रवण कुमार के कारण उनके माता पिता सर्वत्र जाने जाते हैं भले ही उनका नाम बहुतों को मालूम न हो। भागीरथी गंगा को इसलिये कहा जाता है कि स्वर्ग से भूमि पर उन्हें उतारने का उत्कृष्ट प्रयत्न भागीरथ ने ही किया। अर्जुन को कौन्तेय इसी कारण कहा जाता है कि उनकी असाधारण प्रतिभा उनकी माता ने भरी थी।

हममें से प्रत्येक को एक विद्यार्थी पढ़ाने, एक शिष्य गढ़ने, एक प्रतिमा बनाने का काम अपने जिम्मे लेना चाहिए। यों प्रतिभावान व्यक्ति एक साथ कई-कई काम हाथ में लेते हैं और पूरा कर दिखाते हैं। व्यस्त लोग भी कइयों की जिम्मेदारी अपने ऊपर उठा लेते हैं। पी.एच.डी.- वकालत- चार्टर्ड एकाउन्टेंट आदि पढ़ने वालों को अपने मार्ग दर्शक के साथ संपर्क में रहना और समाधान करना, अनुभव बढ़ना आदि में तत्पर रहना पड़ता है। यों वे पढ़ाने वाले भी अपने कामों में व्यस्त रहते हैं फिर भी किसी न किसी प्रकार समय निकाल कर उन्हें सिखाते समझाते रहते हैं जिन्हें सुयोग्य बनाने का जिम्मा उनने अपने कंधों पर लिया है।

हम एक छात्र को, शिष्य या पुत्र को सुयोग्य बनाने का जिम्मा लें। उसे स्वयं पढ़ायें। कितना, किस प्रकार उस पढ़ाई को हृदयंगम किया इसका भी ध्यान रखें। राजा लोग प्रत्येक राजकुमार के लिए एक ट्यूटर गार्जियन नियुक्त करते थे। विष्णु शर्मा ने एक राजा के उद्दण्ड बालकों को कथा कहानियाँ सुनाकर सुयोग्य बना दिया था। हम एक ऐसे बालक की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठायें जो अपना सगा है। साथ रहता है और वफादार सेवक तक है।

इस विद्यार्थी का नाम है- ‘अपना मन’। बाहर के कितनों को ही सलाह, सहायता दी गई पर खेद है कि इसकी ओर कभी आँख उठाकर भी नहीं देखा। यदि उसकी दुर्दशा का पर्यवेक्षण भर किया होता तो प्रतीत होता कि वह कैसी आवारागर्दी में फंस गया है। किस कुसंग में निरत रहने लगा है और कैसी अनगढ़ गतिविधियाँ अपना चुका है जो उसे नहीं ही अपनानी चाहिए। उसके पिछड़ेपन की- कुमार्गगामिता की जिम्मेदारी आपकी है। जब फेल होने वाले विद्यार्थी, स्कूल की, अध्यापक वर्ग की बदनामी भी कराते हैं। जब कपूत बेटा बाप को जलील करता है तो कोई कारण नहीं कि आपके साथ गुँथे हुए मन की अपनाई हुई अवांछनीयता, उद्दण्डता, मूर्खता आपको बदनाम न करें। इस स्थिति में मात्र बदनामी ही नहीं प्रत्यक्ष हानि भी है। ऐसी हानि जिसकी क्षति पूर्ति और कोई नहीं कर सकता।

मन को सुसंस्कृत बनाया जाना चाहिए। उसे हित-अनहित में- अनौचित्य-औचित्य में अन्तर करना सिखाया जाना चाहिए। अब तक जो ढर्रा चलता रहा है उनमें वह विवेचन विश्लेषण करना उसे सिखाया ही नहीं गया, फिर बेचारा करता क्या? जो समीपवर्ती लोगों से देखता सुनता रहा उसकी बन्दर की तरह नकल और तोते की तरह रटन्त हो जाती है। सुप्रचलन का स्वरूप कभी देखा ही नहीं, सुसंस्कारियों, विचारशीलों के साथ रहा ही नहीं तो उस मार्ग पर चलना कैसे सीखें?

सिखाने वाले मदारी साँप, बन्दर रीछ को नाचना सिखा लेते हैं। सरकस वाले शेर हाथी वनमानुष तक को ऐसा सधा लेते हैं कि दर्शकों का भरपूर मनोरंजन और कम्पनी वाले को पर्याप्त मुनाफा होता रहे। सिखाने वाले के कौशल की सर्वत्र प्रशंसा होती रहे। फिर कोई कारण नहीं कि मन को सुसंस्कारी न बनाया जा सके। उसे गलाकर स्वर्ण आभूषणों की भाँति मनोरम न बनाया जा सके।

मन की शक्ति अपार है। उसकी सत्ता शरीर और आत्मा को मिलाकर ऐसी बनी है जैसी सीप और स्वाति कण का समन्वय होने से मोती बनता है। जीवन सम्पदा का वही व्यवस्थापक और कोषाध्यक्ष है। साथ ही उसे इतना अधिकार भी प्राप्त है कि वह अपने मित्र को- अपने साधनों को पूरी तरह भला या बुरा उपयोग कर सके। इतने सत्तावान का अनगढ़ होना सचमुच ही एक सिर धुनने लायक दुर्भाग्य है।

इस विडम्बना का और कोई कारण नहीं, हमारी उपेक्षा ही असमंजस जैसी परिस्थितियों को निर्मित है। महावत के बिना चाहे जिस दिशा में चाहे जब चल सकता है और जिसका चाहे जितना अनर्थ कर सकता है। हाथी वह है जो अपनी और सवार की प्रतिष्ठा बढ़ाता है पर छुट्टल और बिगड़ैल होने पर तो वह आतंकवादी यमदूत जैसा डरावना बन जाता है।

हमारी सत्ता आत्मा है। हमारा साथी सहकारी विवेक है। दोनों मिलकर मन को सही कल्पना, सही इच्छा करने की शिक्षा दे सकते हैं और सन्मार्ग पर चलना सिखा सकते हैं। मन अनाड़ी भर है। अवज्ञाकारी नहीं। अभ्यस्त दुर्गुणों को छोड़ने और नये सिरे से सिखाये गये सद्गुणों को अपनाने में अभ्यासवश आना-कानी अवश्य करता है पर उसे कड़ा निर्देशन दिया जाये और जो करने योग्य है उसे करने के लिए बाधित किया जाये तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि सर्वथा इनकार करे और अपने को बदलने के लिए सहमत न हो।

मन को कुसंस्कारों से विरत करने के लिए चार पाठ पढ़ाये जाने चाहिए (1) विचार संयम (2) समय संयम (3) अर्थ संयम (4) इन्द्रिय संयम। मस्तिष्क में जो भी विचार उठें उनका तत्काल परीक्षण किया जाना चाहिए कि वे नीतियुक्त, उपयोगी और रचनात्मक हैं या नहीं। बेतुकी कल्पना ऐसी इच्छाएँ उठती हों तो उनकी जड़ आरम्भ से ही काट देनी चाहिए। गाड़ी एक कदम आगे नहीं बढ़ने देनी चाहिए। उसके स्थान पर सामयिक समाधान एवं अभ्युत्थान की बात सोचने में उसे जुटा दिया जाना चाहिए। दूसरी बात सुनियोजित दिनचर्या बनाने की है। समय को हीरे मोतियों के समान मानकर उसका एक क्षण भी बर्बाद नहीं होना चाहिए। उठाने से लेकर सोने तक की समयचर्या ऐसी बनानी चाहिए जिससे व्यक्तिगत का स्तर निखरता हो और योग्यता का, प्रगति का विस्तार होता हो। पैसे के सम्बन्ध में प्रदर्शन, और कौतुक कौतूहल में एक पाई भी व्यर्थ नहीं जानी चाहिए। खर्च करने से पहले अनेक बार विचारा जाये कि यह नितान्त आवश्यक है या नहीं। पैसा और श्रम एक ही बात है। श्रम को निरर्थक प्रयासों में लगाना जिस प्रकार दुःखद परिणाम प्रस्तुत करता है उसी प्रकार धन का अपव्यय भी बदले में विपत्ति लेकर वापस लौटता है। चौथा निर्देशक है- इन्द्रिय निग्रह। इन्द्रिय निग्रह का अर्थ ही जीभ का चटोरापन और यौनाचार के प्रति अनावश्यक आकर्षण है। चटोरापन शरीर को विपत्ति में फँसाता है और कामुकता मस्तिष्क को खोखला करती है।

इन सभी असंयमों से बचते हुए ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सिद्धान्त मन को इस प्रकार पढ़ाना चाहिए कि वह उसे भुला देने की गलती न करे।

(अखंड ज्योति 1/1986)


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