कर्म क्या है? उसे कैसे करना चाहिए?
(श्री सुधांशु जी महाराज)
(श्री सुधांशु जी महाराज)
अर्जुन बोला- मुझे समझ में नहीं आता कि ज्ञान श्रेष्ठ है या कर्म श्रेष्ठ है। एक तरफ़ आपने कहा कि कर्म करते जाओ। आपने कहा- 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'। अर्थात कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, फल पर नहीं। ज्ञान के सम्बन्ध में भी यही कहा। अर्जुन कहता है कि मैं जानना चाहता हूॅ कि ज्ञान श्रेष्ठ है या कर्म श्रेष्ठ है। और अगर ज्ञान श्रेष्ठ है तो मुझे इस क्रूर कर्म में न फंसाये। तब भगवान ने उसे समझाया- "लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ, ज्ञानयोगेन साड्.ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।’’ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! मैंने तुम्हें पहले भी बताया था कि संसार में दो प्रकार की निष्ठायें हैं। एक निष्ठा है जो ज्ञान योगी लोगों की है, अर्थात् जो सांख्य लोग हैं और ज्ञान से सम्बन्धित ब्यक्तित्व हैं; वे समझते व कहते हैं कि जीवन में कल्याण अगर होगा, मुक्ति अगर होगी तो ज्ञान से ही होगी। इसके दूसरे भाग में ’कर्मयोगेन योगिनाम्’ कहकर भगवान ने कहा कि योगी लोग कहते हैं कि कर्म अवश्य करना चाहिये।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि ज्ञान व कर्म का अटूट रिश्ता है। ज्ञान के बिना कर्म प्रतिफलित नहीं होता तथा कर्म के बिना ज्ञान केवल काग़ज़ पर लिखे ऐसा शब्द मात्र है, जिसका लाभ न व्यक्ति को मिलता है और न समाज को। अतः मनुष्य को ज्ञानी बनकर अपना कर्म आनन्द एवं निष्ठापूर्वक करना चाहिए।
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