सन्त जोगा परमानन्दजी.
कीर्तन समाप्त होने पर वे पीताम्बर लेकर घर आये। वे सोने की तैयारी कर रहे थे कि उनका ध्यान पीताम्बर की ओर गया और उन्हें आत्मग्लानि हुई कि उनके शरीर को पीताम्बर का मोह हुआ ही कैसे कि प्रभु की ओर से उनका ध्यान हटने लगा था। उन्होंने निश्चय किया कि इस लोभी देह को दण्ड दिया ही जाना चाहिए। फिर सोचने लगे कि क्या दण्ड दिया जाए? क्या इसे अग्नि की आँच दी जाए, या पानी में डुबाया जाए, अथवा 'अष्टांग योग साधन ' द्वारा प्रायश्चित का सहारा लिया जाए। किन्तु उन्हें इनमें से कोई दण्ड पसन्द न आया। इसी चिन्ता में उन्हें रात भर नींद न आयी।
दूसरे दिन प्रातः वे फिर शरीर को दण्ड देने की सोचने लगे कि सामने से एक किसान अपने बैलों के साथ खेतों की ओर जाता दिखाई दिया। सन्त ने उसे बुलाकर बैलों की कीमत पूछी । उसके द्वारा बताने पर उन्होंने उतने रुपये दिये, साथ ही वह पीताम्बर भी सौंप दिया। उससे बैल लेकर उन्होंने स्वयं को हल के समान बाँधा और भगवान् का नाम लेकर बैलों को कोड़े लगाये। इससे बैलों ने जोर से भागना शुरू किया। लोगों ने जब उन्हें बैलों के साथ घिसटते देखा, तो उन्होंने उन्हें रोकने का प्रयास किया, लेकिन बैल इतने तेज दौड़ रहे थे कि रूक न पाये। किन्तु जिस परम दयालु भगवान् ने गजेन्द्र की आर्तवाणी सुनकर उसकी रक्षा की थी, उनसे अपने इस परम भक्त का यह कष्ट कैसे देखा जाता? वे तत्काल प्रकट हो गये और उन्होंने बैलों को रोककर जोगा को शान्त किया। प्रभु के दर्शन से वे भावविभोर हो गये और आँख मूँदकर भगवान् की प्रार्थना करने लगे और इधर दीनदयालु अन्तर्धान हो गये।
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