कर्म बंधन.
कैसे पता चले कि हम कर्मों में फंस रहे हैं?
(सद्गुरु जग्गी वासुदेव)
(आध्यात्मिक पथ पर हम कर्मों से छुटकारा
पाना चाहते हैं, पर कैसे पता चले कि कहीं हम और कर्म तो नहीं पैदा कर रहे, जानते हैं सद्गुरु से)
कर्म की प्रकृति आपके द्वारा किये गये कामों में नहीं होती। कर्म का अर्थ है कार्य, लेकिन पिछले कर्मों का संग्रह आपके द्वारा किये गए कार्यों के कारण नहीं है। जिन संकल्पों, मनोवृत्तियों और जिस तरह के मन को आप साथ ले कर चलते हैं, वही आपका कर्म है।
कर्म की प्रकृति आपके द्वारा किये गये कामों में नहीं होती। कर्म का अर्थ है कार्य, लेकिन पिछले कर्मों का संग्रह आपके द्वारा किये गए कार्यों के कारण नहीं है। जिन संकल्पों, मनोवृत्तियों और जिस तरह के मन को आप साथ ले कर चलते हैं, वही आपका कर्म है।
रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा.
रामकृष्ण अक्सर एक कहानी सुनाया करते थे। दो मित्र थे, वे हर शनिवार की शाम एक वैश्या के पास जाया करते थे। एक शाम जब वे वैश्या के घर जा रहे थे तब रास्ते में किसी का आध्यात्मिक प्रवचन चल रहा था। एक मित्र ने कहा कि वह आध्यात्मिक संभावनाओं पर प्रवचन सुनना पसंद करेगा और फिर उसने वैश्या के यहाँ नहीं जाने का फैसला किया।
दूसरे व्यक्ति ने उसे वहीं छोड़ दिया। अब प्रवचन में जो व्यक्ति बैठा था, वह दूसरे व्यक्ति के विचारो में डूबा हुआ था। वह सोचने लगा कि मेरा मित्र तो अभी जीवन का आनंद ले रहा होगा और मैं स्वयं एक ऐसी खुश्क जगह में फंस गया हूं। उसने सोचा कि मेरा मित्र ज़्यादा बुध्दिमान है क्योंकि उसने आध्यात्मिक प्रवचन की बजाए वैश्या के यहाँ जाने का फैसला किया। अब जो आदमी वैश्या के पास बैठा था, उसका दिमाग भी दूसरे आदमी में लगा हुआ था। वह सोच रहा था कि उसके मित्र ने वैश्या के घर की बजाए आध्यात्मिक प्रवचन में बैठना पसंद करके मुक्ति का मार्ग चुना है, जबकि वह खुद गंदगी में फंस गया है। आध्यात्मिक प्रवचन में बैठे व्यक्ति ने वैश्या के बारे में सोच कर बुरे कर्म बटोरकर कीमत चुकाई। अब वही दुख भोगेगा दूसरा नहीं। आप कीमत इसलिए नहीं चुकाते कि आप वैश्या के यहाँ जाते हैं; आपको कीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि आप चालाकी करते हैं। आप अभी भी वहाँ जाना चाहते हैं, लेकिन आप सोचते हैं कि प्रवचन में जाने से आप स्वर्ग के एक कदम नज़दीक पहुँच जाएँगे। यह चालाकी आपको नरक में ले जाएगी। वह आदमी जो वैश्या के साथ है, वह जानता है कि इसमें कुछ नहीं रखा है और वह कुछ और तलाश करेगा; उसका कर्म अच्छा है। इसलिये यह किसी कार्य के संबंध में नहीं है।
अच्छे कर्म और बुरे कर्म समाज की सीख हैं.
अभी आप समाज के नैतिक नियमों के कारण ही ’अच्छे’ और ’बुरे’ के बारे में सोचते हैं। आपका स्वभाव आपको यह नहीं कह रहा कि यह सही है और वह गलत है। बात बस इतनी ही है कि समाज ने कुछ नियम बनाए हैं और वे हमेशा से कहते आए हैं, आपके बचपन से ही, कि यदि आप उनको तोड़ेंगे तो बुरे कहलाएंगे। इसलिए आप जब भी समाज के नियमो को तोड़ते हैं, खुद को आप एक बुरा बच्चा महसूस करने लगते हैं।
आप जैसा महसूस करते हैं, वैसे ही आप बन जाते हैं। मान लीजिये कि आप जूआ खेलने के आदी हैं। हो सकता है, अपनी माँ के सामने, अपनी पत्नी के सामने या अपने घर में, जूआ खेलना या ’जूआ’ शब्द मुँह से निकालना पाप है, लेकिन जैसे ही आप अपने गैंग से मिलते हैं, जूआ खेलना एकदम ठीक है। है न? जूआरियों के बीच जो व्यक्ति जूआ नहीं खेलता, वह जीने के काबिल नहीं है। हर जगह ऐसा ही है। अगर आप सब चोर हैं, तो आप सब ठीक हैं। है कि नहीं? चोरों के बीच, क्या उन्हें लगता है कि किसी को लूटना बुरा है? जब आप चोरी में असफल हो जाते हैं, तो वे सोचते हैं कि आप एक अच्छे चोर नहीं हैं। फिर वह एक बुरा कर्म हो जाता है, है कि नहीं? यह प्रश्न, कार्मिक वस्तु, ठीक उसी प्रकार होती है जिस तरह से आप उसे महसूस करते हैं। आप जो कर रहे हैं, उससे इसका संबंध नहीं है। जिस तरीके से आप उसको अपने दिमाग में ढोते हैं, उसका संबंध केवल उसी से है। हम हमेशा स्वीकृति की बात क्यों करते हैं, क्योंकि जब आप पूर्ण स्वीकृति में होते है, तब जीवन जो भी माँगता है, आप उसे सहज करते हैं।
समाज का अपना अहम् होता है.
अगर आपको कोई युद्ध लडऩा है, आप जाइये और लडिय़े; यह कोई कर्म नहीं है। कर्म स्थूल कार्य से नहीं बनता; कार्य के पीछे जो भावना है, जो संकल्प है उससे कर्म बनता है। बात बस इतनी ही है कि किसी बेवकूफ ने कुछ नियम बना दिये हैं और आप हर इंसान से उम्मीद करते हैं कि वह उनके अनुसार जिये। यह असंभव है। लेकिन समाज को अपना सामाजिक अहम् बनाए रखने के लिये ऐसे नियमों की ज़रूरत होती है।
समाज का अपना अहम् होता है, है कि नहीं? हर छोटी-मोटी बात को ले कर पूरा समाज क्षुब्ध हो जाता है। यह जरूरी नहीं कि वह गलत ही हो। जब अमेरिका में गर्मी का मौसम है, तब लोग बड़ी मुश्किल से कुछ पहनते हैं, वे मिनी स्कर्ट में होते हैं। अब मान लेते हैं कि आप पूरे कपड़ों में हैं। लोग क्षुब्ध हो जाएँगेः “यह क्या कर रही है? यह पूरी ढकी हुई क्यों है?” यहाँ भारत में, अगर आपने पूरे कपड़े नहीं पहने तो लोग परेशान हो जाएँंगे। असल में, यह एक तरह का अहम् है और वह दूसरी तरह का अहम् है। यही सामाजिक अहम् है, जो क्षुब्ध होता है और आपका कर्म सामूहिक कर्म का एक हिस्सा बन जाता हैं। मैं चाहता हूँ कि आप इसे वाकई एक खास गहराई से समझें। अच्छे और बुरे की सोच आपको सिखाई गई है। आप जिस सामाजिक परिवेश में रहे हैं, वहाँ से आपने इसे ग्रहण किया है। कर्म आपके जीवन के संदर्भ में होता है, न कि किये गये कार्य में।
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