उत्तंक मुनि.

उत्तंक मुनि.

महाभारत वनपर्व के मार्कण्डेयसमास्यापर्व के अंतर्गत अध्याय 201 में उत्तंक की तपस्‍या से प्रसन्न होकर भगवान का उन्‍हें वरदान देना तथा इक्ष्‍वाकु-वंशी राजा कुवलाश्रव का धुन्‍धुमार नाम पड़ने का वर्णन है। जनमेजय कुवलाश्रव से वैश्‍म्‍पायन जी कहते हैं- भरतश्रेष्‍ठ महाराज जनमेजय। महाभाग मार्कण्‍डेय मुनि के मुख से राजर्षि इन्‍द्रद्युम्र को पुन: स्‍वर्ग प्राप्ति होने का वृत्तान्‍त (तथा दान माहात्‍म्‍य) सुनकर राजा युधिष्ठिर ने पा‍प र‍हित, दीर्घायु तथा तपो वृद्ध महात्‍मा मार्कण्‍डेय से इस प्रकार पूछा। ‘धर्मज्ञ मुने। आप देवता, दानव तथा राक्षसों को भी अच्‍छी तरह जानते हैं। आपको नाना प्रकार के राजवंशों तथा ऋषियों की सनातन वंश परम्‍परा का भी ज्ञान है। ‘द्विज श्रेष्‍ठ। इस लोक में कोई ऐसी वस्‍तु नहीं जो आप से अज्ञात हो। मुने। आप मनुष्‍य, नाग, राक्षक, देवता, गन्‍धर्व, यक, किन्नर तथा अप्‍सराओं की भी दिव्‍य कथाएं जानते हैं। ‘विप्रवर। अब मैं यथार्थरुप से यह सुनना चाहता हूँ कि इक्ष्‍वाकुवंश में जो कुवलाश्व नाम से विख्‍यात विजयी राजा हो गये हैं, वे क्‍यों नाम बदलकर ‘धुन्‍धुमार’ कहलाने लगे। ‘भृगुश्रेष्‍ठ। बुद्धिमान राजा कुवलाश्रव के इस नाम परिवर्तन का यथार्थ कारण मैं जानना चाहता हूँ।

वैशम्पायन जी ने कहा- भारत। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर महामुनि मार्कण्‍डेय ने धुन्‍धुमार की कथा प्रारम्‍भ की।

धुन्‍धुमार का आख्‍यान.

मार्कण्‍डेय जी बोले- राजा युधिष्ठिर। सुनो। धुन्‍धुमार का आख्‍यान धर्ममयी है। अब इसका वर्णन करता हूं, ध्‍यान देकर सुनो। महाराज। इक्ष्‍वाकुवंशी राजा कुवलाश्रव जिस प्रकार धुन्‍धुमार नाम से विख्‍यात हुए, वह सब श्रवण करो। भरतनन्‍दन। कुरुकुलरत्‍न। महर्षि उत्तंक का नाम बहुत प्रसिद्ध है। तात। मरु के रमणीय प्रदेश में उनका आश्रम है। महाराज प्रभावशाली उत्तंक ने भगवान विष्‍णु की आराधना की इच्‍छा से बहुत वर्षो तक अत्‍यनत दुष्‍कर तपस्‍या किया था। उनकी तपस्‍या से प्रसन्‍न होकर भगवान ने उन्‍हें प्रत्‍यक्ष दर्शन दिया। उनका दर्शन पाते ही महर्षि नम्रता से झुक गये और नाना प्रकार के स्‍तोत्रों द्वारा उनकी स्‍तुति करने लगे।

देव। आप देवताओं, मनुष्‍यों तथा सम्‍पूर्ण भूतों को सुख पहुँचाने वाले हैं। आप ने तीन पगों द्वारा ही (बलि के हाथ से ) तीनों लोक (दान द्वारा) हरण कर लिये थे। आपने समृद्धिशाली असुरों का संहार किया है। आपके ही पराक्रम से देवता परम सुख-शान्ति के भागी हुए हैं। महाद्युते। आपके रुष्‍ट होने से ही दैत्‍यराज देवताओं के सामने पराजित हो जाते हैं। आप इस जगत के सम्‍पूर्ण प्राणियों की सुष्टि तथा संहार करने वाले हैं। प्रभो। आपकी आराधना करके ही सम्‍पूर्ण देवता सुख एवं समृद्धि लाभ करते हैं। महात्‍मा उत्तंक के इस प्रकार स्‍तुति करने पर सम्‍पूर्ण इन्द्रियों के प्रेरक भगवान विष्‍णु ने उनसे कहा-‘महर्षे। मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर मांगो’।

उत्तंक ने कहा- भगवन। समस्‍त संसार की सुष्टि करने वाले दिव्‍य सनातन पुरुष आप सर्वशक्तिमान श्री हरि का जो मुझे दर्शन मिला, यही मेरे लिये सबसे महान् वर है। लोभशून्‍यता एवं उत्तम भक्ति से तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। ब्रह्मन। तुम्‍हें मुझ से कोर्इ वर अवश्य लेना चाहिये। भगवान विष्‍णु के द्वारा वर लेने के लिये आग्रह होने पर उत्तंक ऋषि ने हाथ जोड़कर इस प्रकार वर मांगा। ‘भगवन्। कमलनयन। यदि आप मुझ पर प्रसन्‍न हैं तो मेरी बुद्धि सदा धर्म, सत्‍य और इन्द्रिय निग्रह में लगी रहे। मेरे स्‍वामी। आपके भजन का मेरा अभ्‍यास सदा बना रहे।

धुन्‍धुमार जन्म. 

श्री भगवान बोले- ब्रह्मन। मेरी कृपा से यह सब कुछ तुम्‍हें प्राप्‍त हो जायेगा। इसके सिवा तुम्‍हारे ह्दय में उस योगविद्या का प्रकाश होगा, जिससे युक्‍त होकर तुम देवताओं तथा तीनों लोकों का महान कार्य कर सकोगे। विप्रवर। धुन्‍धु नाम से प्रसिद्ध एक महान असुर है, जो तीनों लोकों का संहार करने के लिये घोर तपस्‍या कर रहा है। जो वीर उस महान असुर का वध करेगा, उसका परिचय देता हूं, सुनो।

तात। इक्ष्‍वाकु कुल में बृहदश्व नाम से प्रसिद्ध एक महा पराक्रमी और किसी से पराजित न होने वाले राजा उत्‍पन्न होंगे। उनका पवित्र और जितेन्द्रिय पुत्र कुवलाश्रव के नाम से विख्‍यात होगा। ब्रह्मर्षे। तुम्‍हारे आदेश से वे नृप श्रेष्‍ठ कुवलाश्रव ही मेरे योगबल का आश्रय लेकर धुन्‍धु राक्षस का वध करेंगे और लोक में धुन्‍धुमार नाम से विख्‍यात होंगे। उतंग ऋषि से ऐसा कहकर भगवान विष्‍णु अन्‍तर्धान हो गये।

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