कौन है, इस अनुशासित
सृष्टि का नियन्ता?
यह समूचा विश्व ब्रह्माण्ड, उसके सारे घटक इतने सुनियोजित ढंग से अपना कार्य कर रहे हैं, जिसे देखकर किसी न किसी नियामक सत्ता की कल्पना करनी ही पड़ती है। इसके बिना ब्रह्माण्ड की व्याख्या और उसकी निरन्तरता की विवेचना पूर्ण रूप से नहीं की जा सकती। इसे मात्र संयोग भी नहीं कहा जा सकता कि इस अनन्त ब्रह्माण्ड के असंख्यों और सौर मण्डल-उनके समस्त ग्रह-नक्षत्र अपना-अपना अलग अस्तित्व बनाये हुए, अपनी कक्षाओं पर भ्रमण करते हुए अपना निर्धारित क्रिया-कलाप चला रहे हैं। इनका कोई उद्देश्य नहीं, परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं, ऐसा मानना अविवेक पूर्ण होगा।
सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने पर हर कोई यह समझने में समर्थ हो सकता है कि यह सारे ग्रह नक्षत्र एक ही सत्ता सूत्र के-धागों में मनकों की तरह पिरोये हुए हैं, और ग्रह-नक्षत्र की यह माला एक ही दिशा में-एक ही नियंत्रण में गतिशील हो रही है। इतना ही नहीं उनका परस्पर भी अति घनिष्ट सम्बन्ध है। एक ही परिवार के सदस्य जैसे मिलजुल कर कुटुम्ब का एक ढाँचा बनाये रहे हैं, उसी प्रकार समस्त ग्रह-नक्षत्र-सृष्टि के समस्त घटक एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं, और परस्पर बहुत कुछ लेने-देने का क्रम चलाते हुए ब्रह्माण्ड की वर्तमान स्थिति बनाये हुए हैं। यह सब एक विश्वव्यापी प्रेरक और नियामक सत्ता द्वारा ही संभव है।
वस्तुतः इस संसार में “अकेला” नाम का कोई पदार्थ नहीं। यहाँ सब कुछ सुगठित और सुसम्बद्ध है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु भी अपने गर्भ में कितने ही घटक संजोये हुए एक छोटे सौर-मण्डल परिवार की तरह प्रगतिशील रह रहा है। इलेक्ट्रान प्रोटान आदि घटकों की परतें खुलती जा रही हैं और पता लग रहा है कि उनके गर्भ में भी और कितने ही समूह वर्ग विराजमान हैं। यह सभी निरन्तर गतिशील रहते हुए किसी उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में व्यवस्थित क्रम से क्रियारत हैं, इन्हीं सब बातों को देखते हुए सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक कार्ल साँगा ने अपनी कृति में लिखा है कि - संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम व्यवस्थानुसार कार्य करता है। यदि इसमें तनिक भी व्यतिक्रम और अनुशासनहीनता दृष्टिगोचर होती तो विराट् ब्रह्माण्ड एक क्षण भी अपने वर्तमान अस्तित्व को नहीं रख पाता तथा क्षणमात्र में विस्फोट से इस प्रकृति में आग लग जाती और यह संसार अग्नि की लपटों में घिरा एक तप्त पिण्ड भर होता। परन्तु देखने में ऐसा नहीं आता। अतः यह किसी चेतन समष्टि सत्ता का अस्तित्व में होना प्रमाणित करता है।
सृष्टि चक्र में सर्वत्र अन्योन्याश्रय का सिद्धान्त काम कर रहा है। जड़ चेतन से विनिर्मित यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड एकता के सुदृढ़ बन्धनों में बँधा हुआ है। एक से दूसरे का पोषण होता है और हर किसी को दूसरों का सहयोगी होकर रहना पड़ रहा है। यह पारस्परिक बन्धन की सृष्टि के शोभा, सौंदर्य का, उसकी विभिन्न हलचलों का, उत्पादन-विकास एवं परिवर्तन का उद्गम केन्द्र है। इनके मूल में अदृश्य किंतु सर्वशक्तिमान सत्ता ही कार्यरत है। प्रख्यात विचारक मनीषी रुडाल्फ ओटो को सुदूर आकाश में जाज्वल्यमान ग्रह-नक्षत्रों, सुसज्जित तारों को देखकर यही अनुभूति हुई थी कि जिस क्रमबद्धता - सुगढ़ता और अनुशासन से ये सब ग्रह-नक्षत्र गतिमान हैं, निश्चय ही इसके पीछे किसी विशिष्ट प्रेरक शक्ति का हाथ है। उनके अनुसार विश्व ब्रह्माण्ड के सभी घटकों में विद्यमान नियमितता, अनुशासनात्मक गतिशीलता और पारस्परिक आदान-प्रदान को देखकर यह सहज ही विश्वास होता है कि कोई दिव्य और महान चेतना अवश्य है, अन्यथा इतनी सुन्दर सृष्टि की महान कल्पना भला कौन कर सकता?
रुडाल्फ का कहना है कि जब प्रकृति की अनुपम छटा का अवलोकन करते हैं तो सृजनकर्ता के इस कृत्य में निश्चित ही एक सृजनात्मक लक्ष्य परिलक्षित होता है। नियमितता, सहकारिता, विकास-शीलता की - सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की ही झाँकी जड़-चेतन में सर्वत्र दिखाई पड़ती है। समस्त प्रकृति उस परम सत्ता का अभिव्यक्तिकरण है, जो सुन्दरता और मनोहारी दृश्यों से ओत-प्रोत है। सौंदर्य बोध से उसकी अनुभूति होती है। मनुष्य को विलक्षण एवं अलौकिक शक्तियों से भरपूर मस्तिष्क इसीलिए प्रकृति प्रदत्त अनुदान रूप में मिला है कि उसके माध्यम से वह उस कलाकार की सुन्दर रचना की अनुभूति कर सके और उसका सदुपयोग कर सुखी समुन्नत बन सके।
प्रख्यात वैज्ञानिक मनीषी फ्रांसिस मेसन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि प्रकृति एक ईश्वरीय विधान है, एक व्यवस्था है। यह कोई अनगढ़ या बेतुकी उपज नहीं वरन् योजनाबद्ध ढंग से विनिर्मित एक कृति है, एक दिशा है जिसके अन्तराल में एक महान और उच्चस्तरीय बुद्धिमत्ता सन्निहित है। यह न तो दैवयोग की सृष्टि है और न ही यान्त्रिकी संयोग है वरन् इस विश्व ब्रह्माण्ड में एक ऐसी परम सत्ता काम कर रही है, जिसे स्पिरिट या विश्वात्मा कहा जा सकता है। उसकी महानता, दिव्यता, सर्व समर्थता एवं सौंदर्य का बोध कराने के लिए ही ग्रह नक्षत्रों सहित समस्त जड़ चेतन की उत्पत्ति हुई है। यह सब उसी महासत्ता के घटक हैं।
सभी ग्रह-गोलक अपनी-अपनी कक्षा में निर्बाध रूप से गतिमान हैं। एक पर्यवेक्षक की तरह यदि पूरे ब्रह्माण्ड के ग्रह पिण्डों की अपनी गतियों, उनके सतह की परिस्थितियों और उनके पारस्परिक सम्बन्धों का सूक्ष्मता से अध्ययन करें तो हमें ज्ञात होगा कि इनकी व्यक्तिगत विशिष्टताएँ सोद्देश्य हैं। उदाहरण के लिए सूर्य को ही लें तो यह हमारी धरती से 13 लाख 10 हजार किलोमीटर दूर स्थित है। इसका व्यास 9 लाख 90 हजार मील तथा भार पृथ्वी से 3 लाख 33 गुना अधिक है। जितने भी ग्रह सौर-मण्डल में विद्यमान हैं, सूर्य का भार उनसे ठीक एक हजार गुना अधिक है। सूर्य आग का जलता हुआ एक गोला है जिसका बाह्य तापमान करीब 6000 डिग्री सेन्टीग्रेड तथा भीतरी लगभग 15 करोड़ डिग्री सेन्टीग्रेड है इसके एक वर्ग इंच क्षेत्र में 60 अश्वशक्ति के बराबर ऊर्जा है। यदि उसके सम्पूर्ण क्षेत्र की प्रचण्ड ऊर्जा एक साथ पृथ्वी पर फेंक दी जाती तो यह धरती भी एक धधकता सूर्य पिण्ड बन जाती। पर ऐसा नहीं होता। सूर्य की ताप ऊर्जा का जो अनुदान पृथ्वी को मिलता है, उसकी वितरण प्रणाली में भी एक प्रकार का बुद्धिमत्तापूर्ण नियंत्रण दिखाई देता है। एक सुनिश्चित दूरी पर अवस्थिति सूर्य की सतह पर जो तापमान है, उसका 220 करोड़वाँ भाग मात्र ही पृथ्वी को मिल पाता है। इस संतुलित प्रकाश ऊर्जा को पृथ्वी तक पहुँचने में केवल आठ मिनट लगते हैं। इसी से मनुष्य सहित समस्त प्राणि समुदाय एवं विशाल वनस्पति जगत की सम्पूर्ण आवश्यकताएँ तथा ऋतु संचालन की सारी क्रियाएँ सम्पन्न होती रहती हैं। यदि सूर्य की इस दूरी में तनिक भी न्यूनाधिकता होती तो यहाँ जीवन धारण योग्य वातावरण नहीं रह पाता। निकटता में गरमी बढ़ती और दूरी से शीतलता आती। दोनों ही स्थितियों में जीवन असंभव होता।
इस बात को अब वैज्ञानिक भी स्वीकारने लगे हैं कि यदि सूर्य का प्रकाश दो प्रतिशत भी न्यून हो जाये तो पृथ्वी पर जाड़े की ऋतु के स्थान पर सदा के लिए शीतयुग हो जायेगा। यदि उसकी गर्मी केवल 13 प्रतिशत घट जाय तो सम्पूर्ण धरती एक मील मोटी बर्फ की चादर से ढक जायेगी। इसी तरह यदि सूर्य का तापमान 30 प्रतिशत अधिक हो जाये तो उत्पन्न गर्मी के तपन से यहाँ एक भी प्राणी का नामोनिशान देखने को नहीं मिलेगा। सभी विनष्ट हो जायेंगे। पर पृथ्वी इस संदर्भ में अन्य ग्रह-नक्षत्रों से कहीं अधिक सौभाग्यशाली है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य से इसकी दूरी तथा कक्षा में स्थिति इतनी सुनियोजित एवं व्यवस्थित ढंग की हुई है कि उससे प्राणियों का जन्म, ऋतुअनुकूलता एवं शोभा सुषमा का सृजन संभव हो सका। यह स्थिति अन्य ग्रहों की नहीं है। उनका तापमान या तो इतना अधिक या इतना कम है कि उनमें जीवन विकास हो ही नहीं सकता। संभवतः यही कारण है कि अन्यान्य ग्रहों पर अभी तक जीवन को खोजा नहीं जा सका है।
फ्राँसिज मेशन के अनुसार अपने सौर मण्डल में जो अगणित और व्यवस्थापन निश्चित ही किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये हो रहा है। जिस प्रकार बैठने के एक कक्ष में सजावट, सुव्यवस्था, सुन्दरता के दर्शन होते हैं, सभी वस्तुएँ उचित स्थान पर रखी जाती है उसी प्रकार इस ब्रह्माण्ड में सृष्टिकर्ता ने अनेकानेक ग्रह-नक्षत्रों, नदी, पहाड़ों, झरनों, वृक्ष वनस्पतियों प्राणियों को एक व्यवस्थित क्रम से संजोकर रखा है। इस सुव्यवस्था और सुन्दरता के पीछे अवश्य ही कोई महान लक्ष्य सन्निहित है। मनुष्य अपनी अल्पज्ञता के कारण स्रष्टा के उस सर्वोच्च उद्देश्य को नहीं समझ पाता और उसकी सृष्टि व्यवस्था को बेतुका मानता और व्यतिरेक उत्पन्न करता रहता है। जिस आश्रय स्थल पर निवास करता है उस पृथ्वी के बारे में ही उसे बहुत कम जानकारी है। जबकि इसका वातावरण और परिस्थितियाँ इतने विवेकपूर्ण ढंग से विनिर्मित हैं कि यदि उनसे छेड़खानी न की जाये तो इसके चारों ओर गैसों के जो अनेक सुरक्षा कवच बने हुए हैं और अनावश्यक हानिकारक ब्रह्माण्डीय विकिरणों से हमारी रक्षा करते हैं, वे अनन्त काल तक वैसे ही बने रह सकते हैं। पृथ्वी की दैनिक और वार्षिक गतियाँ भी इसी तरह निर्धारित हैं कि जीवन धारण के लिए वे तनिक भी अन्यथा नहीं पड़तीं। ऐसे ही अन्य सभी ग्रह नक्षत्र भी हैं जो अपनी-अपनी कक्षा में निर्बाध रूप से गतिमान हैं। उनसे अब तक किसी तरह का व्यतिरेक नहीं आया।
इस प्रकार इन सभी तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार करें तो इन्हें सहज संयोग कहकर नहीं टाला जा सकता। इनके पीछे सुव्यवस्था, सुसंतुलन सुनियोजन सुनियंत्रण का जो अद्भुत सामंजस्य दिखाई पड़ता है, वह निश्चय ही किसी अदृश्य नियन्ता के बिना शक्य नहीं। संभव है ब्रह्माण्ड की इन्हीं सब विशिष्टताओं को देखते हुए प्रसिद्ध वैज्ञानिक मनीषी सर जेम्स जीन्स के यह उद्गार निकल पड़े हों कि - “यह विश्व ब्रह्माण्ड किसी तीर तुक्के की परिणति नहीं, वरन् सुनियोजित ढंग से विनिर्मित किसी बुद्धिमत्तापूर्ण सत्ता की सुंदरतम अभिव्यक्ति है।” दार्शनिक स्पिनोज भी अपना मत प्रकट करते हुए यही कहते हैं कि “यह ब्रह्माण्ड ईश्वर के ही विचारों का मूर्तरूप है।” महान वैज्ञानिक पास्कल का कहना था कि “दृश्य पदार्थों में अदृश्य रूप से काम करने वाली एक ही सत्ता है वही इस विराट् विश्व का संचालन करती है।” प्रख्यात भौतिकविद् फ्राँसिस थामसन ने सृष्टि संरचना पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि “संसार की समस्त वस्तुएँ एक अखण्ड सत्ता से जुड़ी हैं। चाहे वे बड़ी हों या छोटी, उनका परस्पर सम्बन्ध इतना प्रगाढ़ व सुनियोजित है कि सभी को आश्चर्य होता है। उसी अचिन्त्य अगम्य सत्ता के इशारे पर सृष्टि के सारे क्रियाकलाप संचालित होते हैं।”
सर फ्राँसिस का यह कथन वस्तुतः उस आप्त वचन की ही याद दिलाता है जिसमें कहा गया है कि ईश्वर की सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है। उसी ने समस्त जगत को आच्छादित कर रखा है। अतः यह न तो कुछ अनगढ़ है और न बेतुका वरन् सब कुछ योजनाबद्ध ढंग से एक अनुशासित सत्ता द्वारा संचालित हो रहा है। उसी के अनुशासन को जीवन में उतार कर व्यक्ति सही अर्थों में आस्तिक बन सकता है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को, श्रीराम ने कौशल्या व काक भुशुंडी को जो विराट रूप दिखाया था, वह यही परब्रह्म का, नियामक सत्ता का रूप है। इसकी उपस्थिति सृष्टि के कण-कण, अपने रोम-रोम में मानते हुए जो अपनी क्रिया पद्धति का जीवन चर्या का सुनियोजन करता है, वही सही अर्थों में ईश्वर का श्रेष्ठ पुत्र युवराज मानव कहलाने का अधिकारी है।
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