शुभासित.
1.यह संसार न माया हैं, न मिथ्या. यह भगवान् का विराट-स्वरूप हैं। इससे अलग होना संभव नहीं और हो गए, तो फिर जीवन का निर्वाह नहीं।2
स्वार्थ की भावना से जो सेवा की जाती हैं, वह परोपकार नहीं, प्रवंचना हैं।3.
अपने सुख या मोक्ष के लिए साधना करते रहना ही “अध्यात्म” नहीं हैं।. सच्चा अध्यात्म हैं-अपने समस्त गुणों, सारी उपलब्धियों को समाज हित में निछावर कर देना।4.
महर्षि अत्री के वंश में उत्पन्न विदुषी विश्ववारा ने योग्याभ्यास और विशाल अध्ययन के बल पर ब्रह्मवादिनी पद पाया। ऋग्वेद के कितने ही अनुच्छेदों की गहन विवेचना की और उन लोगो का मुंह बंद कर दिया, जो स्त्रियों को वेद की अनाधिकरिणी मानते हैं।
5.
दुष्कर्मों की प्रतिक्रियाँ और सत्कर्मों का पुण्यफल तत्काल न मिलने से यह मान लेना कि कर्मों का फल नहीं होता, धोका हैं। बीज को गलकर वृक्ष-रूप ग्रहण करने की प्रक्रियाँ समय-साध्य होती हैं।
6.
“सांसारिक-सुख” जीवन को सरस एवं सर्वांगपूर्ण बनायें रखने की दृष्टि से उपयोगी हो सकते हैं, किन्तु इनको ही जीवन का लक्ष्य मान लेना, आत्म-कल्याण के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा हैं।
7.
“परमार्थ” मानव जीवन का अत्यंत आवश्यक धर्म-कर्तव्य हैं। इसकी उपेक्षा करते रहने से अपनी आध्यात्मिक पूँजी घटती हैं, आत्मबल क्षीण होता हैं और अंतर्चेतना में गिरावट आने लगती हैं।
8.
नाम-जप कर लेने मात्र से परमार्थ प्रयोजन सिध्द हो जायेगा, यह सोचना सस्ते नुस्खों से मन बहलाना हैं। जब तक यथार्तवादी होकर जीवन साधना के प्रधान अंग “परमार्थ” को अपनाया नहीं जात
9.
प्रेम स्वयं में सृजन हैं। वह जहाँ उत्पन्न होता हैं, वहाँ देवत्व उत्पन्न करता हैं और जिस पर उसे प्रयुक्त किया हैं, वह समर्थ बनता हैं। शर्त इतनी ही हैं कि प्रेम सच्चे अर्थों में प्रेम ही होना चाहिए।
10.
जिसके पास अच्छे विचारों और सत-साहित्य का भंडार हैं, वह कभी निर्धन तथा एकाकी नहीं हो सकता।
11.
सत्य अकेला नहीं, प्रेम और न्याय को भी साथ लेकर चलता हैं। इसी प्रकार असत्य के साथ पतन और संकट की जोड़ी चलती हैं।
12.
आशा, उत्साह और गति का समन्वय ही जीवन हैं।
13.
आदर्शों के लिए घाटा उठाने और लड़-मरने की साहसिकता का अनुदान “अवतार” अथवा कारक-पुरुष” के अतिरिक्त और किसी के पास नहीं होता।
14.
मरण के उपरांत ही स्वर्ग, नरक या मोक्ष मिलता हैं, यह सोचना ठीक नहीं। इनका आरम्भ तो जन्म लेते ही आरम्भ हो जाता हैं।
15.
भलाई का पुरुष्कार पाने और बुरे का दंड भुगतने में देर नहीं लगती। आत्मा के संतोष और पश्चाताप के रूप में वह हाथों-हाथ मिलता हैं।
16.
जब तक अपने को उठाने और सुधारने के लिए स्वयं तैयार नहीं होते, तब तक कोई दूसरा तुम्हे उठा या सुधार नहीं सकता।
17.
परिशोधन का अर्थ हैं, मन की पवित्रता तथा अंत:करण को दुर्भावनाओं से रहित करना।
18.
“कुकर्म” और “कुविचार” मृत्यु के प्रतिनिधि हैं, इसीलिए इन दुर्गुणों से दूर रहने के लिए कहा जाता हैं।
19.
सत-साहित्य का अध्ययन, भावी जीवन के विभेदों और संकटों को शांति तथा प्रसन्नता में बदलने का मार्ग सुझा देता हैं।20.
आदमी की परख उसके कर्म और व्यवहार से होती हैं, सिर्फ बातों से नहीं।21.
“विज्ञान”, बाहर की प्रगति हैं और “ज्ञान” अंत: की अनुभूति।22.
पुराने जमाने में ईश्वर पर विश्वास न करने वाला नास्तिक होता था; पर अब स्वयं पर विश्वास न करने वाला नास्तिक कहलाता हैं।23.
सुन्दरता चेहरे की बनावट एवं साज-सज्जा पर टिकी हुई नहीं हैं। वह तो अच्छे स्वाभाव और सज्जनोचित व्यवहार से उभरती हैं।24.
जो उदारता पूर्वक सबके हित की बात सोचता हैं, वहीं मनुष्य श्रेय का अधिकारी हैं।
25.
धर्म को जीने वाले, धर्म को समझते हैं, पर धर्म के लिए झगड़ते और मरते-मारते नहीं हैं।
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