केनोपनिषद
(सारांश)
ॐ अप्यायंतु ममांगानि वाक्प्राणचक्षुषः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि सर्वं ब्रह्मोनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोद निराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तुतदात्मानि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि संतु।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
आशय..मेरे अंग पुष्ट हों तथा मेरे वाक, प्राण चक्षु, श्रोत्र, बल और संपूर्ण इंद्रियां पुष्ट हों। यह सब उपनिषद विद्या ब्रह्म है। मैं ब्रह्म का निराकरण न करूं, ब्रह्म मेरा निराकरण न करे। इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो। उपनिषदों में जो धर्म है, वह आत्मज्ञान में लगे हुए मुझ में निहित हो, वह मुझ में निहित हो। त्रिविध तापों की शांति हो।
प्रथम खंड
(1) यह मन किसकी इच्छा से प्रेरित होकर अपने विषयों में गिरता है? यह प्राण किसके द्वारा प्रयुक्त होने पर चलता है? यह वाणी किसके द्वारा इच्छा किये जाने पर बोलती है? कौन देव नेत्रों तथा कानों को प्रेरित करता है?
(2) जो कानों का भी कान, मन का भी मन और वाणी की भी वाणी है, वही प्राणों का भी प्राण और चक्षु का भी चक्षु है। इस तथ्य को जानकर धीर पुरुष मृत्यु के पश्चात मुक्त होकर अमर हो जाते हैं।
(3) उस ब्रह्म तक आंखें, वाणी और मन पहुंच ही नहीं सकते। अतः उस ब्रह्म के विषय में शिष्य को किस प्रकार उपदेश देना चाहिए, यह हम नहीं जानते; यह हमारी बुद्धि में नहीं आता। वह विदित एवं अविदित से अन्य ही है, ऐसा हमने अपने पूर्व पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमें उसका उपदेश दिया था।
(4) जो वाणी से प्रकाशित नहीं हो सकता, किंतु जिससे वाणी प्रकाशित होती है उसी को ब्रह्म समझना चाहिए। यह जिस विशेष नाम युक्त ईश्वर (जैसे इंद्र, अग्नि, वायु, विष्णु, रुद्र आदि) की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।
(5) जिसके विषय में मन मनन नहीं कर सकता, परंतु जिसकी सत्ता से मन मनन करने की सामर्थ्य रखता है, ऐसा कहा जाता है, उसी को ब्रह्म समझो। जिस विशेष नामयुक्त ईश्वर की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।
(6) जिसे कोई नेत्र नहीं देखता, किंतु जिसकी सहायता से नेत्र अपने विषय को देखते हैं, उसी को ब्रह्म समझो, जिस विशेष नाम युक्त ईश्वर की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।
(7) जिसे कोई कान नहीं सुनता, परंतु जिसकी सहायता से कान सुनने का कार्य करते हैं, उसी को ब्रह्म समझो। जिस विशेष नामधारी ईश्वर की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।
(8) जो नासिका में स्थित प्राण, वायु का विषय नहीं बन सकता, अपितु जिससे प्राण अपने विषय (सूंघना) कार्य करते हैं, उसी को ब्रह्म समझो। जिस विशेष नामधारी ईश्वर की लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।
द्वितीय खंड
(1) यदि तुम यह समझते हो कि तुम ईश्वर को अच्छी तरह जानते हो, तो निश्चय ही तुम ब्रह्म का अल्प रूप ही जानते हो। इसका जो रूप तुम जानते हो और जो रूप देवताओं में जाना जाता है, वह भी अल्प ही है। अतः तुम्हारे लिए ब्रह्म विचार करने योग्य है।’ इस पर एकांत में विचार करने के अनंतर शिष्य ने कहा कि, ‘वह अब ईश्वर को जान गया है।’
(2) मैं न तो यह मानता हूं कि मैं ब्रह्म को अच्छी तरह जान गया हूं और न यही समझता हूँ कि उसे नहीं जानता हूं। इसलिए मैं उसे जानता भी हूं और नहीं भी जानता हूं। हम शिष्यों में ब्रह्म के विषय में जिसकी यह धारणा है कि मैं उसे जानता भी हूं और नहीं भी जानता हूं, वही ब्रह्म को जानता है।
(3) ब्रह्म जिसे ज्ञात नहीं है, उसी को ज्ञात है। जिसको ज्ञात है, वह उसे नहीं जानता, क्योंकि वह जाननेवालों को बिना जाना हुआ और न जाननेवालों का जाना हुआ है। अन्य वस्तुओं के समान दिखाई न पड़ने के कारण वह इंद्रियों का विषय नहीं बन सकता।
(4) सभी इंद्रियां ब्रह्म की सत्ता से ही कार्य करती हैं, अतः प्रत्येक इंद्रिय के विषय से उसका ही बोध होता है, इसी से वह जाना जाता है, यही उसका ज्ञान है। इसी ब्रह्मज्ञान से अमरता प्राप्त होती है। अमरता स्वयं से ही प्राप्त होती है; विद्या तो केवल अज्ञान के अंधकार को दूर करने में सहायक सिद्ध होती है।
(5) यदि इसी जन्म में ब्रह्म को जान लिया जाए, तब तो ठीक है। यदि ऐसा न हो पाए तो यह प्राणी के लिए सर्वाधिक हानि की बात है। ज्ञानी लोग प्रत्येक प्राणी में ब्रह्म की सत्ता को देखकर, मृत्यु के पश्चात् अमर हो जाते हैं।
तृतीय खंड
(1) यह प्रसिद्ध है कि पूर्व कथित लक्षणोंवाले परब्रह्म ने देवताओं के लिए विजय प्राप्त की थी। कहते हैं कि उस ब्रह्म की विजय से देवताओं ने विजय प्राप्त की थी।
(2) तब देवताओं ने सोचा यह विजय उनके निजी प्रयत्नों से मिली है। कहते हैं—वह ब्रह्म देवताओं के मनोभावों को जान गया और उनके सामने यक्ष के रूप में प्रादुर्भूत हुआ। यक्ष के रूप में आए हुए उस ब्रह्म को लोग नहीं पहचान सके कि यह कौन है?
(3) वे देवता अग्नि से बोले, ‘हे अग्नि यह ज्ञात करो कि यह यक्ष कौन है?’ अग्नि ने स्वीकृति दे दी।
(4) अग्नि यक्ष रूपी ब्रह्म के पास गया, यक्ष ने अग्नि से पूछा, ‘तुम कौन हो।’ इस पर अग्नि ने उत्तर दिया, ‘मैं अग्नि हूं। मेरा नाम जातवेदास भी है।’
(5) इस पर यक्ष ने पूछा, ‘हे जातवेदास, तेरे नाम के अनुरूप तुझमें कौन-सी शक्ति है?’ अग्नि ने उत्तर दिया, ‘पृथ्वी में दिखाई देनेवाले इस समस्त चराचर को मैं जला सकता हूं। आकाश में स्थित वस्तुएं भी मुझसे जल सकती हैं।’
(6) यक्ष ने अग्नि को एक तिनका दिया और कहा, ‘इसे जलाकर दिखाओ।’ अग्नि उस तिनके में प्रविष्ट हुआ, किंतु अपनी संपूर्ण शक्ति से भी उसे न जला सका और लौटकर देवताओं के पास चला आया तथा उनसे बोला, ‘यह यक्ष कौन है? मैं इस तथ्य का पता न लगा पाया।’
(7) तदनंतर देवताओं ने वायुदेव को आज्ञा दी, ‘हे वायु, अब तुम मालूम करो कि यह यक्ष कौन है?’ वायु ‘बहुत अच्छा’ कहते हुए चल पड़ा।
(8) वायु यक्ष के पास गया। इस पर यक्ष ने प्रश्न किया, ‘तुम कौन हो?’ यह पूछे जाने पर वायु ने कहा, ‘मैं वायु हूं, मुझे मातरिश्वा भी कहते हैं।’
(9) तब यक्ष ने पूछा, ‘हे वायु! तुझमें क्या शक्ति है?’ वायु ने कहा, ‘पृथ्वी में जो कुछ भी है, उसे मैं उड़ा सकता हूं।’
(10) तब यक्ष ने एक तिनका देते हुए वायु से कहा, ‘इसे उड़ाओ’ इस पर वायु तिनके के पास गया, किंतु अपनी पूरी शक्ति से भी उसे उड़ा नहीं सका। तब वह भी देवताओं के पास लौट आया और बोला, मैं इस बात को नहीं जान पाया कि यह यक्ष कौन है?’
(11) तब देवताओं ने इंद्र से कहा, ‘हे मेघवन! अब तुम इस बात का पता लगाओ कि यह यक्ष कौन है?’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर इंद्र यक्ष के पास गया, किंतु यक्ष इंद्र के सामने से अंतर्धान हो गया।
(12) जिस आकाश में वह यक्ष अंतर्धान हुआ था, इंद्र भी वहीं गया। वहीं उसने उस शोभामयी स्त्री हिमालय की पुत्री उमा (ब्रह्म विद्या) से पूछा, यह यक्ष कौन है?’
चतुर्थ खंड
उस विद्या देवी ने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘यह ब्रह्म है, इसकी विजय से ही तुम महिमामय हुए हो।’ ऐसा कहते हैं कि तभी इंद्र ने जाना कि वह ब्रह्म था।
(2) अग्नि, वायु और इंद्र इन तीनों देवताओं ने ही सबसे पहले यह जाना कि ‘यह ब्रह्म है तथा इन तीनों ने ही सर्वप्रथम उसका स्पर्श किया था। वे अन्य देवताओं से श्रेष्ठ माने गए।
(3) इंद्र ने सर्वप्रथम समीपस्थ ब्रह्म का स्पर्श किया और जाना कि यह ब्रह्म है, अतः वह सभी देवताओं में प्रमुख माना गया।
(4) यह उस ब्रह्म का उपासना-संबंधी उपदेश है, जो पलक झपकने अथवा विद्युत चमकने के समान उत्पन्न हुआ। यह उस ब्रह्म का अधिदेवता रूप है।
(5) अब अध्यात्म उपासना का उपदेश इस प्रकार है—मन को गतिमान कहा जाता है। यह ब्रह्म इस प्रकार मन से ही बार-बार ब्रह्म का स्मरण होता है तथा निरंतर संकल्प किया जाता है।
(6) उस ब्रह्म ही वन अर्थात् भजन करने योग्य है, अतः उसकी वन नाम से उपासना करनी चाहिए। जो उसे इस तरह जानता है, उसी को सभी प्राणी अच्छी तरह चाहने लगते हैं।
(7) शिष्य द्वारा गुरु से उपनिषद् शिक्षा के विषय में अनुरोध किया गया। अतः इस शिक्षा को देने के बाद गुरु ने कहा—‘मैं तुम्हें ब्रह्म विषयक उपनिषद् का ज्ञान दे चुका हूं। अब तुम्हें ब्रह्म जाति संबंधी उपनिषद् का ज्ञान दूंगा।
(8) उस ब्राह्मी उपनिषद् की तप, दम, कर्म, वेद, और संपूर्ण वेदांग (व्याकरण, ज्योतिष, छंद आदि) यह सब प्रतिष्ठा है तथा सत्य उसका घर है।
(9) जो निश्चयपूर्वक इस उपनिषद को इस प्रकार जानता है, वह अपने पापों को नष्ट करके अनंत और महान स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है।
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