प्राण क्या हैं?
प्राण, उर्जा या शक्ति का मूलतत्व हैं। प्राण ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त उर्जाओं, प्रकृति की समग्र शक्तिओं और मनुष्य में छिपे सभी समर्थो का योग फल हैं। प्रलय के समय यह प्राण सूक्ष्म, अचल, अव्यक्त और साम्यावस्था में रहता हैं। श्रृष्टि के समय प्राण गतिशील होकर आकाश को प्रभावित करता हैं तथा विभिन्न रूप उत्पन्न करता हैं। ब्रह्माण्ड और पिंडाण्ड़ प्राण और आकाश के संयोग से बनता हैं।
सभी शक्तियां, सामर्थ्य और प्राण एक ही स्त्रोत्र से उत्पन्न होते हैं, जो आत्मा के रूप में जाना जाता हैं। ताप, प्रकाश, विद्युत, चुम्कत्व-सभी प्राण की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। यह लघुत्तम से उच्चतम, सभी प्राणियों में पाया जाता हैं। जो भी वस्तु गतिमान हैं, जिसमें भी जीवन हैं, वह प्राण की अभिव्यक्ति मात्र हैं। जो तुम्हारी आँखों में चमकता हैं, वह प्राण ही हैं। प्राण शक्ति के द्वारा ही कान सुनते हैं, आँखे देखती हैं, त्वचा अनुभव करती हैं, जिव्हा स्वाद लेती हैं, नाक सूंघ पाती हैं तथा मस्तिष्क और बुद्धि अपना कार्य करते हैं। इस इन्द्रिय जगत में आप जो भी देखते हैं, वे केवल प्राण की अभिव्यक्ति ही हैं।
रेडिओं तरंगे प्राण के माध्यम से यात्रा करती हैं। जो इंजिन या मोटर को चलाता हैं, वह प्राण ही हैं। प्राण ही रक्त को हृदय से धमनियों में भेजता हैं। प्राण के द्वारा पाचन, अवशोषण और उत्सर्जन होता हैं। प्राण ही भोजन को पचाता हैं, उसे वसा, लसिका और रक्त में परिवर्तित करता हैं तथा उसे मन और मस्तिष्क में पहुचाता हैं। इसके बाद ही मन सोचने और ब्रह्म की प्रकृति के बारे में जिज्ञासा करने में समर्थ होता हैं।
प्राण सूक्ष्म और स्थूल शरीर के मध्य की कड़ी हैं। जब यह सूक्ष्म कड़ी कट जाती हैं, तब सूक्ष्म शरीर भौतिक शरीर से अलग हो जाता हैं और मृत्यु घटित होती हैं। भौतिक शरीर में कार्य कर रहा प्राण, सूक्ष्म शरीर में वापस हो जाता हैं।
प्राण की सर्वश्रेष्टता.
हठयोग मानता हैं कि प्राण तत्व मनस तत्व से श्रेष्ट हैं। प्राण उस समय भी रहता हैं, जब निद्रावस्था में मन अनुपस्थित रहता हैं और इसी कारण मन की अपेक्षा अधिक ओजस्वी भूमिका निभाता हैं। यदि आप कौषितकी और छान्दोग्य उपनिषदों के उन दृष्टान्तों का अध्ययन करेंगे, जिनमें इन्द्रियों, मन और प्राण में अपनी-अपनी श्रेष्टता के सम्बन्ध में परस्पर विवाद हुआ, तो आपको पता चलेगा कि प्राण सभी तत्वों में श्रेष्टतम माना गया हैं। प्राण सबसे प्राचीन हैं, क्योकि प्राण उस क्षण से ही सक्रीय हो जाता हैं, जिस क्षण बच्चा गर्भ में आता हैं, जबकि श्रवणादि इन्द्रियाँ अपने विशेष अंगों के विकास के बाद ही काम करना प्रारम्भ करती हैं।
प्राण को उपनिषदों में ज्येष्ठ, बृद्धतम और श्रेष्ट कहा गया हैं। अतीन्द्रिय प्राण के स्पंदनों से ही मन में संकल्प क्रियाशील होते हैं और विचार उत्पन्न होते हैं। प्राण की सहायता से ही आप बाते करते हैं, सुनते, अनुभव करते, सोचते, समझते, इच्छा करते, जानते एवं चलते फिरते हैं और इसीलिये श्रुतिओं ने घोषित किया हैं-प्राण वस्तुत: ब्रह्म हैं।
प्राण के विभाग.
जिस प्रकार अंत:करण एक हैं पर उसके विभिन्न कार्यो के अनुसार चार विभाग हैं, यथा-मनस, बुद्धि, चित्त और अहंकार, उसी प्रकार प्राण के भी पांच विभाग हैं-प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। इस विभाजन को वृत्ति-भेद कहते हैं।
इन पांचो में प्राण और अपान मुख्य कर्ता हैं। प्राण का अधिष्ठान हृदय हैं और इसका कार्य हैं-श्वसन; अपान का स्थान उदर से गुदा तक हैं और कार्य हैं-उत्सर्जन; समान का अधिष्ठान नाभि क्षेत्र हैं और उसका कार्य हैं-पाचन; उदान का स्थान कंठ हैं और कार्य हैं- निगलना; यह जीव को निद्रा में ले जाता हैं और मृत्यु के समय सूक्ष्म-शरीर को भौतिक शरीर से अलग करता हैं; जबकि व्यान सर्वव्यापी हैं, यह सारे शरीर में भ्रमण करता हैं तथा रक्त संचरण के लिए उत्तरदायी हैं।
नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय, पांच उप-प्राण हैं। नाग-डकार और हिचकी के लिए उत्तरदायी हैं। कूर्म-आँखों की पलकों के खुलने और बंद होनें का काम करता हैं, कृकर-भूख और प्यास को अभिप्रेरित करता हैं। देवदत्त-जमुहाई का कारण हैं। धनंजय-मृत्यु के उपरांत शरीर के विघटन का कारण हैं।
प्राणों के रंग.
कहा जाता हैं कि प्राण का रंग मूंगे के सामान लाल होता हैं। अपान का वर्ण इन्द्रगोप (एक उजले, लाल रंग का कीट) के रंग के समान होता हैं। समान का रंग शुद्ध दूध या स्फटिक जैसा होता हैं, उदान धुंधले उजले रंग का होता हैं और व्यान प्रकाश किरण के समान उज्ज्वल होता हैं।
प्राणों का उपयोग.
एक स्वस्थ्य, सबल व्यक्ति में पर्याप्त जीवनी-शक्ति रहती हैं। सोचने, इच्छा करने, कार्य करने, चलने, बाते करने, लिखने आदि में प्राणों का व्यय होता हैं। इसकी आपूर्ति भोजन, जल, वायु, सौर-उर्जा, आदि से होती हैं। इनसे लिए गये प्राण को तंत्रिका संस्थान ग्रहण करता हैं। वायु में अवस्थित प्राणों का अवशोषण स्वसन द्वारा होता हैं। अतिरिक्त प्राण मस्तिष्क और तंत्रिका-केन्द्रों में संचित होता हैं। जब वीर्य-शक्ति का ओजस में रूपानतरण होता हैं, तब पूरे शरीर में प्रचुर मात्रा में प्राण की आपूर्ति होती हैं और मस्तिष्क में आध्यात्मिक उर्जा के रूप में संचित होता हैं।
एक योगी प्राणायाम के निश्चित अभ्यास से बड़ी मात्रा में प्राण उसी तरह संचित कर लेता हैं, जिस तरह बैटरी में विद्युत् संचित की जाती हैं। जिस योगी ने पर्याप्त प्राण संचित कर लिया हैं, वह अपने चारो ओर शक्ति और उर्जा का विकिरण करता हैं। वह, एक विजली घर जैसा होता हैं और जो भी उसके निकट संपर्क में आते हैं, उससे प्राण-शक्ति ग्रहण कर शक्ति, उत्साह, आनन्द और उल्लास प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार जल एक पात्र से दूसरे पात्र में प्रवाहित होता हैं। जिस व्यक्ति ने योगिक दृष्टी प्राप्त कर ली हैं, वह इसे प्रत्यक्ष देख सकता हैं।
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