शुभासित
1. एक आदमी जो विद्वान् है और भगवान् के सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्त्व को समझता है, किन्तु उपासना नहीं करता। दूसरा आदमी मूर्ख है, भगवान् के अवतार आदि का ध्यान करता है, तो उस विद्वान से यह मुर्ख श्रेष्ठ है।
2. जिनका खानपान अनुचित है या जिनकी संगत खराब है; वह कभी भी किसी का सहृदय नहीं हो सकता।
3. शास्त्रों का अध्ययन करना तथा उन बातों की, किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है; लेकिन किसी बकवासी से या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष, शास्त्र वचनों को कहना निषेध माना जाता है।
4. संशय, ”संदेह” को कहते हैं। यह मन और बुद्धि दोनों में ही रहता है। इन्द्रियों में ही इसका निवास है। यह कार्य को सफल नहीं होने देता और कर्तव्य में प्रवृति को रोकता हैं। इसके नाश का उपाय विवेक और विश्र्वास है।
5. मेहनत करने से दरिद्रता नहीं रहती। धर्म करने से पाप नहीं रहता। मौन रहने से कलह नहीं होती और जागते रहने से भय नहीं होता।
6. चिता से चिन्ता अधिक बलवती और भयानक मानी गई है; क्योंकि चिता तो मरे हुए को जलाती है परन्तु चिन्ता जीवित को हो जलाती रहती है। इसलिये चिंता-मुक्त होने का प्रयत्न करो।
7.हर अमावस्या को भोजन ग्रहण करने से पूर्व भोजन का कुछ भाग एवं जल अपने पितरो को जो अर्पित करता हैं। उसे अपने पितरों का आशीर्वाद जीवन में प्राप्त होता है।
8. ऐसी उलझन, जिसे स्वयं सुलझा न सकें, उत्पन्न नहीं करना चाहिये।
9. मनुष्य को वह काम करना चाहिये, जिसमें उसका हित हो, सबका हित हो, संसार का हित हो और परिणाम भी हितकारी हों।
10. “बन्धन” क्रिया से नहीं होता वरन आसक्ति और स्वार्थ से होता हैं।
11.साधक का उद्देश्य सीखने का नहीं बल्कि अनुभव करने का होना चाहिये। सीखे हुये ग्यान से वह विद्वान, वक्ता, लेखक तो हो सकता हैं, पर तत्वज्ञ, जीवनमुक्त, भगवत्प्रेमी नहीं हो सकता।
12. कोई बुरा करें तो बदले में उसका बुरा न चाहकर, यह समझो कि अपने ही दांतों से अपनी जीभ कट गई।
13. अपने भीतर दोष हों तभी कुसंग का असर पड़ता हैं; क्योकि आकर्षण सजातीय में होता हैं, विजातीय में नहीं।
14. प्रेमी की बात प्रेमी ही समझ सकता हैं, ग्यानी नहीं, फिर अग्यानी से तो आशा करना ही व्यर्थ हैं।
15. जिसका मन भगवान् में लगा रहता हैं, उसे सामान्य मनुष्य नहीं समझना चाहिये; क्योकि वह भगवान् के दरबार का सदस्य होता हैं।
16. दूसरों के प्रति बुरी-भावना रखने से, उसका बुरा होगा या नहीं, यह तो निश्चित नहीं हैं; पर यह निश्चित हैं कि उससेखुद का अंत:करण अवश्य मलीन हो जायेगा।
17. भलाई करने से सीमित भलाई होती हैं; पर बुराई छोड़ने से असीमित भलाई होती हैं।
18.मनुष्य का अंत:करण जितना मलिन होता हैं, उतना ही दोष, उसे दूसरों में दिखता हैं। रेडिओ तरंगों की तरह मलिन अंत:करण, मलिनता को ग्रहण करते हैं।
19. भोगी व्यक्ति तो कइयो का ॠणी होता हैं, परन्तु योगी किसी का भी ॠणी नहीं होता।
20.सत्संग, सदविचार, सद्शास्त्र और दुःख- ये विवेकी के लिए संसार से सम्बन्ध विच्छेद का कारण बनते हैं।
21. भोगों में जितनी आसक्ति होती हैं, बुद्धि में उतनी ही जड़ता आती हैं, इसी जड़ता के फलस्वरूप तात्विक बाते पढ़-सुनकर भी समझ में नहीं आती हैं|
22. भगवान “जगतगुरु” होते हुये भी, मनुष्य को कभी चेला नहीं बनाते, वरन “सखा” ही बनाते हैं।
23. जो हमसे कुछ भी चाहता हैं, वह हमारा गुरु कैसे हो सकता हैं?
24. तत्व ज्ञान अर्थात अज्ञानता का नाश, होता तो एक ही बार हैं; परन्तु जीवन पर्यंत साथ निभाता हैं।
25. बुद्धि के अनुसार मन और मन के अनुसार इन्द्रियाँ होने से उत्थान होता हैं; परन्तु इन्द्रियो के अनुसार मन और मन के अनुसार बुद्धि हो जाने से पतन होता हैं|
26. घर में रहने वाले सभी लोग, अपने को सेवक और दूसरों को सेव्य समझे तो पारिवारिक कलह उत्पन्न ही नहीं होगी।
27.भगवान् का भजन करते समय, संसार को याद नहीं करना चाहिये और संसार का काम करते समय भगवान् को भूलना नहीं चाहिये।
28. साधक को सत्य-तत्व का अनुयायी होना चाहिये, किसी व्यक्ति, सम्प्रदाय आदि का अनुयायी नहीं होना चाहिये।
29. ये सात चीजें संसार में कभी छुपती नहीं:-१- खैर,२- वैर, ३- खांसी, ४- खुशी, ५- रीत, ६- प्रीति, और ७- मधपान।
30.घटना... सदैव अपूर्णता युक्त होती हैं।कहानियाँ...सम्पूर्ण और अंत लिये होती हैं।उदाहरण...कामयाबी और उपलब्धि युक्त होता हैं।संयोग...आवश्यकता पर उपलब्धता युक्त होता हैं।
31. किसी भी साधना की पूर्णता होने पर जीने की इच्छा, मरने का भय, पाने का लालच और करने का राग-ये चारो मिट जाते हैं।
32. वर्ण, आश्रम आदि की जो व्यवस्था हैं, वह दुसरो की सेवा करने के लिए हैं, अभिमान करने के लिए नहीं हैं|
33. बाहर का प्रकाश तो सूर्य करता हैं; परन्तु भीतर का प्रकाश, संत-महात्मा करते हैं।
34. जिसमें, क्रूरता का अभाव, दया, धर्म, सत्य तथा पराक्रम जैसे सतगुण होते हैं, वे सोच-विचारकर चुपचाप, बहुत से क्लेशों को सहन कर लेते हैं।
35. जो स्वयं दोषयुक्त वर्ताव करता हैं, दुसरों की निंदा करता हैं तथा जो असमर्थ होकर क्रोध करता हैं; वह मनुष्य महामूर्ख हैं।
36. जो अपने आश्रितों को छोडकर उत्तम भोजन करता और अच्छे वस्त्र पहनता हैं, उस व्यक्ति को क्रूर कहा गया हैं|
37. सब तीर्थों में स्नान और सब प्राणियों के साथ कोमलता का बर्ताव--दोनों को एक समान माना गया हैं; किन्तु कोमलता के वर्ताव को प्राथमिकता प्रदान हैं।
38. जिसका बलवान से विरोध हो, जिसका कुछ लुट गया हो, जो काम-वासना से ग्रस्त हो और जो चोर हो, उन्हें रात्रि में नींद नहीं आती|
39. दो प्रकार के पुरुष, सूर्य मण्डल को भेदकर उर्ध्वगति को प्राप्त होते हैं:- १- योगयुक्त संयासी और २- संग्राम में लोहा लेते हुए मारा गया योध्दा।
40. बन्दूक से दागी गई गोली, संभव हैं किसी को मारे या न मारे, मगर राजनेताओं की कुव्यवस्था का प्रभाव सारे राष्ट्र का विनाश कर देती हैं।
41. दो ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते...१- अकर्मण्य गृहस्थ और २- प्रपंच में लगा हुआ सन्यासी।
42. दो प्रकार के व्यक्ति स्वर्ग से भी उपर स्थान पाते हैं...१- शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और २- निर्धन होने पर भी दान देनेवाला।
43. कपट पूर्वक व्यवहार करने वाले व्यक्ति का साथ “धर्म” उसी तरह छोड़ देता हैं, जैसे पंख निकल आने पर चिडियों के बच्चे घोंसला छोड़ देते हैं।
44. “देवता-वर्ग” चरवाहों की तरह डंडा लेकर पहरा नहीं देते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं; उसे उत्तम बुद्धि से युक्त कर देते हैं और जिसे पराजय देना होता हैं, उसकी बुद्धि का हरण कर लेते हैं। बुध्दी की कमी ही सब उपद्रव की जड बनती हैं।
45. देवता, पितर, बुध्दिमान, सन्यासी, और अतिथि- इन पांचो का सत्कार करने वाला यशश्वी होता हैं।
46. शरीर, संसार, समय और सामग्री तो अपने आप छूट रहीं हैं; यह देखतें हुये-इनसे जो “मैं” और “अपनापन” जुड़ गया हैं, उसे हटा लीजिये। सिर्फ यही सार की बात हैं।
47. कुछ लोग गुण के धनी होते हैं और कुछ लोग धन के। जो धन के धनी होते हुये भी गुण के कंगाल होते हैं, उनसे दूर रहना चाहिये।
48. व्यसनी, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी-ये दस प्रकार के लोग धर्म को नहीं जानते-समझते। इनसे दूर रहे।
49. जितने भी विकार हैं, वे सब नाशवान वस्तु को महत्व देने से ही पैदा होते हैं।
50. दोषों की स्वन्त्रत सत्ता नहीं हैं। गुणों के आचरण में कमी का पर्याय ही दोष का कारण हैं।
51. “ठगने” में दोष हैं, ठगे जाने में कोई दोष नहीं हैं।
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