शुभासित.-25


शुभासि.

01.
ख़ातिरदारी जैसी चीज़ में मिठास ज़रूर है, पर उसका ढकोसला करने में न तो मिठास है और न स्वाद। 
02.
"आलसी" सुखी नहीं हो सकता, "निद्रालु" ज्ञानी नहीं हो सकता, "ममत्व" रखने वाला वैराग्यवान नहीं हो सकता और "हिंसक" दयालु नहीं हो सकता। 
03.
कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं। जो साहस के साथ उनका सामना करते हैं, वे विजयी होते हैं।
04.
अन्‍याय और अत्‍याचार करने वाला, उतना दोषी नहीं माना जा सकता, जितना कि उसे सहन करने वाला।
05.
केवल कर्महीन ही ऐसे होते हैं, जो सदा भाग्‍य को कोसते हैं और उनके पास शिकायतों का अंबार होता है।
06.
जीवन ताश के खेल के समान है, आप को जो पत्‍ते मिलते हैं, वह नियति है; और  आप कैसे खेलते हैं, वह आपकी स्‍वेच्‍छा है।
07.
मित्र के मिलने पर पूर्ण सम्मान सहित आदर करो, मित्र के पीठ पीछे प्रशंसा करो और आवश्यकता के समय उसकी मदद अवश्य करो।
08.
आदर्श के दीपक को, पीछे रखने वाले, अपनी ही छाया के कारण, अपने पथ को, अंधकारमय बना लेते हैं।
09.
दूब की तरह छोटे बनकर रहो। जब घास-पात जल जाते हैं तब भी दूब जस की तस बनी रहती है।
10.
दीपक सोने का हो या मिट्टी का मूल्य दीपक का नहीं उसकी लौ का होता है जिसे कोई अँधेरा नहीं बुझा सकता।
11.
 ग्यान रहित “प्रेम” मोह में चला जाता हैं; और प्रेम रहित “ग्यान” शून्यता में चला जाता हैं। दोनों एक दूसरे की आवश्यकता हैं।
12.
संसार में आकर्षण और विकर्षण दोनों होते हैं, पर परमात्मा में आकर्षण ही-आकर्षण होता हैं।
13.
किसी भी कर्म के साथ स्वार्थ का सम्बन्ध जोड़ लेने से वह कर्म तुच्छ और बंधनकारक हो जाता हैं।
14.
किसी भी वर्गाकार सूखे कागज को आधा-आधा करके सात बार से अधिक बार नहीं मोड़ा जा सकता। आजमा के देख लीजिये।
15.
दूसरों के दोष देखने से न तो अपना भला होता हैं, न ही दूसरों का। यह क्रिया उद्देश्यहीनता लिए हुए हैं|
16.
सदा प्रिय बोलने वाले मनुष्य तो सहज में ही मिल सकते हैं किन्तु जो अप्रिय होता हुआ हितकारी हो, ऐसे वचन के वक्ता और श्रोता दोनों ही दुर्लभ हैं।
17.
भलाई करने से “सीमित” भलाई होती हैं परन्तु बुराई छोड़ देने से “असीमित” भलाई होती हैं|
18.
मनुष्य प्रारब्ध के अनुसार पाप-पुण्य नहीं करता; क्योकि कर्म का फल, कर्म नहीं होता, वरन भोग होता हैं।
19.
संतोष से काम, क्रोध, और मोह-तीनों नष्ट हो जाते हैं।
20.
मुक्ति बाहर के त्याग से नहीं होती; भीतर के वैराग्य से उत्पन्न होती हैं। 
21.
जो बृद्धि भविष्य में नाश का कारण बने, उसे अधिक महत्व नहीं देना चाहिये; किन्तु उस क्षय का आदर करना चाहिये, जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण बनती हैं।
22.
जिस सभा में बड़े-बुढ़े नहीं, वह सभा नहीं। जो धर्म की बात न कहें, वे बड़े-बुढ़े नहीं। जिसमें सत्य नहीं, वह धर्म नहीं और जो कपट से पूर्ण हो, वह सत्य नहीं।
23.
श्रृष्टि रचना में ब्रह्म से सर्वप्रथम आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु, वायु से तेज (अग्नि), तेज से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई।
24.
जब व्यक्ति के विवेक का स्थान आग्रह और हठ ले लेता हैं, तब व्यक्ति ऐसी भी वस्तुओं के पीछे पड़ जाता हैं; जिसका वास्तविक लाभ जीवन में कुछ नहीं हैं।
25.
जीवन में त्याग की बहुत आवश्यकता हैं। शरीर का निर्माण ही ऐसा किया गया हैं जिसमें संग्रह और त्याग का क्रम निरतंर चलता रहे। हम श्वास लेते ही नहीं, अपितु श्वास का त्याग भी करते हैं। जल, भोजन आदि पदार्थो की यही परिणति हैं।

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