आत्मचिंतन के क्षण .
अपने कार्यों में भूलें हो जाना, असफलताएँ मिलना, कठिनाइयाँ आना एक स्वाभाविक बात है। कई लोग इसके बारे में सोच-विचार में इतने खो जाते हैं कि सारा शक्ति प्रवाह उसी केन्द्र पर लग जाता है। अन्य कार्यों का ध्यान ही नहीं रहता। अपनी भूलों, गलतियों के पश्चाताप-ग्लानि में ही सारी शक्ति नष्ट हो जाती है। इससे दुहरी हानि होती है। काम की प्रगति रूक जाती है और चिन्ता सुरसा की तरह घेर लेती है।
आज वक्ता और लेखक स्वयं वैसा आचरण नहीं करते जैसा कि दूसरों से कराना चाहते हैं, जबकि चारित्रिक शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उपदेशक दूसरों के सामने अपना आदर्श उपस्थित करें। यदि सद्भावनाओं की संपत्ति को संसार में बढ़ाया जाना उचित है और आवश्यक है, तो उसका प्रथम प्रयोग अपने आप पर से ही प्रारंभ करना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति स्वयमेव ही अपने आपका एक चलता-फिरता, बोलता विज्ञापन है। यह भी सच है कि विज्ञापन जैसा होगा, उसका प्रभाव भी वैसा ही पड़ेगा। बातचीत, वेशभूषा, रहन-सहन से मनुष्य का व्यक्तित्व प्रदर्शित होता है। जिन बुरी आदतों से अपना गलत विज्ञापन हो, अपना फूहड़पन जाहिर हो, उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करना आवश्यक है।
विचारों का परिष्कार एवं प्रसार करके आप मनुष्य से महामनुष्य, दिव्य मनुष्य और यहाँ तक ईश्वरत्त्व तक प्राप्त कर सकते हैं। इस उपलब्धि में आड़े आने के लिए कोई अवरोध संसार में नहीं। यदि कोई अवरोध हो सकता है, तो वह स्वयं का आलस्य, प्रमाद, असंमय अथवा आत्म अवज्ञा का भाव। इस अनंत शक्ति का द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है और यह परमार्थ का पुण्य पथ सबके लिए प्रशस्त है। अब कोई उस पर चले या न चले यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है।
(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)
आज वक्ता और लेखक स्वयं वैसा आचरण नहीं करते जैसा कि दूसरों से कराना चाहते हैं, जबकि चारित्रिक शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उपदेशक दूसरों के सामने अपना आदर्श उपस्थित करें। यदि सद्भावनाओं की संपत्ति को संसार में बढ़ाया जाना उचित है और आवश्यक है, तो उसका प्रथम प्रयोग अपने आप पर से ही प्रारंभ करना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति स्वयमेव ही अपने आपका एक चलता-फिरता, बोलता विज्ञापन है। यह भी सच है कि विज्ञापन जैसा होगा, उसका प्रभाव भी वैसा ही पड़ेगा। बातचीत, वेशभूषा, रहन-सहन से मनुष्य का व्यक्तित्व प्रदर्शित होता है। जिन बुरी आदतों से अपना गलत विज्ञापन हो, अपना फूहड़पन जाहिर हो, उन्हें छोड़ने का प्रयत्न करना आवश्यक है।
विचारों का परिष्कार एवं प्रसार करके आप मनुष्य से महामनुष्य, दिव्य मनुष्य और यहाँ तक ईश्वरत्त्व तक प्राप्त कर सकते हैं। इस उपलब्धि में आड़े आने के लिए कोई अवरोध संसार में नहीं। यदि कोई अवरोध हो सकता है, तो वह स्वयं का आलस्य, प्रमाद, असंमय अथवा आत्म अवज्ञा का भाव। इस अनंत शक्ति का द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है और यह परमार्थ का पुण्य पथ सबके लिए प्रशस्त है। अब कोई उस पर चले या न चले यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है।
(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें