(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
उद्धव जी श्रीकृष्ण के चरणारविन्द-मकरन्द सुधा से सराबोर होकर दो घड़ी तक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोग से उसमें डूबकर वे आनन्द-मग्न हो गये। उनके सारे शरीर में रोमांच हो आया तथा मुँदे हुए नेत्रों से प्रेम के आँसुओं की धारा बहने लगी। उद्धव जी को इस प्रकार प्रेमप्रवाह में डूबे हुए देखकर विदुर जी ने उन्हें कृतकृत्य माना। कुछ समय बाद जब उद्धव जी भगवान् के प्रेमधाम से उतरकर पुनः धीरे-धीरे संसार में आये, तब अपने नेत्रों को पोंछकर भगवल्लीलाओं का स्मरण हो आने से विस्मित हो विदुर जी से इस प्रकार कहने लगे। उद्धव जी बोले- विदुर जी! श्रीकृष्णरूप सूर्य के छिप जाने से हमारे घरों को कालरूप अजगर ने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ।
ओह! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्ण के साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना-जिस तरह अमृतमय चन्द्रमा के समुद्र में रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान सकी थीं। यादव लोग मन के भाव को ताड़ने वाले, बड़े समझदार और भगवान् के साथ एक ही स्थान में रहकर क्रीड़ा करने वाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्व के आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्ण को एक श्रेष्ठ यादव ही समझा। किंतु भगवान् की माया से मोहित इन यादवों और इनसे व्यर्थ का वैर ठानने वाले शिशुपाल आदि के अवहेलना और निन्दासूचक वाक्यों से भगवत्प्राण महानुभावों की बुद्धि भ्रम में नहीं पड़ती थी। जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगों को भी इतने दिनों तक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसा को तृप्त किये बिना ही वे भगवान् श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रह को छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रों को ही छीन लिया है।
भगवान् ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखाने के लिये मानव लीलाओं के योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे। सौभाग्य और सुन्दरता की पराकष्ठा थी उस रूप में। उससे आभूषण (अंगों में गहने) भी विभूषित हो जाते। धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब भगवान् के उस नयनभिराम रूप पर लोगों की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकी ने यही माना था कि मानव-सृष्टि की रचना में विधाता की जितनी चतुराई है, सब इसी रूप में पूरी हो गयी है।
साभार
krishnakosh.org
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