शुभासित-52


शुभासि
 1.एक समर्थ-गुरु ही अपने शिष्य को सक्षम बना सकता हैं; जैसे “गुरु” रामदासजी और उनका “शिष्य” शिवाजी महाराज।
2. “शील” गुण तभी कल्याणकारी हैं, जब वह “सत्य” से युक्त हो। जहाँ मिथ्या के साथ “शील” हैं, वहां ठगे जाने की सम्भावना उत्पन्न हो जाती हैं। 
3. हमें सुख का भोगी नहीं; सुख का दाता बनना चाहिये। इससे आत्म-कल्याण का मार्ग खुलता हैं। 
4. व्यक्ति को सत्य का अनुगमन करना चाहिये, उसे किसी व्यक्ति विशेष या सम्प्रदाय का अनुयायी नहीं होना चाहिये।
5. आपस में मतभेद होना और अपने मत के अनुसार कर्म करके जीवन निर्माण करना, इसमें कोई दोष नहीं हैं; परन्तु दुसरो का मत बुरा लगना, उसके मत का खंडन करना एवं उसके मत से घृणा करना ही दोष के अंतर्गत आता हैं

6 .सुख और दुःख आने का कारण कर्म पर आधारित हैं; जो भोग से ही समाप्त होता हैं। उसके मार्जन का अन्य उपाय नहीं हैं।
7. उपासना से परमात्मा की प्राप्ति हो सकती हैं, जो सभी वर्णों और आश्रमों के लिए सुलभ हैं।
8. “जिंदगी” यथार्थ का ठोस दस्‍तावेज है। इसमें अफसोस के लिए अतीत की यादें तो हो सकती हैं, लेकिन यथार्थ की गति को अतीत से कोई अंतर नहीं पड़ता। जो होता है, जीवन उसके सहारे बढ़ने का नाम है। ऐसा हुआ होता, तो वैसा हो जाता, जैसी चीजें जिंदगी पर बहुत कम असर डालती हैं।
9. घड़े में एक बार पानी भरकर यदि फिर उसे कहीं यों ही रखा रहने दो तो कुछ दिन में पानी सूख जायेगा; किन्तु यदि पानी के भीतर ही वह घड़ा रखा रहे तो पानी कभी न सूखेगा। यदि एक बार सत्य मार्ग का अवलम्बन करके फिर उस ओर से उदासीन हो जाओ तो परिश्रम व्यर्थ चला जाएगा; किन्तु यदि उस पथ पर सदैव आरुढ़ रहो तो जीवन उसी तत्व से ओत-प्रोत हो जायेगा।
10. मानव योनी को क्रतुमय अर्थात कर्ममय माना गया हैं| इस लोक में जैसा भी कर्म किया जाता हैं, उसका फल जीवन सहित मृत्यु के पश्चात भी प्राप्त होता हैं|
11. ‘दुष्ट-पुरुष’ बल से उद्योग, बुद्धि के प्रयोग तथा पुरुषार्थ से धन भले ही प्राप कर ले; परंतु कुलीनता का आचरण और सदाचार प्राप्त करना सम्भव नहीं हैं।

12. फैसला लेते समय डरिए मत, याद रखिए गलत निर्णय भी अनिर्णय से लाख गुना बेहतर है। इसमें कुछ न करने के अपराधबोध से हम पूरी जिंदगी आजाद रहते हैं।
13. जिंदगी खूबसूरत नज़ारों से भरी, लेकिन खतरनाक मोड़ वाली घाटी है। इसमें अनेक खतरे हैं, तेज़ मोड़ हैं, कहीं-कहीं यह घुमावदार भी हैं; लेकिन अंतत: इस सफर में ही आनंद है। इसलिये कैसा भी दौर आएं, उसका सामना कीजिए। पीछे नहीं हटना, डरना नहीं। याद रखना “यह भी गुजर जाएगा”।

14. “रिस्ते” जिनसे जिन्दगी की साँस घुटने लगें, उनमें अटके रहना व्यर्थ हैं। कोई भी परम्परा का बंधन, जीवन से बड़ा नहीं होता। जिन्दगी पर किसी को भी भारी पड़ने मत दीजिये।
15. जिन्दगी की कला के सारे सूत्र केवल वर्तमान में सिमटे हैं। अगर हम आज को, सघन प्रसन्नता से जीना सीख सकें, तो अतीत और भविष्य दोनोँ सुखद हो जायेंगे।
16. अतीत की गलियों में बहुत अधिक भटकने के कारण हम वर्तमान से दूर होते जा रहे हैं। वर्तमान से दूर होने का अर्थ अतीत की घुटन और भविष्‍य से भटकाव है। अपने आपको वर्तमान मे केन्द्रित रखिये।
17. अगर आपके भीतर सत्‍यबोध है, तो केवल उस आवाज पर भरोसा करिये जो अंतर्मन से आए। दुनिया के नजरिए की चिंता मत करिए, बस अपने इरादे, चुनाव पर दृढ़ रहिए।
18. हमने सुख-दुख, जीवन के अनुभवों को विशेष मान लिया, जबकि यह जीवन के सामान्‍य राग हैं। इनमें कुछ भी विशेष नहीं। हमें इनका साक्षी बनकर जीवन जीना है, इनके चौकीदार बनकर नही।
19. सबसे बड़ी बीमारी, उदासी का कारण खुद को गंभीरता से लेना हैं। गंभीर-चुनौती भरे काम करने का अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि हमारा दिल एक इंच मुस्कान के लिए तरसता रह जाये।
20. सोशल मिडिया में मित्रता का दायरा विस्तार में कुछ गलत नहीं, लेकिन यह जिस कीमत पर हो रहा हैं, उस पर ध्यान देना होगा। हम इतने अधिक सोशल हो गए हैं कि समाज, परिवार सबके लिए “अ”सोशल होते जा रहे हैं, यह गलत हैं।

21. नींव=बुनियाद, जो सुंदर तो नहीं किन्तु मजबूत और पथरों की होती हैं। “बुनियाद” मजबूत हैं तो मकान भी जिंदगी अच्छी तरह जी लेगा और कमजोर हैं, तो पत्थर के भी मकान ढह जाएंगे। यह बात मानव जीवन से लेकर समाज और राष्ट्र पर भी लागू होती हैं।
22. मनुष्य के दोनों हाथ एक से हैं; किन्तु उनकी कार्य और शक्ति एक सी नहीं हैं, फिर भी उनमे सामंजस्य हैं। ऐसे ही सामंजस्य की अपेक्षा प्रकृति अपने मानव पुत्रों से रखती हैं।

23. संकट से जूझने पर आदमी, साहसी और समझदार हो जाता हैं।
24. “बुराई”, मनुष्य की आत्मा का बाह्य उपकरण है; वह इच्छा-शक्ति-द्वारा छिलके के समान उतार कर फेंका जा सकता है।
25. कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं। जो साहस के साथ उनका सामना करते हैं, वे विजयी होते हैं और समझदार बनते हैं।
26.
भले मुंह से न कहें पर अंदर से,
खोये आप भी हो, खोये हम भी हैं,
लाली आंखों की बताती हैं,
रोये आप भी ही, रोये हम भी हैं।

(पंजाबी कविता का हिंदी अनुवाद)

27. अजीब विडंबना हैं, विद्वान-विद्वान को देखकर, साधू-साधू को देखकर और कवि-कवि को देखकर जलता हैं, जबकि जुआरी-जुआरी को देखकर, शराबी-शराबी को देखकर और चोर-चोर को देखकर हर्षित होते हैं, और सहयोग करते हैं। बुराई से सब घृणा करते हैं इसलिए उनमें परस्पर प्रेम होता हैं. भलाई की सारा संसार प्रशंसा करता है, इसलिए भलों में विरोध होता हैं। बुराई को नहीं किन्तु उनके आपसी प्रेम और सहयोगी आचरण की सीख अपनाने के लिए भले लोगो को यह बुराई की चेतावनी हैं।
28. लक्ष्य प्राप्ति पर संतोष के साथ प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती हैं। 
29. विषमतायें चाहे जो भी हो, उससे उपजी हताशा के भंवर से जितनी जल्दी हो सकें निकल कर, अपने कर्मपथ पर अग्रसर हो जाना ही श्रेयष्कर होता हैं।
30. हर आरम्भ का अंत होता हैं, क्योकि अंत ही नव-सृजन की जननी कहीं गई हैं।
31. अपने हितकारी या शुभचिंतक की खोज बाहर करने में समय खराब करना हैं| इन्द्रिय निग्रह कर, स्वयं अपना हित, शुभ और कल्याण किया जा सकता हैं|
32. गुबरैला कीड़ा गोबर में ही रहना पसन्द करता है। कोई उसे अच्छे स्थान पर बिठा दे, तो भी वह उड़कर वहीं पहुँचेगा! दुष्ट मनुष्यों की सत्संग में रुचि नहीं होती, वे तो पाप कर्मों में ही खुश रहते हैं।

33. “स्मृति” आकाश से बड़ी हैं क्योकि “आकाश” में तो शब्द आता हैं और चला भी जाता हैं किन्तु स्मृति में आया शब्द स्मृति-पटल में स्थिर हो जाता हैं|
34. प्रकृति, समय और धैर्य ये तीन हर दर्द की दवा हैं।
35. सुख की यह संतुष्टि ही जीव को भ्रमित करती है। बार-बार संतुष्ट होना और फिर असंतुष्टि में घिरना एक ऐसे सतत् प्रवाह की तरह जीवन से जुड़ जाते हैं कि व्यक्ति को दुख में भी सुख का आभास होने लगता है। सुख में ही छिपकर बैठा होता है दुख। एक सिक्के के दो पहलू हैं ये। यह मोह या मूर्च्छा की स्थिति ही मनुष्य को आनंद से दूर ले जाती है।
36. भला बनने के लिये अधिक कुछ करने की आवश्यकता नहीं, केवल बुराई छोड़ दीजिये।
37. जो मनन नहीं करता, उसे कुछ भी समझ में नहीं आता| मनन करने से गूढ़ से गूढ़ रहस्य भी समझ में आ जाते हैं|
38. सुख, वैभव, ऐश्वर्य और कीर्ति सब लोग चाहते हैं, परन्तु तन-मन से परिश्रम किये बिना स्थायी रूप से इनमें से एक भी वस्तु प्राप्त नहीं हो सकती। आलस्य सुख का शत्रु और उद्यम आनन्द का सहचर है, जो इस तथ्य को भली भाँति जानकर सही दिशा में क्रियाशील होता हैं, उसे ही इनमे से कुछ मिलता हैं।
39. शिवजी को “विरुपाक्ष” भी कहा जाता हैं। यानी जिसका कोई आकार न हो, पर सब देखता हैं। वह जो देखता हैं और जो देखा जाता हैं, दोनों ही देखने की प्रक्रियां से प्रभावित हो जाते हैं। “तपो योगा गम्या”, जिनको तप और योग से जाना जा सकता हैं।
40. आत्मोत्थान की सिद्धि, कार्य क्षमता बढ़ाने की इच्छा, लोकप्रिय बनने की भावना तथा सफलता और मार्गदर्शन की महत्वाकांक्षा- यह सभी मनुष्य के चरित्र निर्माण में प्रभाव डालती हैं।
41. कैसी भी दुखदायक और विषम परिस्थिति क्यों न आ जाय, उत्साह, विश्वास की दृढ़ता और कर्मशीलता सदैव ही सहायक सिद्ध होती है।
42. किसी भी स्त्री का अपमान करना पाप है। ध्यान रखें कभी भी गर्भवती या मासिक धर्म के दौरान किसी महिला को बुरा बोलना, अपमान करना महापाप है। ये पाप करने वाले व्यक्ति को कभी भी सुख नहीं मिल पाता है।
43. दूसरों का धन पाने की इच्छा करना भी शास्त्रों के अनुसार पाप है।
44. किसी सीधे-साधे इंसान को या जीव को कष्ट देना, नुकसान पहुंचाना, उनके लिए बाधाएं पैदा करने की योजना बनाना भी पाप है।

45. अच्छा-बुरा, सही-गलत जानने और समझने के बाद भी गलत काम करना पाप है।

46. पराए स्त्री-पुरुष पर बुरी नजर रखना या उन्हें पाने की कोशिश करना या उनके बारे में गलत सोचना भी पाप है।
47. दूसरों के मान-सम्मान को नुकसान पहुंचने की नीयत से झूठ बोलना, छल-कपट करना, षड़यंत्र रचना पाप है।
48. मूर्खता और बुद्धिमता में मात्र एक ही अंतर होता हैं। बुद्धिमता की सीमा होती हैं और मूर्खता की कोई सीमा नहीं होती।
49. छोटे बच्चों, महिलाओं या किसी भी कमजोर व्यक्ति या जीव के खिलाफ हिंसा करना, असामाजिक कर्म करना भी पाप है।
50. किसी मंदिर की चीजें चुराना या गलत तरीके से दूसरों की संपत्ति हथियाना भी पाप है।

51. गुरु, माता-पिता, पत्नी या पूर्वजों का अपमान करने वाले को शिवजी कभी क्षमा नहीं करते हैं।
52. नशा करना, दान की हुई चीजें या धन वापस लेना महापाप है। किसी भी प्रकार के अधर्म में भागीदार बनना पाप है।

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