अंतर ज्योति.
जब उसकी हालत बहुत खराब होने लगी तो एक दिन उसके एक मित्र ने उसे शहर से कुछ दूर आश्रम में रहने वाले साधु के पास जाने की सलाह दी। कहा- "वह पहुंचा हुआ साधु है। कैसा भी दुख लेकर जाओ, दूर कर देता है।"
सेठ साधु के पास गया। अपनी सारी मुसीबत सुनाकर बोला- "स्वामीजी, मैं जिंदगी से बेजार हो गया हूँ। मुझे बचाइए।"
साधु ने कहा - "घबराओ नहीं। तुम्हारी सारी अशांति दूर हो जाएगी। प्रभु के चरणों में लौ लगाओ।"
उसने तब ध्यान करने की सलाह दी और उसकी विधि भी समझा दी, लेकिन सेठ का मन उसमें नहीं रमा। वह ज्योंही जप का ध्यान करने बैठता, उसका मन कुरंग-चौकड़ी भरने लगता। इस तरह कई दिन बीत गए। उसने साधु को अपनी परेशानी बताई, पर साधु ने कुछ नहीं कहा। चुप रह गए।
एक दिन सेठ साधु के साथ आश्रम में घूम रहा था कि उसके पैर में एक कांटा चुभ गया। सेठ वहीं बैठ गया और पैर पकड़कर चिल्लाने लगा - "स्वामीजी, मैं क्या करूं? बड़ा दर्द हो रहा है।"
साधु ने कहा - "चिल्लाते क्यों हो? कांटे को निकाल दो।"
सेठ ने जी कड़ा करके कांटे को निकाल दिया। उसे चैन पड़ गया।
साधु ने तब गंभीर होकर कहा - "सेठ तुम्हारे पैर में जरा-सा कांटा चुभा कि तुम बेहाल हो गए, लेकिन यह तो सोचो कि तुम्हारे भीतर कितने बड़े-बड़े कांटे चुभे हुए हैं। लोभ के, मोह के, क्रोध के, ईर्ष्या के, देश के और न जाने किस-किस के। जब तक तुम उन्हें नहीं उखाड़ोगे, तुम्हें शांति कैसे मिलेगी?"
साधु के इन शब्दों ने सेठ के अंतर में ज्योति जला दी। उसके अज्ञान का अंधकार दूर हो गया। ज्ञान का प्रकाश फैल गया। उसे शांति का रास्ता मिल गया।
by AWGP
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