संत की परीक्षा.
सन्त पुरन्दर की निर्लोभिता एवं तपश्चर्या की चर्चा विजय नगर के महाराज कृष्णदेवराय ने बहुत सुनी थी- पर, उन्हें सहसा विश्वास नहीं होता था कि क्या ऐसा भी सम्भव है। क्या व्यक्ति स्वयं विद्वान होते हुए तथा साधनों के सहज उपलब्ध रहते हुए भी उन्हें ठुकरा दे और लोकसेवी का जीवन जिए? गृहस्थ जीवन और लोक सेवा ऐसी गरीबी में कैसे साथ- साथ निभ सकते हैं?
''अपने मन्त्री व्यासराय की सहायता से उन्होंने सन्त की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने सन्त को परीक्षत: कहलवाया कि वे अपनी भिक्षा राजभवन से ले लिया करें। भिक्षा में दिये जाने वाले चावलों में उन्होंने रत्न- हीरे मिला दिये। नित्य उन्हें इसी प्रकार प्रसन्नभाव से आते देख उन्हें शंका हुई, अपने मन्त्री से बोले- ''आइये! जिन सन्त की निस्पृहता की बड़ी प्रशंसा सुनी थी, उसे उनके घर चलकर परखे। '' वहाँ पहुँचे तो बड़ा विचित्र दृश्य देखा। सादगी भरा जीवन जी रहे सन्त व उनकी पत्नी में परस्पर सम्वाद चल रहा था। पत्नी हीरे आदि बीनकर अलग रखती जाती थी व कहती जा रही थी-'' आजकल आप न जाने कहाँ से भिक्षा लाते हैं। इन चावलों में तो कंकड़- पत्थर भरे पड़े हैं। इतना कहकर छद्मवेशधारी राजा मन्त्री के सामने ही उसे वे कचरे के ढेर में फेंक आयीं।
राजा के आश्चर्य व्यक्त करने पर वे बोलीं- 'पहले हम भी यही सोचते थे कि ये हीरे- मोती हैं। पर जब से भक्ति का पथ अपनाया, लोक सेवा की ओर कदम बढ़ाया तो निर्वाह योग्य ब्राह्मणोचित आजीविका से ही काम चल जाता है। अब इस बाह्य सम्पदा का मूल्य हमारे लिए तो हीरो के नहीं, कंकड़- पत्थर के बराबर ही है।''
स्वतन्त्र विवेक बुद्धि ही है जो व्यक्ति को दो मार्गो- आत्मिक प्रगति तथा भौतिक समृद्धि के चयन, अनुपयोग, दुरुपयोग, सदुपयोग के माध्यम से स्वर्ग व नरक के दृश्य इसी जीवन में दिखाती है व उसका भविष्य निर्धारित करती है।
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