श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

सबसे पहले उन्होंने अपनी छाया से तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह- यों पाँच प्रकार की अविद्या उत्पन की। ब्रह्मा जी को अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया। तब जिससे भूख-प्यास की उत्पत्ति होती है-ऐसे रात्रिरूप उस शरीर को उसी से उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसों ने ग्रहण कर लिया। उस समय भूख-प्यास से अभिभूत होकर वे ब्रह्मा जी को खाने को दौड़ पड़े और कहने लगे- ‘इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’, क्योंकि वे भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे। ब्रह्मा जी ने घबराकर उनसे कहा- ‘अरे यक्ष-राक्षसों! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो!’ (उनमें से जिन्होंने कहा ‘खा जाओ’, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा ‘रक्षा मत करो’, वे राक्षस कहलाये)।

फिर ब्रह्मा जी ने सात्त्विक प्रभा से देदीप्यमान होकर मुख्य-मुख्य देवताओं की रचना की। उन्होंने क्रीड़ा करते हुए, ब्रह्मा जी के त्यागने पर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया। इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने जघनदेश से कामासक्त असुरों को उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होने के कारण उत्पन्न होते ही मैथुन के लिये ब्रह्मा जी की ओर चले। यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु फिर उन निर्लज्ज असुरों को अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोर से भागे। तब उन्होंने भक्तों पर कृपा करने के लिये उनकी भावना के अनुसार दर्शन देने वाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरि के पास जाकर कहा- ‘परमात्मन्! मेरी रक्षा कीजिये; मैंने तो आपकी ही आज्ञा से प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप में प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है। नाथ! एकमात्र आप ही दुःखी जीवों का दुःख दूर करने वाले हैं और जो आपकी चरणशरण में नहीं आते, उन्हें दुःख देने वाले भी एकमात्र आप ही हैं’।

प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सबके हृदय की जानने वाले हैं। उन्होंने ब्रह्मा जी की आतुरता देखकर कहा- ‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीर को त्याग दो।’ भगवान् के यों कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया। (ब्रह्मा जी का छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्री-संध्यादेवी के रूप में परिणत हो गया।) उसके चरणकमलों के पायजेब झंकृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनी की लड़ों से सुशोभित सजीली साड़ी से ढकी हुई थी। उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक-दूसरे से सटे हुए थे कि उनके बीच में कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरों की ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टि से देख रही थी। वह नीली-नीली अलकावली से सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जा के मारे अपने अंचल में ही सिमटी जाती थी।

विदुर जी! उस सुन्दरी को देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये। ‘अहो! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम कामपीड़ितों के बीच में यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है’।

इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्यों ने स्त्रीरूपिणी सन्ध्या के विषय में तरह-तरह के तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा- ‘सुन्दरि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? भामिनी! यहाँ तुम्हारे आने का क्या प्रयोजन है? तुम अपने अनूप रूप का यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागों को क्यों तरसा रही हो। अबले! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ-यह बड़े सौभाग्य की बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकों के मन को मथे डालती हो।

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