(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: एकविंश
अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद
प्रभो! इस समय आपने हमें अपनी तुलसी मालामण्डित, माया से परिच्छिन्न-सी दिखायी देने वाली सगुणमूर्ति से दर्शन दिया है। आप हम भक्तों को जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होने के कारण यद्यपि आपकी पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाम में हमारा शुभ करने के लिये वे हमें प्राप्त हों-नाथ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलाने वाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करने वाले पर भी समस्त अभिलाषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। मैत्रेय जी कहते हैं- भगवान् की भौंहें प्रणय मुस्कान भरी चितवन से चंचल हो रही थीं, वे गरुड़ जी के कंधे पर विराजमान थे। जब कर्दम जी ने इस प्रकार निष्कपट भाव से उनकी स्तुति की, तब वे उनसे अमृतमयी वाणी से कहते लगे।
श्रीभगवान् ने कहा- जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदय के उस भाव को जानकर मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी है। प्रजापते! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिसका चित्त निरन्तर एकान्तरूप से मुझमें ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओं के द्वारा की हुई उपासना का तो और भी अधिक फल होता है। प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्त में रहकर सात समुद्र वाली सारी पृथ्वी का शासन करते हैं। विप्रवर! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपा के साथ तुमसे मिलने के लिये परसों यहाँ आयेंगे। उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणों से सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाह के योग्य है। प्रजापते! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हीं को वह कन्या अर्पण करेंगे। ब्रह्मन्! गत अनेकों वर्षों से तुम्हारा चित्त जैसी भार्या के लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी।
साभार krishnakosh.org
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