श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद


श्रीब्रह्मा जी कहते हैं- देवताओं! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्प से डसे हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्तःकरण को प्रकाशित करने वाली भगवान् की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तृप्त नहीं हुआ। भगवान् की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरों वाली थी; किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करने पर भी वे यह न जान सके कि भगवान् क्या करना चाहते हैं। भगवान् की इस अद्भुत उदारता को देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अंग-अंग पुलकित हो गया। फिर योगमाया के प्रभाव से अपने परम ऐश्वर्य का प्रभाव प्रकट करने वाले प्रभु से वे हाथ जोड़कर कहने लगे। मुनियों ने कहा- स्वप्रकाश भगवन्! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या अभिप्राय है-यह हम नहीं जान सके हैं। प्रभो! आप ब्राह्मणों के परम हितकारी हैं; इससे लोक शिक्षा के लिये आप भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुतः तो ब्राह्मण तथा देवताओं के भी देवता ब्रह्मादि के भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं। सनातन धर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारों द्वारा ही समय-समय पर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्म के परमगुह्य रहस्य हैं-यह शास्त्रों का मत है। आपकी कृपा से निवृत्तिपरायण योगीजन सहज में ही मृत्युरूप संसार सागर से पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आप पर क्या कृपा कर सकता है। भगवन्! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरणरज सर्वदा अपने मस्तक पर धारण करते हैं, वे लक्ष्मी जी निरन्तर आपकी सेवा में लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणों पर जो नूतन तुलसी की मालाएँ अर्पण करते हैं, उन पर गुंजार करते हुए भौरों के समान वे भी आपके पादपद्मों को ही अपना निवास स्थान बनाना चाहती हैं। किन्तु अपने पवित्र चरित्रों से निरन्तर सेवा में तत्पर रहने वाली उन लक्ष्मी जी का भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तों से ही विशेष प्रेम रखते हैं। आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गुणों के आश्रय हैं; क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणों के चरणों में लगने से पवित्र हुई मार्ग की धूलि और श्रीवत्स का चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं? क्या इनसे आपकी शोभा बढ़ सकती है? भगवन्! आप साक्षात् धर्म स्वरूप हैं। आप सत्यादि तीनों युगों में प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहते हैं तथा ब्राह्मण और देवताओं के लिये तप, शौच और दया-अपने इन तीन चरणों से इस चराचर जगत् की रक्षा करते हैं। अब आप अपनी शुद्धसत्त्वमयी वरदायिनी मूर्ति से हमारे धर्मविरोधी रजोगुण-तमोगुण को दूर कर दीजिये देव! यह ब्राह्मणकुल आपके द्वारा अवश्य रक्षणीय है। यदि साक्षात् धर्मरूप होकर भी आप सुमधुर वाणी और पूजनादि के द्वारा इस उत्तम कुल की रक्षा न करें तो आपका निश्चित किया हुआ कल्याण मार्ग ही नष्ट हो जाये; क्योंकि लोक तो श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण को ही प्रमाणरूप से ग्रहण करता है। प्रभो! आप सत्त्वगुण की खान हैं और सभी जीवों का कल्याण करने के लिये उत्सुक हैं। इसी से आप अपनी शक्तिरूप राजा आदि के द्वारा धर्म के शत्रुओं का संहार करते हैं; क्योंकि वेदमार्ग का उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है। आप त्रिलोकीनाथ और जगत्प्रतिपालक होकर भी ब्राह्मणों के प्रति इतने नम्र रहते हैं, इससे आपके तेज की कोई हानि नहीं होती; यह तो आपकी लीलामात्र है।
साभार krishnakosh.org

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