आत्मचिंतन के क्षण.


आत्मचिंतन के क्षण.

ये है तलवार कुछ भी काट दे, इतनी है धार- शत्रु का विनाश करने में सक्षम, दूसरी ओर है- ये ढाल किसी भी प्रहार को सहपाने में सक्षम, शत्रु से रक्षा की ढाल, रक्षा की दीवार है। इन दोनों के कार्य भिन्न हैं, इन दोनों का उद्देश्य भिन्न है, लेकिन इन दोनों का मूल एक ही हैं। दोनों बने हैं, लोहे से। लोहे के खण्ड से बनी है-ये तलवार, लोहे के खण्ड से बनी है-ये ढाल। तलवार का मंतव्य है-प्रहार, और ढाल का मंतव्य है-बचाव। अन्तर कितना है? अन्तर है-केवल सोच का। ये सोच ही है जो सच बनकर सामने आती है, संसाधन कभी भी व्यक्ति को सुखी नहीं करते, किन्तु सोच व्यक्ति का व्यक्तित्व बनाती है। या तो आप इन संसाधनों का प्रयोग नाश करने के लिये करो, या इन संसाधनों का प्रयोग, उद्धार करने के करो। चयन आपका है।

इस वृक्ष को देख रहे हैं-आप कितना अडिग, दिनभर धूप में खड़ा रहता है, धूप में बैठने वाले को छाया देने के लिए। अब जैसे-जैसे समय बीतता है, वैसे-वैसे इस वृक्ष की टहनियों पर पत्तों के साथ-साथ फूल खिलने लगते हैं। ये फूल बाद में फल बन जाते हैं। अब समय के साथ-साथ जब ऋतु बदलती है, तो ये फल तोड़े जाते हैं। कुछ फल गिर जाते हैं। पतझर आने पर इस पेड़ के पत्ते तक इसका साथ छोड़ देते हैं। किन्तु ये वृक्ष अडिग रहता है। नये फलों के आने का इंतजार करता रहता है। न फलों के आने का उत्सव मनाता है, न पतझड़ के आने का शोक और हम इस वृक्ष की पूजा करते हैं। क्योंकि ये वृक्ष अपने स्थान पर अडिग रहता है। इसी प्रकार सुख और दुःख हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं। सुख और दुःख हमेशा रहेंगे, इसलिये न कभी सुख के आने पर अभिमान से भर जाएँ, न कभी दुःख के आने पर शोक मनाएँ। क्योंकि सुख और दुःख जीवनरूपी वृक्ष के फल हैं, ये आते रहेंगे-जाते रहेंगे लेकिन सुख और दुःख में व्यक्ति अडिग होगा, वही पूजनीय होगा।

हीरा। हमारे लिए अत्यंत प्रिय, अत्यंत चमकदार, हीरे की चमक तो सभी जानते हैं। किन्तु ये चमक आती कैसे है? किसी दूसरे हीरे से इस हीरे को तराशा गया है। तब जाके ये संभव हो पाया है। कितनी अच्छी बात है। स्वयं से स्वयं को तराशो और स्वयं को ही और बेहतर बना दो। अब सोचिये क्या कीचड़ से कीचड़ को साफ किया जा सकता है? नहीं। उसके लिये आपको आवश्यकता होगी शुद्ध-निर्मल जल की। इसी प्रकार अच्छाई से अच्छाई को, और भी सुन्दर बनाया जा सकता है, किन्तु बुराई से बुराई को सुधारा नहीं जा सकता। सर्वप्रथम अपने मन को पावन करें, अपने मन को शुद्ध करें और फिर देखें इस दृष्टि से संसार को। ये संसार अपने आप शुद्ध लगने लगेगा। यदि किसी में आप विकार देखो तो शुभ कर्म करके उसका विकार दूर करो, उसकी सहायता करो। ना कि उसके विकार देख के स्वयं के मन में विकार लाओ। क्योंकि आप हीरे हो, किसी और हीरे को तराशने में उसकी सहायता करो। अच्छा लगेगा।



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