(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
प्रथम स्कन्धः सप्तदश
अध्यायः श्लोक 32-45
का हिन्दी अनुवाद
सूतजी कहते हैं- परीक्षित की आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराज के समान मारने के लिये उद्यत, हाथ में तलवार लिये हुए परीक्षित से वह बोला-
कलि ने कहा- सार्वभौम! आपकी आज्ञा से जहाँ कहीं भी मैं रहने का विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुष पर बाण चढ़ाये खड़े है। धार्मिकशिरोमणे! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ।
सूत जी कहते हैं- कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित ने उसे चार स्थान दिये- द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमशः असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता- ये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं। उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित ने उसे रहने के लिये एक और स्थान- ‘सुवर्ण’ (धन) दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये- झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण।
परीक्षित के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा। इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजा वर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये।
राजा परीक्षित ने इसके बाद वृषभरूप धर्म के तीनों चरण- तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वी का संवर्धन किया। वे ही महाराजा परीक्षित इस समय अपने राजसिंहासन पर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिर ने वन में जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं। वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित इस समय हस्तिनापुर में कौरव-कुल की राज्यलक्ष्मी से शोभायमान हैं। अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित वास्तव में ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकाल में आप लोग इस दीर्घकालीन यज्ञ के लिये दीक्षित हुए हैं।
क्रमश:
साभार krishnakosh.org
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