श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-35 का हिन्दी अनुवाद

ध्रुव! इस प्रकार भगवान् की माया से सत्त्वादि गुणों में न्यूनाधिक भाव होने से ही जैसे भूतों द्वारा शरीरों की रचना होती है, वैसे ही उनकी स्थिति और प्रलय भी होते हैं। पुरुषश्रेष्ठ! निर्गुण परमात्मा तो इनमें केवल निमित्तमात्र है; उसके आश्रय से यह कार्यकरणात्मक जगत् उसी प्रकार भ्रमता रहता है, जैसे चुम्बक के आश्रय से लोहा। काल-शक्ति के द्वारा क्रमशः सत्त्वादि गुणों में क्षोभ होने से लीलामय भगवान् की शक्ति भी सृष्टि आदि के रूप में विभक्त हो जाती है; अतः भगवान् अकर्ता होकर भी जगत् की रचना करते हैं और संहार करने वाले न होकर भी इसका संहार करते हैं। सचमुच उन अनन्त प्रभु की लीला सर्वथा अचिन्तनीय है। ध्रुव! वे कालस्वरूप अव्यय परमात्मा ही स्वयं अन्तरहित होकर भी जगत् का अन्त करने वाले हैं तथा अनादि होकर भी सबके आदिकर्ता हैं। वे ही एक जीव से दूसरे जीव को उत्पन्न कर संसार की सृष्टि करते हैं तथा मृत्यु के द्वारा मारने वाले को भी मरवाकर उसका संहार करते हैं। वे काल भगवान् सम्पूर्ण सृष्टि में समान रूप से अनुप्रविष्ट हैं। उनका न तो कोई मित्र पक्ष है और न शत्रु पक्ष। जैसे वायु के चलने पर धूल उसके साथ-साथ उड़ती है, उसी प्रकार समस्त जीव अपने-अपने कर्मों के अधीन होकर काल की गति का अनुसरण करते हैं-अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःखादि फल भोगते हैं।

सर्वसमर्थ श्रीहरि कर्मबन्धन में बँधे हुए जीव की आयु की वृद्धि और क्षय का विधान करते हैं, परन्तु वे स्वयं इन दोनों से रहित और अपने स्वरूप में स्थित हैं। राजन्! इन परमात्मा को ही मीमांसक लोग कर्म, चार्वाक, स्वभाव, वैशेषिक मतावलम्बी काल, ज्योतिषी दैव और कामशास्त्री काम कहते हैं। वे किसी भी इन्द्रिय या प्रमाण के विषय नहीं हैं। महदादि अनेक शक्तियाँ भी उन्हीं से प्रकट हुईं हैं। वे क्या करना चाहते हैं, इस बात को भी संसार में कोई नहीं जानता; फिर अपने मूल कारण उन प्रभु को तो जान ही कौन सकता है।

बेटा! ये कुबेर के अनुचर तुम्हारे भाई को मारने वाले नहीं हैं, क्योंकि मनुष्य के जन्म-मरण का वास्तविक कारण तो ईश्वर है। एकमात्र वही संसार को रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहंकारशून्य होने के कारण इसके गुण और कर्मों से वह सदा निर्लेप रहता है। वे सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मा, नियन्ता और रक्षा करने वाले प्रभु ही अपनी मायाशक्ति से युक्त होकर समस्त जीवों का सृजन, पालन और संहार करते हैं। जिस प्रकार नाक में नकेल पड़े हुए बैल अपने मालिक का बोझा ढोते रहते हैं, उसी प्रकार जगत् की रचना करने वाले ब्रह्मादि भी नामरूप डोरी से बँधे हुए उन्हीं की आज्ञा का पालन करते हैं। वे अभक्तों के लिये मृत्युरूप और भक्तों के लिये अमृतरूप हैं तथा संसार के एकमात्र आश्रय हैं।

तात! तुम सब प्रकार उन्हीं परमात्मा की शरण लो। तुम पाँच वर्ष की ही अवस्था में अपनी सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर माँ की गोद छोड़कर वन को चले गये थे। वहाँ तपस्या द्वारा जिन हृषीकेश भगवान् की आराधना करके तुमने त्रिलोकी से ऊपर ध्रुवपद प्राप्त किया है और जो तुम्हारे वैरभावहीन सरल हृदय में वात्सल्यवश विशेष रूप से विराजमान हुए थे, उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्यमुक्त परमात्मा को अध्यात्म दृष्टि से अपने अन्तःकरण में ढूँढो। उनमें यह भेदभावमय प्रपंच न होने पर भी प्रतीत हो रहा है। ऐसा करने से सर्वशक्तिसम्पन्न परमानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी भगवान् अनन्त में तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति होगी और उसके प्रभाव से तुम मैं-मेरेपन के रूप में दृढ़ हुई अविद्या की गाँठ को काट डालोगे।

राजन्! जिस प्रकार ओषधि से रोग शान्त किया जाता है-उसी प्रकार मैंने तुम्हें जो कुछ उपदेश दिया है, उस पर विचार करके अपने क्रोध को शान्त करो। क्रोध कल्याण मार्ग का बड़ा ही विरोधी है। भगवान् तुम्हारा मंगल करें। क्रोध के वशीभूत हुए पुरुष से सभी लोगों को बड़ा भय होता है; इसलिये जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा चाहता है कि मुझसे किसी भी प्राणी को भय न हो और मुझे भी किसी से भय न हो, उसे क्रोध के वश में कभी न होना चाहिये। तुमने जो यह समझकर कि ये मेरे भाई के मारने वाले हैं, इतने यक्षों का संहार किया है, इससे तुम्हारे द्वारा भगवान् शंकर के सखा कुबेर जी का बड़ा अपराध हुआ है। इसलिये बेटा! जब तक कि महापुरुषों का तेज हमारे कुल को आक्रान्त नहीं कर लेता; इसके पहले ही विनम्र भाषण और विनय के द्वारा शीघ्र उन्हें प्रसन्न कर लो। इस प्रकार स्वयाम्भुव मनु ने अपने पौत्र ध्रुव को शिक्षा दी। तब ध्रुव जी ने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वे महर्षियों के सहित अपने लोक को चले गये। 


साभार krishnakosh.org

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