(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश
अध्यायः श्लोक 17-31
का हिन्दी अनुवाद
एक बार यह अपने महल की छत पर गेंद खेल रही थी। गेंद के पीछे इधर-उधर दौड़ने के कारण इसके नेत्र चंचल हो रहे थे तथा पैरों के पायजेब मधुर झनकार करते जाते थे। उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व मोहवश अचेत होकर अपने विमान से गिर पड़ा था। वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना कर रही है; ऐसी अवस्था में कौन समझदार पुरुष इसे स्वीकार न करेगा? यह तो साक्षात् आप महाराज श्रीस्वायम्भुव मनु की दुलारी कन्या और उत्तानपाद की प्यारी बहिन है; तथा यह रमणियों में रत्न के समान है। जिन लोगों ने कभी श्रीलक्ष्मी जी के चरणों की उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं हो सकता। अतः मैं आपकी इस साध्वी कन्या को अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्त के साथ। जब तक इसके संतान न हो जायेगी, तब तक मैं गृहस्थ-धर्मानुसार इसके साथ रहूँगा। उसके बाद भगवान् के बताये हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शम-दामादि धर्मों को ही अधिक महत्त्व दूँगा। जिनसे इस विचित्र जगत् की उत्पत्ति हुई है, जिनमें यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रय से यह स्थित है-मुझे तो वे प्रजापतियों के भी पति भगवान् श्रीअनन्त ही सबसे अधिक मान्य हैं।
मैत्रेय जी कहते हैं- प्रचण्ड धनुर्धर विदुर! कर्दम जी केवल इतना ही कह सके, फिर वे हृदय में भगवान् कमलनाभ का ध्यान करते हुए मौन हो गये। उस समय उसके मन्द हास्ययुक्त मुखकमल को देखकर देवहूति का चित्त लुभा गया। मनु जी ने देखा कि इस सम्बन्ध में महारानी शतरूपा और राजकुमारी की स्पष्ट अनुमति है, अतः उन्होंने अनेक गुणों में सम्पन्न कर्दम जी को उन्हीं के समान गुणवती कन्या का प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया। महारानी शतरूपा ने भी बेटी और दामाद को बड़े प्रेमपूर्वक बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेज में दिये। इस प्रकार सुयोग्य वर को अपनी कन्या देकर महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। चलती बार उसका वियोग न सह सकने के कारण उन्होंने उत्कण्ठावश विह्वलचित्त होकर उसे अपनी छाती से चिपटा लिया और ‘बेटी! बेटी!’ कहकर रोने लगे। उनकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी और उनसे उन्होंने देवहूति के सिर के सारे बाल भिगो दिये। फिर वे मुनिवर कर्दम से पूछकर, उनकी आज्ञा ले रानी के सहित रथ पर सवार हुए और अपने सेवकों सहित ऋषिकुल सेवित सरस्वती नदी के दोनों तीरों पर मुनियों के आश्रमों की शोभा देखते हुए अपनी राजधानी में चले आये।
जब ब्रह्मावर्त की प्रजा को यह समाचार मिला कि उसके स्वामी आ रहे हैं, तब वह अत्यन्त आनन्दित होकर स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजे के साथ अगवानी करने के लिये ब्रह्मावर्त की राजधानी से बाहर आयी। सब प्रकार की सम्पदाओं से युक्त बर्हिष्मती नगरी मनु जी की राजधानी थी, जहाँ पृथ्वी को रसातल से ले आने के पश्चात् शरीर कँपाते समय श्रीवराह भगवान् के रोम झड़कर गिरे थे। वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहने वाले कुश और कास हुए, जिनके द्वारा मुनियों ने यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों का तिरस्कार कर भगवान् यज्ञपुरुष की यज्ञों द्वारा आराधना की है। महाराज मनु ने भी श्रीवराह भगवान् से भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होने पर इसी स्थान में कुश और कास की बर्हि (चटाई) बिछाकर श्रीयज्ञ भगवान् की पूजा की थी।
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