(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का
हिन्दी अनुवाद
प्रकृति-पुरुष के विवेक से
मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन.
यमादि योग साधनों के द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास-चित्त को बारम्बार एकाग्र करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियों में समभाव रखने, किसी से वैर न करने, आसक्ति के त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन-व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवान् को समर्पित किये हुए) स्वधर्म से जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि-प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसी में सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा एकान्त में रहता है, शान्त स्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धर्यवान् है, प्रकृति और पुरुष के वास्तविक स्वरूप के अनुभव से प्राप्त हुए तत्त्वज्ञान के कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियों के सहित इस देह में मैं-मेरेपन का मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धि की जाग्रदादि अवस्थाओं से भी अलग हो गया है तथा परमात्मा के सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता-वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रों से सूर्य को देखने कि भाँति अपने शुद्ध अन्तःकरण द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपद को प्राप्त हो जाता है, जो देहादि सम्पूर्ण उपाधियों से पृथक्, अहंकारादि मिथ्या वस्तुओं में सत्यरूप से भासने वाला, जगत्कारणभूता प्रकृति का अधिष्ठान, महदादि कार्य-वर्ग का प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थों में व्याप्त है। जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ सूर्य का प्रतिबिम्ब दीवाल पर पड़े हुए अपने आभास के सम्बन्ध से देखा जाता है और जल में दीखने वाले प्रतिबिम्ब से आकाशास्थित सूर्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेद से तीन प्रकार का अहंकार देह, इन्द्रिय और मन में स्थित अपने प्रतिबिम्बों से लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिबिम्ब युक्त उस अहंकार के द्वारा सत्य ज्ञानस्वरूप परमात्मा का दर्शन होता है-जो सुषुप्ति के समय निद्रा से शब्दादि भूतसूक्ष्म, इन्द्रिय और मनबुद्धि आदि के अव्याकृत में लीन हो जाने पर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहंकार शून्य है। (जाग्रत्-अवस्था में यह आत्मा भूत-सूक्ष्मादि दृश्य वर्ग के द्रष्टारूप में स्पष्टतया अनुभव में आता है; किन्तु) सुषुप्ति के समय अपने उपाधिभूत अहंकार का नाश होने से वह भ्रमवश अपने को ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धन का नाश हो जाने पर मनुष्य अपने को ही नष्ट हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है। माताजी! इन सब बातों का मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्मा का अनुभव कर लेता है, जो अहंकार के सहित सम्पूर्ण तत्त्वों का अधिष्ठान और प्रकाशक है।
साभार krishnakosh.org
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