‘मैं-अकेला’ या ‘हम-सब’.


मैं-अकेलाया हम-सब.

ध्यात्म शास्त्र की सम्पूर्ण रचना केवल एक आधार पर हुई है। वह आधार है, आत्मोन्नति,’ आत्मोन्नति का तात्पर्य है, आत्मभाव का विस्तार। जब कोई अपने धन को बढ़ा लेता है, तब कहते हैं कि उसने आर्थिक उन्नति की है, कोई अपने ज्ञान को बढ़ा लेता है, तो कहते है, उसने बौद्धिक उन्नति की है, इसी प्रकार देह को हृष्ट पुष्ट कर लेना शारीरिक उन्नति कही जा सकती है। उन्नति का तात्पर्य बढ़ोतरी से है, जिसकी जिस दिशा में बढ़ोतरी होती है, उसे उसी दिशा में उन्नत हुआ कहा जा है। आत्मोन्नति का तात्पर्य आत्मभाव में बढ़ोतरी होना है। जब तक मनुष्य अपने को अकेला समझता है, अपने अकेले के हित अनहित की बात सोचता है, तब तक वह आत्मिक दृष्टि से पतित समझा जाता है। उसे स्वार्थी, खुदगर्ज, मतलबी आदि नामों से पुकारते है, किन्तु जब वह आत्मोन्नति करता है, तो “मैं-एक” के स्थान पर हम- “सब” का विचार करता है।

शास्त्रों में अनेक स्थानों पर ऐसा अभिमत प्राप्त होता है कि ‘जो अकेला खाता है, वह पाप खाता है। जो अपने लिए सोचता है, वह नरक सोचता है। ब्रह्म विद्या का मूलभूत तथ्य यह है कि मनुष्य स्वार्थ के बन्धनों से ‘मुक्ति’ प्राप्त करे। आत्मा को परमात्मा से मिला दे। जीव से बढ़ कर शिव बने, तुच्छता से उठकर महान बने, यही सभी आदेश एक ही दिशा में संकेत करते हैं कि अपने पन के- आत्मिकता के-दायरे को बढ़ाना चाहिए। ‘मैं’ की संकुचितता को बढ़ा कर ‘हम’ की महानता की ओर अग्रसर होना चाहिए। यह मर्यादा जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे ही वैसे मनुष्य की आत्मोन्नति समझी जाती है। जो मनुष्य खुदगर्जी के जितने तुच्छ दायरे में विचरण करता है, वह उतना ही अनात्मवान् है, जो परमार्थ में स्वार्थ के सिद्धाँत को मानता हुआ, दूसरों के हानि लाभ में अपना हानि लाभ देखता है, वह उतना ही बड़ा आत्म ज्ञानी है।

ब्रह्म विद्या समस्त विद्याओं की जननी है, आत्मोन्नति सब उन्नतियों की जड़ है, यह सिद्धाँत इतने ध्रुव सत्य हैं कि इनकी सच्चाई पर संदेह करने की जरा भी गुँजाइश नहीं रह जाती। जब किसी व्यक्ति, जाति या देश ने जिस हद तक इन सिद्धाँतों को अपनाया है, तब उसने उसी सीमा में भौतिक उन्नति की है, जब जिस देश ने इन सिद्धाँतों को जितना ढीला छोड़ा है, तभी वह उतना ही नीचे गिर गया है। यूरोपीय देशों की उन्नति और भारत की अवन्नति का भी यही कारण है।

भारतवर्ष के पतन के कारणों पर आप गंभीरता से विचार करेंगे तो आपको वैसा कोई दुर्गुण, यहाँ के निवासियों में न मिलेगा, जिनके कारण राष्ट्रों की दुर्गति होती है। हमारा देश बौद्धिक उन्नति में अपना सानी नहीं रखता, यहाँ ऐसे-ऐसे आला दर्जे के दिमाग थे, और हैं, जिनका मुकाबला करने में संसार के अन्य देश अभी तक पीछे हैं। यहाँ के निवासी बहादुरी में भी अद्वितीय हैं, प्राचीन काल की बहादुरी की गौरव-गाथाओं से इतिहास रंगा हुआ है, आज भी भारतीय सेना युद्ध में जो जौहर दिखा कर रही है, उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करते-करते, हमारे शासक थकते नहीं। मरहटे आर सिख पिछली शताब्दियों में अद्वितीय कूट क्षितिज रहे हैं, आज भी राजनीति के ऐसे ऐसे पंडित मौजूद हैं, जिनकी सूक्ष्म दृष्टि असाधारण है। यदि ये लोग किसी स्वतंत्र देश में हुए होते, तो उनने अपनी प्रतिमा से संसार को चकित कर दिया होता। साधारण जनता पर दृष्टि डालिए, तो वह विलासी या अकर्मण्य भी नहीं हैं। पूर्वकाल में तो धार्मिक अधिक होने के कारण और वर्तमान समय में दरिद्रता के कारण यहाँ की जनता भोग विलासों में मस्त नहीं हो पाई। कड़ा परिश्रम करने में भी भारतीय अद्वितीय हैं, सस्ते से सस्ता अपौष्टिक भोजन खाकर, यहाँ के किसान मजूर जितना काम करते हैं, उतना काम अन्य देशों के श्रमजीवी नहीं कर पाते। कई लोग जैन और बौद्धों द्वारा प्रचलित अत्यन्त अहिंसा को देश के पतन का कारण मानते हैं, परन्तु यह बात भी ठीक नहीं, क्योंकि जिन दिनों जैन और बौद्ध धर्म भारत में अपनी पूर्ण उन्नति पर थे, राज धर्म थे, उन दिनों भी यवन, शक और हूणों के आक्रमण भारत पर हुए थे, परन्तु उस समय कोई भी आक्रमणकारी सफल न हुआ, फिर आज जब कि कहने मात्र की अहिंसा ही लोग मानते हैं, उसके कारण इस प्रकार पतित अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकते।

यों तो छोटे मोटे अनेक कारण बताये जा सकते हैं, पर ऐसे कारण तो स्वतंत्र और समृद्ध देशों में भी हैं। दूध का धुला कोई समाज या राष्ट्र नहीं है। थोड़े बहुत दोष सर्वत्र पाये जाते हैं, वैसे दोष यहाँ भी रहे हैं- और रहेंगे, पर वे इतने प्रचंड नहीं हैं, जिनके कारण सारा देश इतने गहरे गर्त में गिर पड़े। अत्यन्त गंभीरतापूर्वक आप विचार करेंगे तो इसका कारण एक ही मिलेगा, वह है-आत्मिक पतन-खुदगर्जी-अपना दायरा संकीर्ण रखना। यह दुर्गुण जिस दिन से भारत वासियों ने अपनाया, उसी दिन से पतन आरम्भ हो गया। यह दुर्गुण इतना जबरदस्त है कि इसके आगे और सारी अच्छाइयाँ फीकी पड़ जाती हैं।

अंग्रेजी राज्य की भारत में स्थापना किस प्रकार हुई, इसका सूक्ष्म अध्ययन जिनने किया है, वे जानते हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के जितने भी गवर्नर यहाँ आये, उनमें से कोई भी ऐसा न था, जिसने अपने देश के लाभ को भुलाकर अपने निजी लाभ की बात सोची हो। यदि क्लाइव, हेस्टिंग्स आदि ऐसा सोचते तो वे कम्पनी को धता बता कर, अपना खुद का राज्य स्थापित कर सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसी बात स्वप्न में भी नहीं सोची। वे खुद मामूली नौकर बने रहे, पर अपने देश के लाभ के लिए उन्होंने यहाँ साम्राज्य स्थापित किया, व्यापार बढ़ाया और भी जो कुछ कर सकते थे, किया। यदि वे खुद राजा हो जाते तो वे खुद जरूर बड़े आदमी होते, परन्तु सारे इंग्लैण्ड को उससे कुछ लाभ न होता। आज भी अंग्रेज लोग व्यक्तिगत लाभ की संकीर्ण परिधि में शारीरिक और मानसिक परिश्रम नहीं करते,वरन् अपने समाज और राष्ट्र के लाभ को ध्यान में रखते हुए विचार और कार्य करते हैं। वहाँ के वैज्ञानिक नेता, उद्योगपति, विद्वान, सैनिक और साधारण जनता अपने देश के हित अनहित में, अपना हित अनहित समझते हैं, व्यक्तिगत स्वार्थ की अपेक्षा सामूहिक स्वार्थ को वे अधिक महत्व देते हैं। यही कारण है कि वह देश समृद्ध और सम्पन्न बना हुआ है, जब तक उनमें यह सद्गुण बना रहेगा तब तक वे निश्चयपूर्वक सुखी रहेंगे। अन्य सब दुर्गुण, इस एक गुण की छाया में ढ़क जाते हैं।

मारे देश में हर व्यक्ति अपने अकेले के स्वार्थ को महत्व देता है। अपने या अपने बाल बच्चों के हानि लाभ से आगे, उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। अनेक अमीर लोग जब निस्संतान होते हैं तो उन्हें यह चिन्ता पड़ती है कि हमारे धन को कौन खरचे विलसेगा, मानो इस देश में किसी सार्वजनिक कार्य के लिए पैसे की जरूरत है- ही नहीं। उनका ध्यान अपने देश और जाति की दुर्दशा को दूर करने के लिए अपना धन लगा जाने की ओर नहीं जाता, वरन् कहीं से गोद रखने के लिए लड़के की तलाश होती है, जिससे उस धन का खरचने विलसने वाला कोई पैदा हो जाए। यह भावना हर एक क्षेत्र में जोर पकड़ती जा रही है। आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र में देखिए-हर धार्मिक व्यक्ति अपनी निजी मुक्ति, निजी स्वर्ग की तृष्णा से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता। साधु, महात्मा, गुरु, पुरोहित अपने समय को बुरी तरह बरबाद करना पसंद करते हैं, पर अपने समाज और देश की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। फल यह होता है कि चन्द आदमी धनी, विद्वान, प्रतिभाशाली, गुणी, सिद्ध आदि बन जाते हैं, वे अपने निजी उन्नति खूब कर लेते हैं। पर उनकी इस उन्नति से देश को कुछ भी लाभ नहीं पहुँचता। जितने धनी, विद्वान और महात्मा इस देश में हैं, इतने यदि किसी अन्य देश में हुए होते तो आज वह संसार का मुकुट मणि हुआ होता, संसार की सुख शाँति का पथ प्रदर्शक हुआ होता।

मारा देश गरीब है, दुखी है, पीड़ित है, इसका सर्वोपरि कारण हम लोगों की संकुचित स्वार्थवृत्ति है। “अपने मतलब से मतलब” की मनोवृत्ति ने हमें मिट्टी में मिला दिया। जब तक यह घृणास्पद, नारकीय और पाशविक मनोवृत्ति हमारी बनी रहेगी, तब तक चन्द आदमी व्यक्तिगत रूप से कुछ ‘बड़े’ भले बन जावें पर सामूहिक रूप से हम लोग पीड़ित और पतित ही रहेंगे। सामूहिक उन्नति तभी होगी, जब मनुष्य ‘मैं-अकेला’ की मर्यादा में सोचना छोड़कर “हम-सब” की मर्यादा में सोचना और काम करना आरम्भ करेंगे। ‘सब की उन्नति में अपनी उन्नति’ की मनोवृत्ति में वह जादू है, जिसके द्वारा समाज की भी उन्नति होती है और व्यक्ति की भी। इंग्लैण्ड आदि देश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

विचार करो! विवेक को जागृत करके सोचो! अध्यात्म शास्त्र के इस एक मात्र-सूर्य से प्रकाशवान-ध्रुव से अटल-सिद्धान्त को समझो। सबकी उन्नति में आपकी उन्नति है, इसलिए केवल व्यक्तिगत लाभ की दृष्टि से ही काम न करो वरन् यह भी सोचो कि कार्य का परिणाम हम सब के लिए क्या होगा। “मैं अकेला” से बढ़कर “हम-सब” की ओर आपकी जितनी प्रगति होगी, उतनी ही आपकी आत्मोन्नति गिनी जाएगी। याद रखो, जिस देश की जितनी आत्मोन्नति होगी, वह उतना ही सुखी और समृद्ध होगा। देश के सुख में ही व्यक्ति का सुख भी निहित है। दुखी पड़ोसियों के बीच रहकर कोई बड़ा आदमी भी शान्तिपूर्वक सुख नहीं भोग सकता। इसलिए हे सुख शान्ति के इच्छुकों! हे अध्यात्म विद्या के जिज्ञासुओं! उठो घर घर में मनुष्य में यह भाव भर दो कि वह खुदगर्जी के बन्धनों को तोड़ कर परमार्थ रूपी मुक्ति की ओर बढ़े, आत्मा का दायरा बढ़ा कर, उसे परमात्मा बनावे। मैं-अकेला’ की निकृष्ट नारकीय वृत्ति को छोड़ कर “हम-सब” की दिव्य भावनाओं को अपनावे। इसी मन्त्र में हमारा और हमारे समाज का उत्थान निहित है।



(अखंड ज्योति. 8/1944)

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