हमारी ख़ुशी ज्यादा देर टिकती क्यों नहीं?


हमारी ख़ुशी ज्यादा देर टिकती क्यों नहीं?
(सदगुरु जग्गी वासुदेव)
हमारी ख़ुशी आती-जाती रहती है, कभी हमारे अन्दर टिक कर नहीं रहती। सद्‌गुरु बता रहे हैं कि हमें अपने अन्दर ऐसा रसायन या केमिस्ट्री बनानी होगी जिससे आनंद हमेशा बना रहे।
विजय देवराकोंडा: हैलो सद्‌गुरु आज के समय में हम सभी पैसे कमाने के लिए बहुत मेहनत करते हैं। हम सोचते हैं पैसे से हमें ख़ुशी मिलेगी। खुशी ऐसी चीज़ है, जिसका प्रचार सबसे ज्यादा हो रहा है। हम यह सोचकर शराब पीते हैं कि उससे हमें खुशी मिलेगी, हम यह सोच कर किसी स्त्री के साथ रहना चाहते हैं, कि उससे हमें खुशी मिलेगी, मगर वह क्या चीज है जो हमें खुशी देती है? कौन सी चीज हमें खुश रखती है? हम ऐसे मोड़ पर हैं जहां हम यह तक नहीं जानते कि हमें कहां खुशी मिलेगी। एक आनंदमय दिमाग कैसा लगता है? एक खुश दिमाग क्या करता है? यह मत कहिए कि खुशी के लिए अंदर देखो, यह उत्तर मेरे लिए काम नहीं करता। मुझे सच बताइए!

सद्‌गुरु: नमस्कारम विजय। तो एक खुश आदमी कैसा दिखता है? मैं आपको कैसा दिखता हूं? हम खुशी के बारे में ऐसे सोचते हैं मानो वह कोई वस्तु या किसी तरह की उपलब्धि हो। नहीं। जब आपका जीवन सहजता पा लेता है, जब आप सहजता पा लेते हैं, तो खुशी उसका एक कुदरती नतीजा होता है। सहजता पाने का क्या मतलब है? इसे देखने के कई तरीके हैं। खैर... मैं आपको अंदर की ओर देखने के लिए नहीं कह सकता, क्योंकि आपने पहले ही मुझ पर शर्त लगा दी है! 

हर इंसानी अनुभव के पीछे होती है एक केमिस्ट्री.

आज विज्ञान की दृष्टि से भी यह साबित हो चुका है कि हर इंसानी अनुभव का एक रासायनिक आधार होता है। तो जिसे आप शांति कहते हैं, वह एक तरह की कैमिस्ट्री है, खुशी दूसरी तरह की कैमिस्ट्री है, आनंद अलग तरह की कैमिस्ट्री है और दुख एक अलग तरह की कैमिस्ट्री, पीड़ा एक तरह की कैमिस्ट्री है तो परमानंद दूसरी तरह की कैमिस्ट्री। हर मानव अनुभव का एक रासायनिक आधार है।
 
  सवाल सिर्फ यह है कि क्या आप बढ़िया सूप हैं या खराब सूप? अगर आप बढ़िया सूप हैं, तो आपका स्वाद अच्छा होगा - किसी और के लिए नहीं, अपने लिए।
या दूसरी तरह कहें, तो आप एक बहुत जटिल रासायनिक सूप हैं। सवाल सिर्फ यह है कि क्या आप बढ़िया सूप हैं या खराब सूप? अगर आप बढ़िया सूप हैं, तो आपका स्वाद अच्छा होगा - किसी और के लिए नहीं, अपने लिए। जब आपका स्वाद अपने लिए बहुत अच्छा होता है, तो सिर्फ यहां बैठने पर आप अपने भीतर बहुत ही सुखद महसूस करते हैं क्योंकि यह सूप बढ़िया है, फिर लोग कहते हैं कि आप खुश हैं। अगर आप बहुत अधिक सुखद हो जाते हैं, तो लोग कहेंगे कि आप आनंदित हैं। अगर आप उससे भी अधिक सुखद होते हैं, तो लोग कहते हैं कि आप परम आनंदित हैं। 

आपके काम नहीं, भीतरी अनुभव से जीवन की क्वालिटी तय हो. 

तो अधिकांश लोगों के लिए बहुत सरल और समझने लायक भाषा में कहें, तो आपकी कैमिस्ट्री को बदले जाने की जरूरत है। एक पूरी तकनीक मौजूद है, जिससे हम आपकी मनचाही कैमिस्ट्री पैदा कर सकते हैं। अगर मैं आपको अपने भीतर एक आनंददायक कैमिस्ट्री उत्पन्न करना सिखाऊं, तो आप आनंदित हो जाएंगे। जब आप आनंदित होते हैं, तो आप खुशी की तलाश में नहीं रहते, यह सबसे बड़ी गलती है कि हम खुशी की तलाश में हैं। आपके जीवन को खुशी की एक अभिव्यक्ति (जीने के माध्यम से ख़ुशी को प्रकट करना) बनना होगा। जब आपका जीवन आपके अनुभव की एक अभिव्यक्ति(प्रकट करना) होता है, तो आप क्या करते हैं क्या नहीं करते - इससे आपके जीवन की क्वालिटी तय नहीं होती। आप अपने भीतर कैसे हैं, इससे आपके जीवन की क्वालिटी तय होती है।
सही भीतरी केमिस्ट्री के बिना कोई चीज़ फायदेमंद नहीं होगी

माफ कीजिए, मैंने एक बार फिर भीतर शब्द का इस्तेमाल किया मगर कैमिस्ट्री भीतर नहीं है, यह अब भी आपके बाहर है। लेकिन अगर आप जानते हैं कि सही सूप कैसे बनाना है, तो आनंदित होना कोई समस्या नहीं है। यह उसका एक स्वाभाविक नतीजा है। तो, हम आपको एक तकनीक सिखा सकते हैं, एक तरीका सिखा सकते हैं, जिससे आप अपने भीतर सही तरह का सूप बनाना सीख जाएंगे। इसे ही मैं ‘इनर इंजीनियरिंग’ कहता हूं कि आप अपनी कैमिस्ट्री को इस तरह बनाएं कि वह अपनी प्रकृति से ही आनंदपूर्ण हो, किसी चीज के कारण नहीं। अगर आपको लगता है कि आप किसी चीज या किसी व्यक्ति से खुशी निचोड़ लेंगे, तो आप निराश होंगे क्योंकि किसी चीज का कोई फायदा नहीं है, जब तक कि आपके अंदर परमानंद की कैमिस्ट्री नहीं होगी।

सेवा भावना बिना, मन-मरघट.


सेवा भावना बिना,
मन-मरघट.

सेवा मानव-जीवन को उत्कृष्ट और पूर्ण बनाने की एक महत्वपूर्ण साधना है। जो फल अनेक तरह की तपश्चर्याओं, साधनाओं, कर्मकाण्ड, उपासनाओं से प्राप्त होता है वह मनुष्य को सेवा के द्वारा सहज ही मिल जाता है। स्व. वल्लभ भाई पटेल ने कहा है “गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।” गौतम बुद्ध ने यही कहा है- “जिसे मेरी सेवा करनी है वह पीड़ितों की सेवा करे।” सेवा के महान् व्रती बापू ने कहा था “लाखों गूँगों के हृदय में ईश्वर विराजमान हैं, मैं इन लाखों की सेवा के द्वारा ही ईश्वर की पूजा करता हूँ।” सेवा से मनुष्य का तन, मन, धन सब कुछ पवित्र बन जाता है। सेवा से ज्ञान प्राप्त होता है, विश्वात्मा का सान्निध्य प्राप्त होता है- सेवा से। सेवा ही मनुष्य का सर्वोपरि धर्म है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि जीवन का यथार्थ लक्ष्य सेवा ही है। आध्यात्मिक, धार्मिक जीवन बिताने पर भी अन्ततः मनुष्य को सेवा की ही प्रेरणा मिलती है। जो जितना विकसित होगा उसमें सेवा की भावना उतनी ही प्रबल होगी। यही मनुष्य के आत्म विकास की सच्ची निशानी है। बसे संसार को छोड़ने वाले, कठोर तपश्चर्या करने वाले बुद्ध को अंत में पीड़ितों की सेवा करने वाली प्रेरणा वापिस संसार में घसीट लाई। सुकरात, ईसा, मुहम्मद, राम, कृष्ण, गाँधी, दयानंद एवं पूर्वकालीन ऋषि महर्षियों का जीवन मंत्र सेवा ही तो था। जीवन लक्ष्य की मंजिल का मार्ग सेवा की सीढ़ियों पर होकर ही जाता है। सचमुच सेवा का मार्ग ज्ञान, मति तप योग आदि के मार्ग से भी ऊँचा है। क्या सेवा भावी मनुष्य को ब्रह्म सायुज्य का लाभ जीते जी नहीं मिल जाता जब उसकी चेतना असीम विश्वात्मा की अर्चना में लगती है जन-जन की सेवा में लीन होती है ?

धन सम्पत्ति रूप यौवन प्रभुता सब मनुष्य को संतुष्ट करने में अपूर्व ही सिद्ध होते हैं, किंतु एक सेवा ही है जो उसे शाँति संतोष प्रदान करती है। हमारे यहाँ संन्यास को जीवन का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप माना है लेकिन सेवा संन्यास से भी बड़ी है। संन्यास तो अपनी मुक्ति का आधार बन कर रहा जाता है किंतु सेवा परमार्थ की बलि वेदी पर स्वयं को होम देना है। सेवा जीवन यज्ञ है। इस में मनुष्य संसार रूपी कुण्ड में जनता जनार्दन के मुँह में सेवा की आहुतियाँ देता है।

हमें सेवा को जीवन के एक आवश्यक व्रत के रूप में ग्रहण करना चाहिए। सेवा की साधना कोई भी किसी भी परिस्थिति में कर सकता है। सेवा के लिए पैसे की आवश्यकता नहीं है। उत्कृष्ट भावना, अपनी संकुचितता छोड़ कर जन जीवन के साथ एक रूप होना ही सेवा के लिए पर्याप्त है।

जो लोग यह सोचते हैं क्या करें हमारे पास धन नहीं हम में कोई योग्यता नहीं कैसे सेवा करें? ऐसे लोग समझने में भूल करते हैं। पैसे से किसी की सेवा नहीं होती वह तो साधन है जो सेवा वृत्ति के विकास के साथ स्वयमेव ही चला आता है। बहुत से लोगों की शिकायत होती है, क्या करें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलती। काम की चक्की में दिन रात इतने उलझे रहते हैं कि अवकाश ही नहीं मिलता। किंतु सेवा व्रत लेने वाले कभी किसी सत्पुरुष ने अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारियों तथा उत्तरदायित्व को नहीं छोड़ा। यदि हम में सेवा की इच्छा हो तो अत्यन्त व्यस्त जीवन में से भी समय निकाल सकते है। अस्तु सेवा के सम्बन्ध में आवश्यकता इस बात की है कि हम में इसके लिए उत्कृष्ट अभिलाषा हो, प्रयत्न, भावना हो। सेवा को जीवन साधना का अंग मान कर हम आँशिक रूप में ही चालू कर सकते हैं। अधिक नहीं प्रति दिन एक दो घण्टे ही निकाल लें तो बहुत है। और यह किसी के लिए कठिन नहीं है। जब लोग खेल-कूद मनोरंजन सैर-सपाटों के लिए समय निकाल लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि वे प्रति दिन कुछ भी समय सेवा के लिए न निकाल सकें ।

अब बहुत से लोग यह भी कह सकते हैं कि क्या सेवा करें ? सेवा के लिए सारा धरातल पड़ा है। पद पद पर दूसरे लोगों को हमारी सेवा की आवश्यकता पड़ती है। सेवा किसकी की जाय? इसका उत्तर देते हुए बापू ने कहा कि “सेवा उनकी करो जिनको सेवा की जरूरत है।” अंधों की, गरीबों की, असहाय दीन दुःखियों की सेवा करिए। जिनका कोई नहीं है उन्हें सहारा दीजिए, जो गिर पड़े हैं उन्हें उठाइये। समाज में उनकी संख्या अधिक है।

प्रति दिन हमारे दैनिक जीवन में ऐसा अवसर आते हैं जब दूसरों को हमारी सेवा की आवश्यकता होती है। किसी अशिक्षित का पत्र लिखना। कोई कहीं का पता पूछे उसे सही ठिकाने पहुँचा देना। बोझ उठाने में किसी की मदद कर देना, दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर किसी को अस्पताल पहुँचा देना, कहीं झगड़ा हो रहा हो तो उसे सुलझा देना, कोई सार्वजनिक स्थान गंदा पड़ा हो तो उसकी सफाई कर देना-ऐसे सैंकड़ों ही अवसर सेवा के लिए हमारे समक्ष रहते हैं। हम इन अवसरों पर दूसरों की सहायता कर सकते हैं, उन्हें सहयोग दे सकते हैं।

बहुत से लोग सेवा के लिए बड़ी बड़ी आकाँक्षायें रखते हैं, महापुरुषों की नकल करना चाहते हैं। सेवा कार्य यदि महत रूप से नहीं बनता तो वे कुछ भी नहीं करते। बड़े अवसरों की प्रतीक्षा में बैठे रहने के बजाय छोटे-छोटे अवसर जो नित्य ही हमारे जीवन में आते हैं उनका पूरा-पूरा ध्यान रख कर सेवा व्रत निभाना लोक सेवा का प्रारम्भिक पाठ है। बड़े-बड़े अवसर तो फिर स्वतः ही आने लगते हैं जहाँ उनकी सेवाओं की माँग पर माँग होने लगती है। “पहाड़ फिर; पत्थर ही उठायें” की कहावत के अनुसार सेवा की साधना हमें नीचे से, छोटी-छोटी बातों में दूसरों की सहायता करके शुरू करनी चाहिए।

सेवा साधना में मनुष्य को अपने बड़प्पन, पद प्रतिष्ठा की भावना का त्याग करना आवश्यक है। स्मरण रहे सेवक का पद संसार में सबसे नीचा होता है। उसका स्थान जनता जनार्दन के पैरों के नीचे होता है तभी तो वह विराट मानव की सेवा कर सकता है। जनसेवी को पद, प्रतिष्ठा, बड़प्पन के सभी अलंकारों का त्याग करना आवश्यक है। महात्मा गाँधी के पास एक संन्यासी आये। बापू ने पूछा “आप किस लिए आये हैं? “जनता की सेवा करने के लिए”। बापू ने कहा कि सेवा करनी है तो गेरुए वस्त्रों को उतारो क्योंकि महात्मा समझ कर लोग उल्टी आप की सेवा करने लगेंगे।” सेवा के समय हमें अपनी वैयक्तिक विशेषताओं, अलंकारों का त्याग करना आवश्यक है। अन्यथा सेवा एक तरह का प्रदर्शन, रस्म बन जाती है। जैसे कि आज के लोग या अफसर श्रमदान करते हुए फोटो खिंचाते और छपाते हैं।

लोक सेवक का हृदय जितना संवेदनशील होगा उतना ही वह दूसरे की सेवा के अवसर प्राप्त कर सकेगा। सम्वेदना, परदुःखकातरता ही दूसरों की पीड़ा को समझने की सामर्थ्य प्रदान करती है। पत्थर दिल क्या जानेगा किसी के दुःख दर्द को। हमें हृदय की सहज कोमलता का भी विकास करना चाहिए। दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझना, दूसरों की पीड़ा अपनी पीड़ा समझने पर ही उन की सेवा सहायता की प्रेरणा पैदा होती है।

आत्म विकास के लिए, सामाजिक उत्तरदायित्व, मानवीय कर्तव्य के नाते हमें जन सेवा को जीवन का महत्वपूर्ण नियम बना लेना चाहिए। नित्य किसी न किसी रूप में कम से कम एक व्यक्ति की सेवा का व्रत तो हम अत्यन्त व्यस्त हो कर भी निभा ही सकते हैं।



अखंड ज्योति-11/ 1964

पैरों की बनावट. (लक्षण शास्त्र)


पैरों की नाव.
(लक्षण शास्त्र)

मनुष्य का शरीर अद्भुत है, वह स्वभाव से जुड़ी कोई भी बात छिपाता नहीं है।, चरित्र और व्यक्तित्व कैसा है, ये सब बातें आपका शरीर बड़ी ही आसानी से दूसरों को बताता है। सामुद्रिक शास्त्र के साथ-साथ अब तो कई वैज्ञानिक विश्लेषण भी होने लगे हैं, जिनके आधार पर शारीरिक अंगों का आंकलन कर इंसान के स्वभाव को अनुमानित किया जाता हैं, बिलकुल वैसे ही जैसे लक्षणों के आधार पर बिमारी समझी जाती हैं।

सामुद्रिक शास्त्र जो भारत की प्राचीनतम विद्याओं में से एक है, के अनुसार भी शारीरिक लक्षणों के आधार पर सम्बंधित व्यक्ति का स्वाभाव और आचरण अनुमानित किया जाता हैं। पैरों की बनावट के आधार पर विशेष तथ्य।

चौड़े पैर वाले लोग.

अगर पैर ज्यादा चौड़े हैं, तो यह इस बात का सूचक है कि सम्बंधित व्यक्ति मेहनती है। वह एक क्षण भी खाली बैठना पसंद नहीं करता। उसे वे लोग बिल्कुल पसंद नहीं आते जो सिर्फ बातें करने में विश्वास रखते हैं और काम करने से हिचकिचाते हैं।

छोटे पैर.

छोटे पैर वाले की पसंदगी होती हैं कि लोग उसके आसपास घूमें। उसे अपने जीवन में सिर्फ अच्छी और सुंदर वस्तुओं का ही शौक होता हैं। लोगों के सामने आने में हिचकने वाले ये लोग दूर रहकर भी खुद को प्रभावी रखते हैं।

उठाव वाले पैर.


जिन लोगों के पैर सपाट न होकर उठाव वाले होते हैं, अर्थात पैरों के नीचे का स्थान समतल नहीं बल्कि धनुष के आकार में होता है, वे लोग काफी बौद्धिक और स्वप्नशील होते हैं। इन्हें दिन में सपने देखने का शौक होता हैं और साथ ही बहुत ही कम उम्र में ये लोग जीवन से संतुष्ट होने लग जाते हैं।

सपाट पैर.

इसके विपरीत जिन लोगों के पैर काफी हद तक फ्लैट या सपाट होते हैं, वे लोग दूसरों की सानिध्य में आनंद ढूंढ़ते हैं। इन्हें यथार्थ में रहना पसंद होता है। ये लोग खुद को सपने देखने की पूरी छूट भी देते हैं।

गद्देदार पैर.

जिन लोगों के पैर गद्देदार याने जिसे देखकर सूजन का एहसास हो, वे लोग आसानी से अपनी बात नहीं कह पाते। ऐसे इंसान अपनी भावनाएं आसानी से किसी को नहीं कहते, जिसकी वजह से अंदर ही अंदर परेशान होते रहते हैं।

फटे हुए पैर.


जिन लोगों के पांव हमेशा फटे रहते हैं, एड़ियों से लेकर पैर की अंगुलियां तक क्रैक होते हैं, ऐसे लोग अपने जीवन में कभी भी कोई निर्णय नहीं ले पाते। इसके अलावा ये लोग इस बात के लिए भी कभी आश्वस्त नहीं होते कि उन्हें जीवन में किस राह पर जाना चाहिए।

पांव की अंगुलियां.

जिस तरह पांव व्यक्तित्व के राज खोलते हैं, उसी तरह पैरों की अंगुलियां भी बहुत कुछ बताती हैं।

बड़ा अंगूठा.

अगर पांव का अंगूठा ज्यादा बड़ा है, तो ऐसे लोग अपने व्यवसाय में सफल होने के लिए बहुत कुछ करते हैं। अधिकांशत: ऐसे लोग दूसरों के सहारे पर जल्दी विश्वास नहीं करते।

छोटा अंगूठा.

अगर पैर का अंगूठा, बाकी अंगुलियों से छोटा है, तो ऐसे लोग भरोसेमंद नहीं होते। अगर अंगूठा, अंगुलियों से दूरी पर है, तो यह इस बात को दर्शाता है कि वह जैसा दिखता हैं, वैसा हैं नहीं, अपने अंदर बहुत सी बातों को छिपाकर रखता हैं।

तर्जनी अंगुली.

अगर तर्जनी अंगुली, अंगूठे से बड़ी है, तो इसका अर्थ है कि उसका दृष्टिकोण काफी हद तक स्पष्ट है। वह विस्तृत सोच रखता हैं और साथ ही किसी दूसरे के नेतृत्व में काम नहीं कर सकता। लेकिन अगर तर्जनी अंगुली छोटी है, तो यह इस बात की ओर इशारा करती है कि वह ऋण के बोझ तले दबे हुए हैं। छोटी तर्जनी अंगुली का मतलब है कि बढ़ती उम्र के साथ-साथ धनवान बनने के योग हैं।

दबी हुई अंगुलियां.


अगर अंगुलियां एक-दूसरे में दबी हुई हैं, किसी के भी पास अपने लिए पूरा स्थान नहीं है तो ऐसे व्यक्ति कभी भी दूसरे पर भरोसा नहीं कर पाते। इनके लिए सबसे मुश्किल काम ही किसी अन्य व्यक्ति पर विश्वास करना है, इसलिए ये चीजों को ऐसे ही जाने देते हैं।

अंगुलियों का झुकाव अंगूठे की तरफ.

अगर अंगुलियां, अंगूठे की ओर झुकती प्रतीत होती हैं तो ऐसा व्यक्ति कभी भी अपने गत या अतीत से बाहर नहीं निकल पाता। ये हमेशा ही पुरानी यादों के साये में जकड़े रहते हैं।

तर्जनी की ओर अंगूठे का झुकाव.

अगर अंगूठा, तर्जनी अंगुली की ओर झुकता है तो यह इस बात का संकेत करता है कि वह हमेशा जल्दी में रहता हैं। इस जल्दी की वजह से कई बार उसको परेशानी का भी सामना करना पड़ता है।

मुड़ा हुआ अंगूठा.

अगर अंगूठा अपने में ही घुमावदार या वक्र आकार का है तो ऐसे व्यक्ति के विचार धूर्त होते हैं। ऐसे लोग काफी चालाक माने जाते हैं।

सब धरा का धरा रह जाएगा.

सब धरा का धरा रह जाएगा.

एक राजा को राज भोगते हुए काफी समय हो गया था। बाल भी सफ़ेद होने लगे थे। एक दिन उसने अपने दरबार में एक उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया। उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया।

राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि यदि वे चाहें तो नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें। सारी रात नृत्य चलता रहा। ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी। नर्तकी ने देखा कि तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा –

“बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताय।
एक पलक के कारने, क्यों कलंक लग जाय ।”

अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अलग-अलग अर्थ निकाला। तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा। जब यह बात गुरु जी ने सुनी तो उन्होंने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं। वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया।

उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया। नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा – “बस कर, एक दोहे से तुमने वैश्या होकर भी सबको लूट लिया है।” जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे – “राजन! इसको तू वैश्या मत कह, ये तो अब मेरी गुरु बन गयी है। इसने मेरी आँखें खोल दी हैं। यह कह रही है कि मैं सारी उम्र संयमपूर्वक भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई! मैं तो चला।” यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े।

राजा की लड़की ने कहा – “पिता जी! मैं जवान हो गयी हूँ। आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था। लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही। क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है?”

युवराज ने कहा – “पिता जी! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे। मैंने आज रात ही सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था। लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है। धैर्य रख।”

जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया। राजा के मन में वैराग्य आ गया। राजा ने तुरन्त फैसला लिया – “क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ।” फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा – “पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं। तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो।” राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया।

यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा – “मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी?” उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया। उसी समय उसने निर्णय लिया कि आज से मैं अपना धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि “हे प्रभु! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना। बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी।”

समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती। एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है। बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है।

प्रशंसा से पिघलना नहीं चाहिए, आलोचना से उबलना नहीं चाहिए। नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहें। क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा!

उत्कृष्ट विचारों और उदात्त भावनाओं का सान्निध्य.

उत्कृष्ट विचारों और उदात्त
भावनाओं का सान्निध्य.
(लाजपत राय सबरवाल) 
संस्कृत में एक कहावत है

वरं पर्वत दुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह।
न मूर्खजनः सम्पर्कः सुरेन्द्र भुवनेष्वपि।।


अर्थात एक विचारहीन के साथ स्वर्ग में रहने की अपेक्षा जंगलों में वन प्रणियों के साथ घूमना या उन के साथ रहना कहीं अच्छा हैं । अतः आवश्यक है कि सात्विक मनुष्यों की संगति की जाय और नीच मनुष्यों की संगति से बचा जाए।

सत्संग या संगति का मतलब है - उत्कृष्ट विचारों और उदात्त भावनाओं का सान्निध्य । सान्निध्य और सम्पर्क के प्रभावों से प्रायः हम सभी का परिचय है। यह परिचय आस-पास के परिवेश के उथले और हल्के दायरे तक ही सीमित हैं आग के पास बैठने पर गर्मी, बर्फ के समीप जाने पर सर्दी का अनुभव सभी को होता है।

प्राचीन यूनान में भी सत्संग का प्रचलन था। प्लेटो की पुस्तकों का आधार प्रायः महात्मा सुकरात के प्रवचन रहे हैं। सुकरात के सत्संग ने अनेकानेक लेागो के जीवन में ऐताहासिक परिवर्तन लाकर एथेन्स में क्रान्ति ला दी थी। ईसा मसीह के सत्संग में अनपढ़ मछआरों, उच्चवर्ग द्वारा अपेक्षित गड़रियों को युगपुरुष, महामानव बना दिया। बाइबिल में इस तरह के परिवर्तन की अनेको कथाएं पढी़ जा सकती हैं। भगवान बुद्व के सत्संग से बर्बर डाकू अंगुलिमाल का परिवर्तन होकर संवेदनशील भिक्षु बनने की कथा से सभी परिचित है। उन्हों ने लगभग पचास वर्षो तक भ्रमण करते हुए स्थान स्थान पर सत्संग आयोजित किये।

संसार के सभी धर्म - सम्प्रदायों का आधार महापुरुषों द्वारा किया गया सत्संग ही रहा है। सभी संम्प्रदायों की नीवं इसी के आधार पर रखी गई । प्रत्येक धर्मग्रन्थ महा आत्माओं द्वारा दिए गये सत्संगों का संग्रह ही तो है।

फूल जिस तरह अपनी सुगन्ध चारो ओर बिखेरते हैं, उसी तरह मनुष्य भी अपने विचारों और भावनाओं के अनुरुप विद्युतकण बाहर फैंकते रहते है। ये विद्युतकण जैसे होते है, वैसा असर दूसरों पर डालते है। उत्कृष्ट विचार और उदात्त भावनाओं वाले व्यक्ति चूंकि स्वयं पवित्र होते हंै, अतः उन के आस-पास का क्षेत्र भी पवित्र होने लगता है। इसी वजह से भागवत पुराण में महर्षि व्यास ने कहा है:- आत्मा की शुद्धि साधु-सन्तों के साथ से बहुत तीव्र गति से होती है।

अच्छा संग न केवल व्यक्ति के चेतन, बल्कि अचेतन में भी परिवर्तन लाता है। हम जीवन को नए अर्थो व नई सम्भावनाओं के साथ देखने लगते हैं। धीरे धीरे हमारी अपनी सत्ता, अपने अस्तित्व के प्रति सोच समझ बदलने लगती है। जाग्रत-विवेक जीवन की नई व स्वस्थ दिशा देता है।

विचार शीलता और बुद्धिमत्ता का तकाजा, परिणाम को ध्यान में रख कर राह चुनना हैं और इसी कारण प्राचीनकाल से अब तक दुनिया के हर देश में, विश्व की हर जाति में, संसार के हर धर्म में संत्सग की महत्ता प्रतिपादित की जाती रही हैं। वैदिक धर्म में तो इस की महत्ता का ही नहीं, अनिवार्यता का भी प्रतिपादन किया है। कथा-कीर्तन, यज्ञायोजन इसी के विभिन्न रुप रहे हैं। बात अकेले हमारे अपने देश की नहीं हैं। जहां कही भी, जिस किसी जगह इनंसान ने बसेरा किया, इस का आस्तित्व किसी न किसी रुप में रहा है। पश्चिम की दुनिया में जब वहां इनसान कबीलों और कस्बों में रहते थे, उस समूह में कोई न कोई सम्मानित व्यक्ति होता था, जिस के विचारों में सभी को आस्था होती थी। ये व्यक्ति प्रायः प्रतिदिन समूह में सत्संग किया करते थे। सभी लोग सम्मानित व्यक्ति का उस समय की समाज के किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के विचार सुनते थे। मूर्ति पूजा, का कोई प्रचलंन नहीं था। केवल साधु -सन्तों, श्रेष्ठ जनों के विचारों का ही सीधा असर जनमानस पर पड़ सकता हैं। वेद भी कहते हें ’न तस्य प्रतिमा अस्ति’ अर्थात ईश्वर तेरी कोई प्रतिभा (मूर्ति) नहीं है। एक शास्त्र वचन भी जिस का भावार्थ हैं ’’बाह्यपूजा या मूर्ति पूजा सब से नीचे की अवस्था है। आगे बढ़ने, ऊंचा उठने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है। सब से उच्च अवस्था वह हैं जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए।

जिस भी सन्त-महात्मा के सान्निध्य में हमें अच्छा लगता है, शान्ति महसूस होती हैं वही हमारे लिए अनुकूल है। दूसरे सन्त भी महान होते है। किन्तु हमारी प्रकृति के अनुकूल न होने से हम उन के प्रति ग्रहणश्ील नहीं होते और उन के शुभ प्रभाव को ग्रहण नहीं कर पाते। सन्तों के साथ सत्संग, (न कि मूर्ति के संग में) से ग्रन्थियों के खुलने, मन के पवित्र व शक्ति सम्पन्न होने से हमारी अपनी चेतन-सत्ता की गहराइयों से सम्पर्क स्थापित होता हैं और हम धीरे-धीरे अपनी आत्मसत्ता के करीब होते जाते है, ज्यादा से ज्यादा प्रकाशवान बनते जाते हंै। परन्तु ऐसा प्रभाव मूर्ति पूजा से सम्भव नहीं है।

सत्संग की शुरुआत होती हैं ईश्वर का सान्निध्य पा चुके, सत के स्वरुप से एकात्म हो चुके व्यक्तियों के सम्पर्क सन्निध्य से। सत्संगति की महिमा से परिचित होने के बाद यह जिज्ञासा सहज है कि सत्संगति कैसे पाएं ? सुविख्यात अध्यात्मवेत्ता महर्षि रमण ने इस के लिए तीन उपाय सुझाए हंै। उनके अनुसार पहले दर्जे का सत्संग हैं - निर्विकल्प समाधि में सतस्वरुप परमात्मा का संग। लेकिन यह सत्संगति कुछ गिने चुने महायोगियों को ही सुलझ है। दूसरे दर्जे का सत्संग हैं - ऐसे महान व्यक्तियों का संग, जो ईश्वर से एकात्म है। अर्थात स्वामी विवेकानन्द, महर्षि रमण, महर्षि अरविन्द, स्वामी दयानन्द आदि। योगीजनों का स्तर, यह भी कम दुर्लभ नहीं। सच्चे योगी लोक सम्पर्क से दूर रहते है। ऐसी दशा में तीसरे दर्जे का सत्संग हैं, ऐसे महान योगियों के वचनों का भावपूर्ण स्वाध्याय। महापुरुषों के विचारों को यदि पूरी श्रद्वा, विश्वास एवं हृदय की गहराइयों से पढ़ा जाए तो धीरे-धीरे हमारी चेतना उस महान व्यक्तित्व से जुड़ने लगती है। ऐसे व्यक्तियेां को पूरी श्रद्धा से अपनाकर प्रभु का सान्न्ध्यि पाया जा सकता है।

कलश स्थापना, विधि और मुहूर्त. (नवरात्र-१० अक्टूबर २०१८)


कलश स्थापना, विधि और मुहूर्त.
(नवरात्र-१० अक्टूबर २०१८)


इस साल २०१८ में देवी दुर्गा का आगमन नाव पर होने जा रहा है और उनका प्रस्थान हाथी पर होगा। मान्यता है कि यह अत्यंत शुभ संकेत है।

१० अक्टूबर २०१८, बुधवार से नवरात्रि प्रारंभ हो रही है। जो १८ अक्टूबर २०१८, शुक्रवार तक रहेगी। नवरात्रि में कलश स्थापना का खास महत्व होता है। इसलिए इसकी स्थापना सही और उचित मुहूर्त में ही करनी चाहिए।

घटस्थापना मुहूर्त प्रतिपदा तिथि को किया जाएगा। यह चित्रा नक्षत्र और वैधृति योग में संपन्न होगा।

नवरात्रि कलश (घट) स्थापना शुभ मुहूर्त:- १० अक्टूबर २०१८, बुधवार

कलश स्थापना मुहूर्त:- प्रात: ०६:२२ से ०७:२५ तक।

मुहूर्त की अवधि:- ०१ घंटा ०२ मिनट।

प्रतिपदा तिथि का आरंभ:- ९ अक्टूबर २०१८, मंगलवार ०९:१६ बजे।

प्रतिपदा तिथि समाप्त:- १० अक्टूबर २०१८, बुधवार ०७:२५ बजे।

अगर इस अवधि में किसी कारणवश कलश स्‍थापित नहीं कर पाते हैं, तब १० अक्‍टूबर को सुबह ११:३६ बजे से १२:२४ बजे तक अभिजीत मुहूर्त में भी कलश स्‍थापना कर सकते हैं।

कलश स्थापना करते समय इन बातों का विशेष ध्यान रखें.

कलश के ऊपर रोली से और स्वास्तिक लिखें। पूजा आरंभ के समय “ऊं पुण्डरीकाक्षाय नमः” कहते हुए अपने ऊपर जल छिड़कें। अपने पूजा स्थल से दक्षिण और पूर्व के कोने में घी का दीपक जलाते हुए, “ॐ दीपो ज्योतिः परब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दनः। दीपो हरतु में पापं पूजा दीप नमोस्तु ते”। मंत्र पढ़ते हुए दीप प्रज्ज्वलित करें। मां दुर्गा की मूर्ति के बाईं तरफ श्रीगणेश की मूर्ति रखें। पूजा स्थल के उत्तर-पूर्व भाग में पृथ्वी पर सात प्रकार के अनाज, नदी की रेत और जौ “ॐ भूम्यै नमः” कहते हुए डालें। इसके उपरांत कलश में जल-गंगाजल, लौंग, इलायची, पान, सुपारी, रोली, मौली, चंदन, अक्षत, हल्दी, सिक्का, पुष्पादि डालें। अब कलश में थोड़ा और जल-गंगाजल डालते हुए “ॐ वरुणाय नमः” मंत्र पढ़ें और कलश को पूर्ण रूप से भर दें। इसके बाद आम के पांच (पल्लव) डालें। यदि आम का पल्लव न हो, तो पीपल, बरगद, गूलर अथवा पाकर का पल्लव भी कलश के ऊपर रखने का विधान है। जौ या कच्चा चावल कटोरे में भरकर कलश के ऊपर रखें फिर लाल कपड़े से लिपटा हुआ कच्‍चा नारियल कलश पर रख कलश को माथे के समीप लाएं और वरुण देवता को प्रणाम करते हुए बालू या मिटटी पर कलश स्थापित करें, मिटटी में जौ का रोपण करें।


कलश स्थापना के बाद मां भगवती की अखंड ज्योति जलाएं। यदि हो सके तो यह ज्योति पूरे नौ दिनों तक जलती रहनी चाहिए। फिर क्रमशः श्री गणेशजी की पूजा, फिर वरुण देव, विष्णुजी की पूजा करें। शिव, सूर्य, चंद्रादि नवग्रह की पूजा भी करें। इसके बाद देवी की प्रतिमा को सामने चौकी पर रखकर पूजा करें। इसके बाद पुष्प लेकर मन में ही संकल्प लें कि “मां- मैं आज नवरात्र की प्रतिपदा से आपकी आराधना अमुक कार्य के लिए कर रहा/रही हूं, मेरी पूजा स्वीकार करके मेरी कामना पूर्ण करो”। पूजा के समय यदि आप को कोई भी मंत्र नहीं आता हो,तो केवल दुर्गा सप्तशती में दिए गए नवार्ण मंत्र “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे” से सभी पूजन सामग्री चढ़ाएं। मां शक्ति का यह मंत्र अमोघ है। आपके पास जो भी यथा संभव सामग्री हो, उसी से आराधना करें। संभव हो शृंगार का सामान और नारियल-चुन्नी जरूर चढ़ाएं। सर्वप्रथम मां का ध्यान, आवाहन, आसन, अर्घ्य, स्नान, उपवस्त्र, वस्त्र, शृंगार का सामान, सिंदूर, हल्दी, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, मिष्ठान, कोई भी ऋतुफल, नारियल आदि जो भी सुलभ हो उसे अर्पित करें। पूजन के पश्चात् श्रद्धापूर्वक सपरिवार आरती करें और अंत में क्षमा प्रार्थना भी करें।

ध्यान रखें :- कलश सोना, चांदी, या मिट्टी का होना चाहिए। लोहे या स्टील का कलश पूजा में प्रयोग नहीं करना चाहिए।

बुद्धि.

बुद्धि.

हम परमपिता से एक वस्तु प्राप्त करना चाहते है, वह हैं-ज्ञान द्वारा बुद्धि का निर्माण। जब मानव के पास बुद्धि होती है तो उसके लिए संसार को जानना सहज हो जाता है। बुद्धि उस काल में ऊँची बनती है, जब हमारे अंदर ज्ञान होता है और मन की स्थिरता होती है। जब बुद्धि होती है, तो हम कार्य करने में दक्ष हो जाते है। बुद्धि से ही मानव अपनी इन्द्रियों का मंथन करता हुआ, चित – मन दोनों को अपना माध्यम बनाकर, उसमे अपने को समाहित कर देता है, तब चित केवल आत्मा के सन्निधान से अपनी गति आरम्भ कर देता है।

बुद्धि चार प्रकार की होती है;

1) बुद्धि,
2) मेधा बुद्धि,
3) ऋतम्भरा बुद्धि और
4) प्रज्ञा बुद्धि।

बुद्धि वह होती है, जो यथार्थ निर्णय देने वाली हो। हमारे नेत्र के पिछले भाग में पीला पटल है, इस पीले पटल में तन्मात्राएँ लगी है। तन्मात्राओं के पश्चात मन है। मन का सम्बन्ध बुद्धि से है। इस प्रकार जो पदार्थ नेत्रों के समक्ष आता है, वह मन के द्वारा बुद्धि तक पहुचता है और हम यथार्थ निर्णय लेते है। इन्द्रिय जो भी कार्य करती है, तो वह सब विषय मन के द्वारा बुद्धि तक पहुँचते है और बुद्धि उनका निर्णयात्मक उत्तर देती है। जब मानव के ह्रदय में यह विचार आता है कि सब कुछ प्रभु का रचाया हुआ है और वह सर्वव्यापक हैं, तो इन्द्रिय किसी प्रकार का पाप नहीं कर सकती। परन्तु जो प्रभु को सर्वव्यापक कहते तो है, पर विश्वास नहीं करते, उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि वे पाप नहीं करेंगे।

मेधावी बुद्धि उसको कहते है, जिसके आने के पश्चात मानव के जन्म जन्मान्तरों के संस्कार जाग्रत हो जाते है। मेधावी बुद्धि का सम्बन्ध अंतरिक्ष से होता है। जो वाणी अंतरिक्ष में रमण करती है, मेधावी बुद्धि प्राप्त होने पर उसको जान लिया जाता है। मेधावी बुद्धि अंतरिक्ष में संसार के ज्ञान विज्ञान को देखा करती है कि यह संसार का विज्ञान और कौन कौन से वाक्य अंतरिक्ष में रमण कर रहे है। मेधावी बुद्धि उस विवेक का नाम है, जब मानव संसार से विवेकी होकर परमात्मा के रचाये हुए तत्वों पर विवेकी बनकर जाता है।

इस मेधावी बुद्धि का क्षेत्र है, पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की धाराए तथा खनिज, समुद्रो की तरंगो में रमण करने वाली धातुए तथा प्राणी, वायुमंडल में रमण करने वाले रजोगुणी, तमोगुणी तथा सतोगुणी परमाणु, इन परमाणुओ तथा वाणी का मंथन करना इसका क्षेत्र है। मानव मेधावी बुद्धि का विवेकी बनकर परमात्मा के रचाये हुए विज्ञान को जानता हुआ, यह आत्मा ऋतम्भरा बुद्धि के द्वार चली जाती है।

ऋतम्भरा बुद्धि उसको कहते है, जब मानव योगी और जिज्ञासु बनने के लिए परमात्मा की गोद में जाने के लिए लालयित होता है, तो वही मेधावी बुद्धि, ऋतम्भरा बुद्धि बन जाती है। पांचो प्राण ऋतम्भरा बुद्धि के अधीन हो जाते है। योगी जब इन पांचो प्राण को अपने अधीन करके उनसे मिलान कर लेता है, तो आत्मा इन प्राणो पर सवार हो जाती है और सर्वप्रथम मूलाधार में रमण करती है।

1. मूलाधार में लगभग 6 ग्रन्थियां लगी है, आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये ग्रन्थियां स्पष्ट हो जाती है, इस आत्मा का प्राणो के सहित आगे को उत्थान हो जाता है।

2. आगे चलकर यह आत्मा नाभि चक्र में आती है, जिसमें 12 ग्रथिया होती है, यह ग्रथि 72 करोड़ 72 लाख 10 हज़ार 2 सौ 2 नाड़ियों का समूह है। आत्मा के यहाँ पहुचने पर वे भी स्पष्ट हो जाती है।

3. इसके आगे यह आत्मा गंगा, यमुना, सरस्वती में स्नान करती हुई, ह्रदय चक्र में पहुचती है। इसको स्वाधिष्ठान चक्र या अविनाश चक्र भी कहते है। यह 24 ग्रथियो का समूह माना जाता है, आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये भी स्पष्ट हो जाता है।

4. इसके आगे यह आत्मा कंठ चक्र में जाती है, जिसे उदान चक्र या ब्राह्यी चक्र भी कहते है। इसमें लगभग 47 ग्रन्थियां होती है, आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये भी स्पष्ट हो जाता है।

5. इसके आगे यह आत्मा घ्राण चक्र में जाती है, आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये भी स्पष्ट हो जाती है।

6. आगे वह स्थान आता है जहाँ इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाम की नाड़ियां, जिन्हे गंगा, यमुना, सरस्वती भी कहते है, का मिलान होता है, इसे त्रिवेणी या आज्ञाचक्र भी कहते है।

7. आत्मा प्राणो सहित त्रिवेणी में स्नान करती हुई ब्रह्मरंध्र में पहुँचती है, उस स्थान पर सूर्य का प्रकाश भी फीका पड़ जाता है।

इतने प्रबल प्रकाश से आगे चलकर आत्मा रीढ़ में जाकर जहाँ कुंडली जाग्रत हो जाती है। इस कुंडली के जाग्रत होने का नाम ही परमात्मा से मिलान होना है।

प्रज्ञा बुद्धि, उस ऋषि को प्राप्त होती है, जो मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। हमारे कंठ के निचले भाग में ह्रदय चक्र होता है, उस चक्र में मेधावी बुद्धि का संक्षेप रमण रहता है। उसमें ब्रह्माण्ड के सारे के सारे ज्ञान और विज्ञान रमण करते है। जैसे अंतरिक्ष में हमारे वाक्य रमण करते है, उस विद्या से जो वाक्य हम उच्चारण करना चाहते है, वही वाक्य अंतरिक्ष से हमारे समीप आने लगते है। उसी वाक्य के आरम्भ होने को मेधावी बुद्धि का ” ऋद्धि भूषणम ” कहा जाता है। इस भूषण को धारण करने से मानव का जीवन विकाश-दायक बनता है। वह नाना प्रकार के छल, दम्भ, आडम्बर आदि से दूर हो जाता है और वह योगी त्रिकालदर्शी यानि भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनो कालों का ज्ञाता हो जाता है।

कुंडली में भाग्य भाव. (ज्योतिष)


कुंडली में भाग्य भाव.
(ज्योतिष)

प्रत्येक व्यक्ति मेहनत करता हैं, सभी को उन्नति की चाह भी रहती हैं, परन्तु चाहकर भी सभी व्यक्तियों को सभी कुछ नहीं मिलता। मेहनत और पुरुषार्थ को यदि भाग्य का साथ मिले तो व्यक्ति दिनों दिन सफलता की ऊंचाईयां चढ़ने लगता हैं। आप भी अपने भाग्य के सहयोग का लाभ उठा सकते हैं। कुछ लोग अपने जन्म के साथ ही मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा होते हैं।

ऐसे लोगों को सभी सुख-सुविधाएं सरलता से प्राप्त होती हैं। धन, उन्नति, सफलता और मान-सम्मान सभी ऐसे व्यक्ति के कदम चूमते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति भाग्य को बल प्रदान करने के लिए प्रयासरत रहता हैं। आज हम इस आलेख के द्वारा यह बताने जा रहे हैं कि अपने भाग्य को चमकाने के लिए आप क्या कर सकते हैं।

सर्वप्रथम यह देखते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भाग्य बली कब होता हैं। ऐसे कौन से योग होते है जिनके बाद व्यक्ति को रुके हुए कार्य स्वत: बनने लग जाते हैं।

भाग्योदय के ज्योतिषीय योग -

1. जन्मपत्री का नवम भाव भाग्य भाव कहलाता हैं। जब जन्मपत्री में भाग्य भाव का संबंध भाग्येश से बन रहा हों तो व्यक्ति को भाग्यशाली कहा जाता है। जिन व्यक्तियों की कुंड्ली में यह योग बन रहा होता है उन व्यक्तियों का कार्य सरलता से बनने लगते हैं। भाग्य का साथ मिले तो सब लोग जुड़ते हैं वरना सब दूर होते जाते हैं।

2. इसके अतिरिक्त भाग्य भाव में यदि उच्च, वर्गोंतम ग्रह स्थित हों तब भी भाग्य को मजबूत करता हैं। जब भाग्य भाव के स्वामी या भाग्य भाव में स्थित ग्रहों की दशा प्रभावी हों तो व्यक्ति को कार्यों में भाग्य का साथ मिलता हैं। भाग्य को मजबूत करने के लिए नवमेश का रत्न धारण करना चाहिए।

3. जन्मपत्री में नवमेश अष्टम भाव में स्थित हों तो व्यक्ति को भाग्य का सहयोग नहीं मिलता है। बार बार उसके जीवन में अनेक बाधाएं आती हैं।

4. नवमेश यदि षष्ट भाव में स्थित हों तो शत्रुओं के कारण लाभ की स्थिति बनती हैं। छ्ठे भाव में नवमेश की स्थिति उच्चस्थ हों तो व्यक्ति पर कभी कर्ज नहीं रहते हैं और विरोधी भी शांत रहते हैं। इस स्थिति का शुभ फल पाने क लिए नवमेश का रत्न धारण करने से बचना चाहिए।

5. नवमेश यदि चतुर्थ भाव में बली अवस्था में हों तो व्यक्ति को नवमेश का रत्न धारण करने से लाभ मिलता है। ऐसे में भाग्य का सहयोग प्राप्त होने से सफलता और उन्नति प्राप्त होती हैं। ऐसे व्यक्ति को भूमि भवन का के विषयों से लाभ मिलता हैं और समाज में व्यक्ति को सम्मान मिलता है। माता को आदर देना ऐसे व्यक्ति को सुख और सम्मान देता है।

6. नवमेश का नीचस्थ होने पर व्यक्ति को कभी भी नवमेश का रत्न धारण नहीं करना चाहिए, इसके स्थान पर नवमेश से संबंधित वस्तुओं का दान करना चाहिए। परन्तु नवमेश का उच्चस्थ होने पर रत्न धारण करना चाहिए और नवमेश की वस्तुओं का दान नहीं करना चाहिए।

7. धर्म भाव में गुरु ग्रह की स्थिति व्यक्ति को धार्मिक और कर्मवादी बनाती हैं। ऐसे व्यक्तियों को पुखराज रत्न धारण करने से यश और सुख की प्राप्ति होती हैं।

8. यदि भाग्य भाव में स्वराशिस्थ सूर्य या मंगल स्थित हों तो व्यक्ति को उच्च पद की प्राप्ति होती हैं। इस स्थिति में भाग्य को बेहतर करने के लिए रत्न धारण करने की जगह सूर्य व मंगल से जुड़े रंगों को अधिक से अधिक प्रयोग में लाना चाहिए।

भाग्यवृद्धि के उपाय

1. सुबह उठने पर सबसे पहले अपने दोनों हथेलियों के दर्शन करने चाहिए। ज्योतिष शास्त्र यह मानते है कि हथेलियों का दर्शन करने से धन, सम्मान, शिक्षा और सुख सभी प्राप्त होता है। साथ ही भाग्य भी चमकने लगता है। जिन व्यक्तियों को नौकरी में दिक्कतें आ रही हों या नौकरी नहीं मिल रही हों ऐसे व्यक्तियों को यह उपाय अवश्य करना चाहिए।

2. सुबह भगवान सूर्य के दर्शन और ताम्बे के पात्र में लाल रंग के फूल डालर सूर्य देव को अर्पित करने से भी भाग्योदय होता है। भाग्य को बेहतर करने का यह अचूक और सरल उपाय हैं। यह उपाय आत्मविश्वास में भी सुधार करता हैं।

3. भाग्य को मजबूत करने के लिए सूर्योदय से पूर्व उठे। स्नानादि से निवृत होकर ऐसे स्थान पर बैठ जाए जहां से सूर्य देव के दर्शन होते हों। ध्यान रखें कि आपका मुख पूर्व दिशा की ओर हों। उगते हुए सूर्य के दर्शन करें। कुछ पल सूर्य को देखते रहें। इससे भाग्य और तेज दोनों में सुधार होगा।

ऋतंभरा प्रज्ञा. (सदगुरु जग्गी वासुदेव)


ऋतंभरा प्रज्ञा.
(सदगुरु जग्गी वासुदेव)

सद्गुरु साझा कर रहें हैं अपने जीवन की एक बेहद रोचक घटना- उनके जीवन में एक पल ऐसा आया था, जब सब कुछ ध्वनि में बदल गया था। आइए सुनते हैं, उन्हीं के शब्दों में;
प्रकृति में भी और इस आधुनिक संसार में भी जबर्दस्त शोर हो रहा है। ये शोर या इसे गूंज कह सकते हैं, बड़ी शक्तिशाली है और लोगों के जीवन को प्रभावित करती है।
सद्‌गुरु: मेरे साथ एक बड़ी अनूठी घटना घटी। केदार के ऊपर एक जगह है जिसे कांति-सरोवर के नाम से जाना जाता है। प्राय: लोग वहां नहीं जाते हैं, वह बहुत घुमावदार चढ़ाई है। मैं कांति-सरोवर तक बस ट्रेकिंग करते हुए चला गया, और वहां जाकर एक पत्थर के ऊपर बैठ गया। इसे शब्दों में व्यक्त करना बहुत कठिन है, लेकिन कुछ समय के बाद ऐसा हुआ कि मेरे अनुभव में सब कुछ ध्वनि में बदल गया, मेरा शरीर, पहाड़, मेरे सामने का सरोवर, हर चीज ध्वनि बन गई। हर वस्तु ने ध्वनि का रूप ले लिया था और मेरे अंदर एक अलग तरीके से सब कुछ घटित हो रहा था। मैं वहां बैठा हूं, मेरा मुंह बंद था - मुझे यह स्पष्ट रूप से मालूम था - लेकिन मेरी खुद की आवाज में एक गीत बहुत ऊंचे स्वरों में गूंज रहा था, मानो किसी माइक्रोफोन से आ रहा हो, और यह गीत संस्कृत भाषा में है। हम लोग इसे एक साथ गाएंगे, बस मेरे पीछे-पीछे गाएँ, अपनी आंखें बंद कर लें। ध्वनि को महसूस करें और बस मेरे पीछे-पीछे गाएं। आप यह जान जाएंगे कि यह किस संबंध में है।

नाद ब्रह्म विश्वस्वरूपा
नाद ही सकल जीवरूपा
नाद ही कर्म, नाद ही धर्म
नाद ही बंधन, नाद ही मुक्ति
नाद ही शंकर, नाद ही शक्ति
नादम् नादम् सर्वम् नादम्
नादम् नादम् नादम् नादम्
वहां उस समय यह जबर्दस्त घटना घटी, और यह हर वक्त हो रही है। बस कोई सुनने वाला होना चाहिए। अभी अगर आप एक ट्रांजिस्टर रेडियो लाएं और एक खास आवृति या फ्रीक्वेंसी पर उसे ट्यून कर दें तो इसमें गाना बजने लगेगा। ये आप भी जानते हैं कि रेडियो नहीं गा सकता, गाना तो पहले से ही हवा में है। रेडियो तो केवल हवा में मौजूद ध्वनि की आवृति यानी फ्रिक्वेंसी को बदल रहा है। आपके सुनने की क्षमता से बाहर की फ्रिक्वेंसी को आपके सुनने की क्षमता वाली फ्रिक्वेंसी में बदल रहा है। रेडियो खुद नहीं गा सकता। ठीक यही बात टीवी के साथ भी है। यह तो बस एक आवृति वाले तरंगों को दूसरी आवृति वाले तरंगों में बदलकर उसे प्रसारित कर रहा है।
जीवन को रूपांतरित करने के लिए आपको सही तरह की ध्वनि पैदा करने की जरूरत है। इसके लिए एक तरह की ट्रेनिंग होती है, जिसे नाद योग कहते हैं। इससे आवाज को इस तरह संवारा जा सकता है कि अगर आप कोई ध्वनि निकालें तो वह आपके आसपास की स्थितियों को रूपांतरित कर दे
प्रकृति में भी और इस आधुनिक संसार में भी जबर्दस्त शोर हो रहा है। ये शोर या इसे गूंज कह सकते हैं, बड़ी शक्तिशाली है और लोगों के जीवन को प्रभावित करती है। ध्यानलिंग भी एक तरह से गुंजायमान हो रहा है यानी इसकी भी अपनी एक खास तरह की ध्वनि है। पर्वतों की भी अपनी खास तरह की एक ध्वनि है। यहां तक कि हर कंकड़ तक की अपनी एक ध्वनि है। उसी तरह हर आकृति की, जिसमें इंसान भी शामिल है, एक खास ध्वनि है। यही वजह है कि इस शरीर को हम इतना रगड़ते हैं। हर सुबह जब आप सूर्य नमस्कार करते हैं तो आप सोचते होंगे कि क्या वाकई इसकी जरुरत है? आपने देखा होगा कि शास्त्रीय गायक अपने वाद्य-यंत्र को ट्यून करने में कई घंटे लगाते हैं। स्टेज पर आने से पहले वे अपने यंत्र को ठीक तरह से ट्यून कर चुके होते हैं, फिर भी स्टेज पर आने के बाद वे फिर से उसे ट्यून करने लगते हैं। वो बार-बार उसे ट्यून करते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने सुनने की क्षमता को इतना बेहतर बना लिया है कि आवाज का जरा सा भी फर्क उनकी पकड़ में आ जाता है। यह सही है कि बहुत सारे लोगों को आवाज का यह फर्क पता भी नहीं चलेगा, लेकिन वे उसे फिर भी ठीक करते हैं। क्योंकि उस कमी को दूर करने से सिर्फ संगीत ही मधुर नहीं बनता, बल्कि खूबसूरत गूंज पैदा होती है और लोगों को एक खास किस्म का अनुभव होता है।

लोगों के जीवन को रूपांतरित करने के लिए आपको सही तरह की ध्वनि पैदा करने की जरूरत है। इसके लिए एक तरह की ट्रेनिंग होती है, जिसे नाद योग कहते हैं। इससे आवाज को इस तरह संवारा जा सकता है कि अगर आप कोई ध्वनि निकालें तो वह आपके आसपास की स्थितियों को रूपांतरित कर दे। यह बड़ा ही सूक्ष्म पहलू है। हो सकता है आप सोच रहे हों कि मैं अपनी आवाज को कैसे बदल सकता हूं? अगर जरूरी साधना की जाए तो हर कोई अपनी आवाज को बदल सकता है। तो हर सुबह जो आप अपने शरीर को गूंथते हैं, आसन करते हैं, सूर्य नमस्कार करते हैं, बाकी क्रियाएं करते हैं, वह इस शरीर को ऐसा बनाने के लिए है कि आपके शरीर से सही प्रकार की गूंज उत्पन्न हो।

घर में पेंट करवाना. (वास्तु विचार)


घर में पेंट करवाना.
(वास्तु विचार)

परिवार के सदस्यों में स्नेह बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि घर में सकारात्मक ऊर्जा हो। घर की सुख-शांति और सकारात्मक ऊर्जा को बनाए रखने के लिए वास्तु उपायों का सहारा सदैव से लिया जाता रहा है। वास्तुशास्त्र के अनुसार घर का वास्तु सम्मत होना घर को खुशहाल बनाता है।

यही वजह है कि घर का रख-रखाव वास्तु के अनुसार रखने का प्रयास किया जाता है। यदि घर में किसी भी तरह का वास्तु दोष हो तो घर में रहने वाले सदस्यों का स्वास्थ्य, उन्नति और प्रसन्नता अनुकूल नहीं रहती है। सारे घर को वास्तु सम्मत बनाना सभी के लिए संभव नहीं हैं|

ऐसे में वास्तु के कुछ सामान्य टिप्स का प्रयोग कर भी सुख की सुख-शांति को बेहतर किया जा सकता है। आज इस आलेख में हम आपको ऐसे ही कुछ टिप्स बताने जा रहे हैं जिनके प्रयोग से आप अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव कर सकते हैं-

घर का मुख्य द्वार यदि पूर्व दिशा में हों तो घर के गेट का रंग सुनहरा या नारंगी होना चाहिए। यदि गेट को इस रंग से रंगवाना संभव ना हों तो गेट पर इस रंग की कोई फोटो भी लगवाई जा सकती है। इससे कुछ सकारात्मक बदलाव अवश्य होगा। दक्षिण दिशा में मुख्य द्वार का गेट होने पर गेट के लिए सही रंग काला, ब्राउन अथवा गहरा बैंगनी होता है।

उत्तर दिशा में मुख्य द्वार होने पर गेट का रंग नीला या आसमानी होना चाहिए। पश्चिम दिशा के गेट को सफेद या पीला रंग करवाना चाहिए। उत्तर-पूर्व दिशा में होने पर गेट की स्थिति हैं तो उसे सफेद या आफ व्हाईट करवाना सही रहेगा।

1. यह तो रही मुख्य द्वार के गेट के रंग की बात। आईये अब जानें कि घर की दीवारें किस रंग की होनी चाहिए|

2. घर के स्वागत कक्ष की दीवारों पर पीला रंग करवाना सही रहता है। कार्यालय्य और स्वागत कक्ष को पीले रंग से सजाना शुभता देता है।

3. घर-परिवार में किसी भी तरह की आर्थिक दिक्कत आ रही हों तो घर के उत्तरी भाग की दीवारों को हरे रंग से रंगवाना चाहिए। यह रंग इस दिशा के लिए बहुत शुभ रहता है।

4 .इसके अलावा उत्तर भाग की दीवारों पर आप आसमानी रंग भी करा सकती है।

5. घर में जितने भी दरवाजे और खिड़कियां हों उन सभी को गहरे ब्राउन रंग से सजाना चाहिए।

6. पश्चिम दिशा की दीवारों पर हल्के रंग का प्रयोग करें।

7. दक्षिण पश्चिम दिशा की दीवारों पर गुलाबी या हल्के ब्राउन रंग करायें।

8. घर के मुख्य शयनकक्ष को घर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में होना शुभ माना जाता है। इसके साथ ही इस भाग की दीवारों पर नीला रंग उपयुक्त रहता है।

9. मेहमानों के कमरे के इए सफेद रंग का प्रयोग करना चाहिए और यह कमरा उत्तर-पश्चिम दिशा में सबसे अधिक ठीक रहता है।

10. घर में यदि पढ़ाई करने वाले बच्चे हैं तो अध्ययन कक्ष के लिए घर की उत्तर-पश्चिम दिशा के भाग का प्रयोग करें और उसमें सफेद रंग करायें।

11. रसोईघर की दीवारों पर संतरी अथवा लाल रंग करावायें।

12. उत्तर-पश्चिम दिशा को आप बाथरुम के लिए प्रयोग करें और सफेद रंग करायें।

13 .घर के हाल को पूर्व-पश्चिम या पूर्व-दक्षिण दिशा में बनवायें और इस पर पीला या सफेद रंग कराना सही रहेगा।

14. घर की बाहरी दीवारों का रंग हल्का गुलाबी या हल्का पीला हो सकता है।

१५. वास्तु शास्त्र के अनुसार यह माना जाता है कि गहरा नीला, काला या गहरा लाल रंग घर में नहीं कराना चाहिए। इससे पारिवारिक सदस्यों का जीवन बाधित होता है।

कविता-भजन- मन राम कृष्ण बोल..


कविता-भजन-
 मन राम कृष्ण बोल..

हीरा जैसी श्वांस बातों में बीती जाय रे ,
 मन राम कृष्ण बोल

गंगा यमुना खूब नहाया गया न मन का मैल

घर-धंधों में लगा हुआ है ज्यों कोल्हू का बैल

तेरे जीवन की आशा बातों में बीती जाय रे

 मन राम कृष्ण बोल

किया न पौरुष आकर जग में दिया न कुछ भी दान

तेरा-मेरा करता-करता निकल गया यह प्राण

जैसे पानी बीच बताशा बातों में बीती जाय रे
,
 मन राम कृष्ण बोल

पाप गठरिया सिर पर लादे रहा भटकता रोज
,
प्रेम सहित राधा माधव का किया न कुछ भी खोज

झूठा करता रहा तमाशा, बातों में बीती जाय रे
,
मन राम कृष्ण बोल

नस-नस में प्रीत, रोम-रोम में राम बसा है जान

प्रकृत बिन्दुके कण-कण में उसको तू पहचान

उससे मिलने की अभिलाषा बातों में बीती जाय रे
,
 मन राम कृष्ण बोल

मांगलिक दोष. (ज्योतिष)


मांगलिक दोष.
(ज्योतिष)

जब किसी व्यक्ति की कुंडली में मंगल जन्मपत्री के प्रथम भाव, चतुर्थ भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव और द्वादश भाव में होता हैं तो व्यक्ति मांगलिक कहलाता है। मंगल दोष की गणना विशेष ज्योतिषीय योगों में की जाती हैं।

मंगल दोष व्यक्ति के जीवन, स्वभाव, वैवाहिक जीवन स्थिति और अनेक अन्य विषयों को प्रभावित करता हैं। सभी ग्रहों में मंगल ऊर्जा शक्ति, आवेश, जोश और उत्साह के कारक ग्रह हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह माना जाता है कि मंगल ग्रह की शुभता व्यक्ति में यह सभी गुण प्रदान करती हैं।

मांगलिक दोष गृहस्थ जीवन में तनाव और कष्ट देने वाला कहा गया है, परन्तु इस निर्णय पर पहुंचने के लिए मंगल के साथ अन्य ग्रहों की स्थिति का भी विचार किया जाता हैं। किसी व्यक्ति विशेष की कुंडली में मंगल योग कितना प्रभावी हैं, यह इस बात कर निर्भर करता है कि मंगल किस भाव में हैं और उसका अन्य ग्रहों से किस प्रकार की स्थिति बनी हुई हैं।

1. प्रथम भाव में मंगल हों तो व्यक्ति के स्वभाव में आक्रोश, क्रोध और तनाव देता है। प्रथम भाव से मंगल सप्तम भाव को दृष्टि देता हैं। इससे दोनों में आपसी तनाव, मतभेद और विवाद की स्थिति बनती हैं।

2. चतुर्थ भाव में मंगल की स्थिति होने पर धन, करियर और आर्थिक स्थिति प्रभावित होती हैं तथा जीवन साथी के आजीविका क्षेत्र में स्थायित्व आता है। मंगल की यह स्थिति पति-पत्नी में अनावश्यक संघर्ष कराती है। कई बार अनावश्यक शारीरिक हानि की स्थिति भी बन जाती है। इसके अतिरिक्त यह वैवाहिक जीवन के अलावा जीवन की अन्य गतिविधियों को भी प्रभावित करता है। पहले घर में मंगल की स्थिति व्यक्ति को क्रोध और आवेशी बनाती है। यहां से इसका सीधा प्रभाव सप्तम भाव पर पड़ता हैं जिसके फलस्वरुप वैवाहिक जीवन कष्टमय बनता है।

3. दक्षिण भारतीय मत के अनुसार मंगल का दूसरे भाव में होना भी मंगलिक योग बनाता है। जन्मपत्री का दूसरा भाव जीवन साथी की आयु का होता है, यहां मंगल की स्थिति व्यक्ति के ससुराल पक्ष से संबंध खराब करती हैं। जीवन साथी की आयु में इसकी वजह से प्रभावित होती है।

4. जन्मपत्री में मंगल का चतुर्थ भाव में होना व्यक्ति सुख और शांति में कमी करता है। चतुर्थ भाव क्योंकि घर और सुख का होता है अत: यहां से जीवन साथी अपने पेशेवर जीवन में नकारात्मक हो जाता है।

5. सप्तम भाव जीवन साथी का भाव होता है। इस भाव में मंगल होने पर वैवाहिक जीवन में वाद-विवाद, तनाव और आक्रोश की स्थिति देता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन साथी जल्द क्रोध करने वाला होता है।

6. आठवें भाव में मंगल होना भी मांगलिक योग बनाता है। आठवां भाव ससुराल पक्ष और जीवन साथी की वाणी का होता है। वाणी में नियंत्रण ना होने के कारण वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण होता है। इससे एक ओर तो ससुराल से रिश्ते खराब होते हैं दूसरी ओर आयु पर भी प्रभाव पड़ता है।

7. जिन व्यक्तियों की कुंडली में मंगल बारहवें भाव में होता हैं उस व्यक्ति को वैवाहिक जीवन में शयन कक्ष में तनाव और विवाद का सामना करना पड़ता है। शयन सुख में कमी होने पर आपसी तालमेल कमजोर होता है। जिन व्यक्तियों की कुंडली में मंगल दोष बन रहा होता है उन व्यक्तियों को अपने जीवन साथी के साथ समझौता करने और समायोजन करने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।

मंगल योग से प्रभावित व्यक्ति को धन से जुड़ी परेशानियां होती हैं। मंगल दोष से व्यक्ति में क्रोध और आक्रोश अधिक होता है।

मंगल दोष निवारण के उपाय.

1. मंगलवार का व्रत पालन करने पर मांगलिक दोष का प्रभाव कम होता है।

2. वर-वधू दोनों मांगलिक हों तो इस दोष का परिहार स्वयं ही हो जाता है।

3. राम भक्त हनुमान जी का नित्य दर्शन पूजन करना वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाता है।

युग-धर्म के निर्वाह में ही समझदारी.


युग-धर्म के निर्वाह में ही समझदारी.

उत्सव आयोजनों, निर्माणों, दुर्घटनाओं प्रकृति प्रकोपों जैसे अवसरों पर संबंधित व्यक्ति ही नहीं, अन्य भावनाशील भी उन कार्यों में सहयोगी बनने के लिए अनायास ही दौड़ पड़ते है। इसके लिए निमंत्रण देने, बुलाने के लिए नहीं जाना पड़ता। दर्शकों तक की क्रियाशीलता उभर पड़ती हे और वे अपने योग्य काम तलाश कर स्वयं ही कुछ न कुछ करने लगते हैं। मेलों में जब सर्वत्र हलचलें दीख पड़ती है तो वहाँ जा पहुँचने वाले भी चुपचाप बैठे नहीं रहते वरन् कहाँ क्या हो रहा हे यह देखने के लिए चल तो पड़ते ही है। अरुणोदय, प्रभात बेला में भी सर्वत्र हलचलें दीख पड़ती है। पक्षी चहचहाने पुष्प खिलने और प्राणी समुदाय उदीयमान ऊर्जा से अनुप्राणित होकर अपने-अपने स्तर की क्रियाशीलता का परिचय देने लगते है। मदारी, सपेरे और बाजीगर जब कुछ कौतुक दिखाने लगते है तब भी बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के ठट्ठ जमा हो जाते हैं और जरूरी काम छोड़कर भी उस अभिनव क्रिया−कलाप में रस लेने लगते हैं।

युग परिवर्तन की बेला भी ऐसी ही हे जिसमें बहुमुखी परिवर्तन दृष्टिगोचर होंगे। बीन बजने पर सर्प लहराने लगते है। मेघ गर्जन पर मोरों का नाचना आरम्भ हो जाता हे। बसंत उभरा देखकर तितलियाँ, भौंरों से लेकर कोयलों तक की चित्र-विचित्र हलचलें दीख पड़ती है। लगता है उनको भाव-संवेदनाएँ अवसर के अनुकूल उत्तेजित करती और कुछ न कुछ करने के लिए जुटा देती है। युद्ध के नगाड़े बजाने पर सैनिकों की भुजाएँ फड़कती है। सावन आते ही गीत-मलहारों की धूम मच जाती हे। भोर का प्रकाश आरंभ होते ही सभी की नींद खुल जाती है और नित्य कर्म से निबटकर ताजगी अनुभव करने और निर्धारित क्रिया–कलापों में जुटते सभी को देखा जाता है। जुलूस को आरंभ करने में ही कुछ जुगाड़ बिठाना पड़ता हे पीछे तो रास्ता चलते लोग साथ हो लेते है और प्रमुखों की तरह ही प्रदर्शन करने और नारे लगाने लगते है। नदी के प्रवाह में कूड़ा-करकट भी बहता हे। अन्धड़ के साथ तिनके-पते भी घोड़े की चाल दौड़ने लगते है।

युग सृजन बड़ा काम हे। इसमें जीर्ण-शीर्ण खण्डहरों को उखाड़ा और उनके स्थान पर भव्य भवन खड़ा किया जाना हे। दिवाली पर घर का कूड़ा-कचरा तो बुहारा ही जाता हे साथ ही पुताई रंगाई के अतिरिक्त सजावट के लिए भी मन हुलसता हे। युगसंधि को ऐसी ही हलचलों से भरा पूरा मानना चाहिए। प्रस्तुत दस वर्षों के उपरान्त नये दृश्यों, विधानों और क्रिया–कलापों का सिलसिला चल पड़ेगा। मुर्दों के साथ श्मशान तक भी भीड़ जाती है और बारात के आगमन पर दूल्हा को देखने के लिए भी लोग काम छोड़कर बारात पर टकटकी लगाते हैं। प्रस्तुत परिवर्तन अभूतपूर्व ही होने जा रहा हैं। इसमें आश्चर्य का गहरा पुट रहेगा। जीवित लोगों में से इस प्रकार की महान क्रान्ति कदाचित ही किसी को देखने को मिली होगी। स्थानीय और क्षेत्रीय घटनाएँ आश्चर्यजनक होती भी रहती हैं। पर जिनका प्रभाव विश्व के कोने-कोने पर पड़े और प्राणियों के चिन्तन, क्रिया–कलापों में असाधारण अन्तर आये ऐसी कुछ कल्पना तो की जा सकती है पर उतनी व्यापक उथल-पुथल का घटनाक्रम तो असंभव जैसा ही लगता है। आज जबकि हर दिशा में अवांछनीयता का बोलबाला है इस बात पर कौन भरोसा करेगा कि वह परिवर्तन आँखों को देखने को मिलेगा जिसके असंख्यों स्वप्न तो सँजोये पर कुछ बन न पहने के कारण निराश होकर ही चले आये।

अब की बार बात दूसरी है। इस भवितव्यता के पीछे सृष्टा की योजना, चेतना और प्रेरणा जो काम कर रही है। उसका संकेत पाकर तो “मूक होंहि वाचाल -पंभु चढ़हिं गिरिवर गहन” वाली उक्ति चरितार्थ होने लगती है। बीज को वृक्ष और भ्रूण को समर्थ जीवधारी बना देने वाले कौतुकी के लिए क्या कुछ असंभव हो सकता है। जो रात को दिन में बदल सकता है उसके लिए युग परिवर्तन क्यों कुछ कठिन होना चाहिए। भूतकाल में भी ऐसे परिवर्तन होते रहने की गाथाएँ और साक्षियाँ देखने सुनने को मिलती रहती हैं।

बसन्त की बेला फूल ही नहीं खिलाती, प्राणियों में ऐसा आन्तरिक उल्लास भी उभारती है जो उन्हें प्रजनन-कृत्य में संलग्न होने को विवश करता है। आन्तरिक उमंगें जब उठती हैं तब ऐसा नियोजित और घटित होने लगता है जिसे देखने वाले आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहते। इन दिनों भी ऐसा ही कुछ दीख पड़े तो उसे अप्रत्याशित नहीं मानने चाहिए।

भूमिपूजन, शिलान्यास, शुभारंभ तो आदर्शनिष्ठ व लोकसेवी अपने ढंग से अपनी छोटी हैसियत के अनुरूप छोटे स्तर पर कर रहे हैं। पर वह महान प्रक्रिया इतने छोटे परिकर तक ही सीमाबद्ध होकर नहीं रहने वाली है। चिनगारी, दावानल बनते देखी जाने वाली है। बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन एवं गाँधी के सत्याग्रह का आरंभ छोटा और क्रमिक विस्तार कितना हुआ था, इसे हम सभी जानते हैं। ईसा ने शरीर त्यागने के उपरान्त भी करोड़ों को अनुयायी बना लेने की भूमिका निभाई। साम्यवाद, प्रजातंत्र के जन्मदाता भी मात्र आरंभिक प्रतिपादन ही कर सके थे। उन मान्यताओं का विस्तार तो उनने किया जिनने उन्हें अन्तर की गहराई में प्रतिष्ठित कर लिया था।

युग सृजन की प्रारंभिक भूमिका विचारशील वर्ग को दीप्तिमान करती है। प्रतिभाएँ ही अग्रिम पंक्ति में खड़ी होती हैं। साहस और पराक्रम के आधार पर ऐसे आदर्श उपस्थित करती हैं। जिनका अनुगमन करने में अनेकों के पैर सहज ही आगे बढ़ने लगें। प्रथम चरण विचार क्रान्ति है। जो चल रहा है उसमें से अधिकाँश सड़ा-गला है। इसे बुहारना हटाना तो पड़ेगा ही, साथ ही उसे प्रस्तुत-उपस्थित भी करना होगा, जिसकी समय को अनिवार्य आवश्यकता है। इसके लिए लेखनी, वाणी, कला जैसे अनेकों विचारों के प्रभावित करने वाले तब के अग्रिम मोर्चा सँभालेंगे। लोगों को सोचने के लिए बाधित करेंगे कि जो अपना लिया गया है वह न तो उचित है और न श्रेयस्कर। इसके स्थान पर वही प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए जो यथार्थता, उपयोगिता, दूरदर्शिता और आदर्शवादिता के साथ जुड़ा हुआ है।

अवांछनीय प्रचलनों की आदतों को छोड़े बिना कोई गति नहीं। नशेबाजी चाहे कितनी ही पुरानी क्यों न हो उसे छोड़े बिना कोई गति नहीं हैं आलस्य और प्रसाद का उपभोग भले ही चिरकाल से स्वभाव में सम्मिलित रहता चला आया हो पर जब प्रगति की आवश्यकता अनुभव हो तो उन्हें छोड़ना ही पड़ेगा। लोगों में लालच-संग्रह की, बड़प्पन-प्रदर्शन के लिए आतुर अहंकार की प्रवृत्तियाँ स्वभाव का अंग बनकर रह रही हैं। थोड़े लोगों के कुटुम्ब का स्वार्थ साध नहीं समस्त विश्व के हित अधिक बटोरने और उसका अपव्यय दुरुपयोग करके बिखेरते रहने की आदतें स्वभाव में घुस पड़ी है। इन्हें हटाये बिना किसी को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहला सकने का अवसर मिलता ही नहीं। मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का संयम रखकर ही कोई इस योग्य बन सकता है कि विश्व वसुधा की सेवा साधना में समर्थ हो सके। औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में संतोष करने के उपरान्त ही ऐसा कुछ बन पड़ता है जिसे युग देवता के चरणों में समर्पित किया जा सके और वातावरण को नन्दन वन जैसा सुरभित बनाया जा सके।

जिनके पास अतिरिक्त सामर्थ्य है उनके ऊपर अतिरिक्त जिम्मेदारियाँ भी आती हैं और उनका उपयोग युग परिवर्तन जैसे महान प्रयोजनों में बन पड़ने की आशा अपेक्षा तो की ही जाती है। जिनके पास भाव संवेदना का कोई कहने लायक अंश विद्यमान होगा वे अपनी विचार शक्ति का भरपूर उपयोग दिग्भ्रान्तों को सही रास्ते पर लगाने के लिये करेगा। वह कैसा ज्ञानी अपने बुद्धि कौशल का उपयोग मात्र धन सम्पदा एकत्रित करने में ही लगता रहे। इसके लिए अनुचित मार्ग तक अपनाये और दूसरों को भी अपने भटकावे में सहयोगी बनाये। मनीषियों का प्रथम वर्ग है जिसे लोक चेतना की उत्कृष्टता की दिशा में उछालने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करना चाहिए। विचार क्रान्ति का अधिक दायित्व उन्हीं के कंधों पर है। युग साहित्य का सृजन, मार्गदर्शन, विचार विनिमय जैसे कृत्य आदि अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए किये जा सकें तो उसका प्रतिफल उच्चस्तरीय हुए बिना रह ही नहीं सकता। प्रज्ञा पुत्रों का प्रथम और प्रमुख यही कार्य है कि वे नवयुग के अनुरूप दृष्टिकोण, भावसंवेदना और साहस उत्पन्न करने में कमी न रखें। तद्नुरूप वातावरण बनाने में प्राणपण से जुट पड़ें।

जिनके पास पैसा है वे उसे विलास के लिए संग्रह के लिए उत्तराधिकारियों के लिए और ठाटबाट के लिए खर्च न करे। वरन् उन पुण्य-प्रयोजनों के लिये लगायें जो गिरों को उठाने और उठों को उछालने में अपनी सार्थकता सिद्ध करें।

जो जा रहा है उसकी पूँछ पकड़ने से कुछ लाभ नहीं। जो आ रहा है और स्थिर रहने वाला है उसी की आरती उतारना दूरदर्शिता है। पिछले दिनों आसुरी सभ्यता का बोलबाला रहा है। उसी ने तथाकथित समर्थों को बुरी तरह भ्रमाया और नचाया है। इस कुचक्र से उन्होंने लाभ भी उठाया है भले ही उसने उन्हें तथा सहभागियों को सड़ा गला कर बर्बाद कर दिया हो। यह ग्रहण काल जैसे अनर्थ अब बिदा होने जा रहा है। उसका साथ समय रहते छोड़ देने में भलाई है। भलाई इसमें भी है कि जिस शालीनता के प्रतिष्ठित होने का समय आ रहा है उसके अनुरूप अपनी रीति-नीति को परिवर्तित कर लिया जाय। इस परिवर्तित में प्रतिभाओं को अग्रणी बनना चाहिए। प्रचलन से विरत होकर यदि प्रगतिशीलता अपनाने में कुछ घाटा दीखता हो तो उसको वरण नहीं करनी चाहिए। समय के अनुरूप बदलने में जो उत्साह का परिचय देते है उनका अग्रगमन हर दृष्टि से हर किसी के लिये श्रेयस्कर ही सिद्ध होता है। भोर होने से पहले बाँग लगाने वाला मुर्गा अकिंचन पक्षी होते हुए भी सर्वत्र चर्चा का विषय रहता है और अपनी दूरदर्शिता के कारण सराहा भी जाता है।

इन दिनों पाश्चात्य भौतिकवाद हर किसी के सिर पर चढ़ा है। विज्ञान क्षेत्र में उसने जो उपलब्धियाँ हस्तगत की है उसी के सहारे उसकी साख जम गई है और समर्थों के अनुकरण की परम्परा बन गई है। यह इन्द्रधनुषी आकर्षण है तो बहुत, पर नियति के साथ जुड़ा हुआ न होने से उनमें स्थायित्व नहीं है। कुकुरमुत्ते बरसात के दिनों उग तो सड़े कचरे में भी जाते है पर उनकी छायादार विशालता का लाभ किसी ने नहीं उठाया। समझा जाना चाहिए कि इन दिनों जिस प्रपंच का बोलबाला ह। वह बरसाती नदी की तरह अपना उफान देर तक बनाये न रह सकेगा। ऐसे नाले कुछ ही दिनों में तली तक पहुँच कर सुख जाते है। अवांछनीयता और कुप्रचलनों की तूती देर तक नहीं बोलती रह सकती।

सात्विकता और शालीनता में ही स्थिरता रही है। देव पक्ष ही स्थिर रहता और पूजनीय बनता है। भूत पलीत तो थोड़े समय उपद्रव खड़ा करते और सदा के लिए समाप्त हो जाते है। प्रपंचों में ओत-प्रोत चतुरता गुब्बारे की तरह कुछ ही समय तक फूली हुई और आकाश में उड़ती हुई दीख सकती है पर वह स्वरूप स्थिर कहाँ रह सकता है। पानी के बबूले की उछल-कूद कुछ ही क्षण रहती है। टिकाऊपन तो हिम प्रदेश से झरने वालों झरनों में ही होता है। वे स्वयं शोभायमान लगते और असंख्यों की प्यास बुझाने की क्षमता धारण किये रहते हैं। समझना चाहिए कि देव स्तर की शालीनता को अपनाने, तदनुरूप ढलने और ढालने में ही कल्याण है। विचारवानों को समय रहते अपनी गतिविधियों में ऐसा परिवर्तित कर लेना चाहिए जिसमें लाभान्वित रहने और रखने के उभयपक्षीय प्रयोजन सिद्ध होते रहें। उपलब्ध क्षमताओं को नव सृजन के पुण्य प्रयोजन के लिए नियोजित करना ही अपने समय की सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। चूक जाने पर तो पश्चाताप ही हाथ रहेगा और घाटा उठाने का परिताप भी भुगतान पड़ेगा।



(अखंड ज्योति-12/1990)

नवग्रहों की शांति के उपाय. (ज्योतिष)


नवग्रहों की शांति के उपाय.
(ज्योतिष)

सौर मण्डल के ग्रहों का सभी प्राणियों पर राशि चक्र के अनुसार अच्छा बुरा प्रभाव निरंतर पड़ता रहता है। जन्म लग्न, दशा महादशा, अंतर्दशा तथा प्रत्यंतरों का प्रभाव अवश्य फल दिखाता है। नाम राशि के अनुसार भी गोचर के ग्रह अपना प्रभाव दैनन्दिनी के अनुसार दिखाते हैं। लग्न, जन्मराशि तथा नाम राशि से चौथे, आठवें, बारहवें स्थान की स्थिति का प्रभाव सभी पर पड़ता है। प्रधानतः नो ग्रहों के दुष्प्रभाव को शांत करने के लिए क्रमशः कुछ उपाय निर्देशित कर रहे हैं कृपया इनका लाभ सभी सज्जनवृन्द उठायेंगे।

सूर्य को प्रसन्न करने लिए शिक्षित लोगों को आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए। माता-पिता की सेवा तथा सूर्य को अर्घ, जल में रोली तथा लाल पुष्प डालकर देना चाहिए। सोना-तांबा तथा चीनी-गुड़ का दान भी करें सूर्योदय से पूर्व उठें तथा रविवार का व्रत करें। नमक का परहेज करें बुजुर्गों का सम्मान करें तथा उनकी परंपरा को सम्मानपूर्वक निभाएं।

चंद्रमा को प्रसन्न करने के लिए भगवान चंद्रमोजिशिव का ''ऊँ नमः शिवाय'' मंत्र का जप करें। पानी वाला नारियल, सफेद चंदन तथा चांदी का चंद्रमा, विल्बपत्र, सफेद मिष्ठान का भगवान शंकर को भोग लगावें। सोमवार का व्रत करें तथा सफेद वस्त्र का दान करें, पहाड़ों की यात्रा करें तथा माता के चरणछूकर आशीर्वाद प्राप्त करें।

मंगल की प्रसन्नार्थ श्रीहनुमान भगवान को चमेली का तेल सिंदूर, शुद्ध घी में चोला चढ़ाएं तथा मंगल स्तोत्र का पाठ करें, इमरती, जलेवी बूंदी तथा चूरमे का प्रसाद अर्पण करें। भाइयों के समक्ष छवि ठीक रखें। मंगलवार का व्रत करें। पड़ोसियों, मित्रों तथा साथ में काम करने वालो से अच्छा व्यवहार रखें।

बुध ग्रह की प्रसन्नता के लिए भगवती दुर्गा की पूजार्चना करनी चाहिए। किन्नरों की सेवा करनी चाहिए। हरे मूंग भिगोकर पक्षियों को दाना डालें। पालक या हरा चारा गायों को खिलाएं। पक्षियों विशेष कर तोतों को पिजरों से स्वतंत्रता दिलावें। नौ वर्ष से छोटी कन्याओं के पद प्रक्षालन अर्थात पैर धोकर उनको प्रणाम करके आशीर्वाद प्राप्त करें। बुधवार का व्रत रखें, मां भगवती दुर्गा का पूजार्चन करें। मंत्रानुष्ठान ह्वन करके बुध की अनुकंपा प्राप्त करें। बृहस्पति देव गुरु की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मणों का सम्मान करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। चने की दाल तथा केशर का मंदिर में दान करें, केशर का तिलक मस्तक पर लगाएं एवं ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों का योग्य व्यक्तियों को दान करें। भगवान ब्रह्मा का केले से पूजन करें तथा कुल पुरोहित का सम्मान करके आशीर्वाद प्राप्त करें एवं यथा शक्ति स्वर्ण का दान करें।

शुक्र ग्रह की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए कनकधारा महालक्ष्मी का दैनिक पाठ करना चाहिए। वस्त्र स्वच्छ पहनने चाहिए तथा पत्नी का सम्मान करना चाहिए। गोमाता की सेवा तथा गोशाला में गुड़, चरी हराचारा, चने की दाल गायों को खिलाएं। विशेषरूप से श्रीविद्या का पूजन कराएं। एकाक्षी ब्राह्मण को कांशी के कटोरे में खीर खिलाकर दक्षिणा देकर आशीर्वाद प्राप्त करें। विशेष परिस्थिति में रोग हो तो मृत संजीवनी का मंत्र जप कराएं। संयम से रहें। व्यसनों से बचें।

शनि ग्रह की प्रसन्नतार्थ पीपल तथा भैरव का पूजन करें इमरती उड़द की दाल, दही बड़े, भैरव जी को चढ़ावें व बांटे। मजदूरों को तला हुआ सामान बांटे। शनिवार का व्रत करें। ताऊ, चाचा से अच्छे संबंध बनाये रखें। श्री हनुमान चालीसा तथा सुंदरकांड का नियमित पाठ करें। शनिवार को तिल के तेल का शनि पर अभिषेक करें, दक्षिणा दें।

राहू की प्रसन्नता के लिए माता सरस्वती का पाठ-पूजन करना चाहिए, रसोई में बने हुए भोजन का प्रातः जलपान करें। पूर्णतया शाकाहारी रहना चाहिए। किसी भी प्रकार का बिजली का सामान इकट्ठा न होने दें तथा बिजली का सामान मुफ्त में न लें, नानाजी से संबंध रखें, अश्लील पुस्तक बिल्कुल न पढ़ें।

केतु ग्रह की अनुकूलता के लिए भगवान श्रीगणेश जी का पूजार्चन करना चाहिए। बच्चों को केले तथा कुत्तों को तेल लगाकर रोटी खिलानी चाहिए। कुत्तों को चोट भी न मारें। मामाजी की सेवा करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। किसी भी धर्मस्थल पर ध्वजा (झंडा) चढ़ाएं। वर्षफल में मुंथा श्रेष्ठ नहीं हो तो उसी ग्रह का उपाय करना चाहिए जिस ग्रह की राशि में मुंथा स्थित है।

उक्त उपायों के करने से आपको अवश्य सफलता शांति तथा उत्साह मिलेगा, इसमें कोई संशय नहीं समझना चाहिए।

क्षमतावान् नहीं, प्रतिभावान.


क्षमतावान् नहीं, प्रतिभावान.

वह आगन्तुकों से लिपट कर रो पड़े। अन्तर की संवेदना आँसू बन कर झरने लगी। यों वह शान्त और अपने में खोए से रहने वाले व्यक्ति थे। हाँ बच्चों से जरूर हँसते, मिलते, बोलते, खेलते थे। कहा करते थे इन सीधे, सरल, निश्छल बालकों के बीच उन्हें जितनी शान्ति अनुभव होती हे उतनी और कहीं नहीं। शायद इसी शोक ने, न शोक नहीं चिरन्तन आवश्यकता, हाँ। इसी के कारण विगत कुछ वर्षों से एक छोटे से स्कूल में बच्चों को पढ़ाने लगे थे। अन्यथा क्या कुछ नहीं था उनके पास विश्व विश्रुत वैज्ञानिक होने का लोक सम्मान। जिस राष्ट्र जिस देश में जाएँ वहीं देखने-मिलने वालों की भीड़ उमड़ पड़े। मोटर, कोठी, नौकर चाकर सभी कुछ तो था उनके पास।

पर सभी कुछ तो छोड़ दिया उनने। जब छोड़ा तो मिलने-जुलने वालों ने सनकी-पागल कहा-सामने नहीं तो चोरी-छुपे साथी वैज्ञानिकों ने कहा कि वह अपनी प्रतिभा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। किन्तु वह इन विविध तर्कों से उलझनें कब सुलझी हैं। तर्क अर्थात् उलझाव से और अधिक उलझाव की ओर। सत्य हृदय को सम्पदा हे, भावों की पेटी में छुपी। बुद्धि तरह-तरह के प्रश्न-प्रतिप्रश्न खड़े कर महत्त्वाकाँक्षाओं के लुभावने आकर्षण दिखाकर सत्य से विरत करती हे। होश तो तब आए जब उसे ध्यान आए कि वह मनुष्य हे। कितना दुर्लभ हे यह ख्याल वह-वैज्ञानिक हे, डॉक्टर हे, प्रोफेसर हे, व्यापारी हे, राजनेता हे, प्रशासनिक अधिकारी हे, विद्वान हे, बुद्धिमान हे, कवि, लेखक क्या कुछ नहीं हे, नहीं हे तो सिर्फ मनुष्य।

वह भी मनुष्य को छोड़ इन्हीं में से एक था। उसी के एक आविष्कार ने द्वितीय विश्वयुद्ध में...... उफ......। आगन्तुक भी जापानी ही थे। जापान में ही तो ..... साकार हो उठा अतीत कल्पना के नेत्रों के सामने। एक-एक करके उभरने लगे दृश्य। एक तेज विस्फोट अनेकों सूर्य एक साथ प्रकाशित हो उठे। भीषण गर्मी, छटपटाते मनुष्य, पशु-पक्षी कुछ भी तो नहीं बचा। ध्वंस ही ध्वंस खिले चमन उजड़ गए। और उजाड़ने वाला सम्मानित हुआ, प्रशंसित हुआ। किसने किया यह सब .....एक बेअकल ने। किन्तु उसकी मंशा तो यह नहीं थी। उसने आविष्कार तो इसलिए किया था कि परमाणु ऊर्जा से जगमगा उठेंगे नगर-ग्राम लोक जीवन की आवश्यकताएँ पूरी होगी। किन्तु जीवन और जीवन की आवश्यकताओं में प्रथम कौन? हाँ यहीं तो उससे गलती हुई और तब से वह अपनी भूल का प्रायश्चित कर रहा था।

आप कुछ अस्वस्थ लग रहे है मित्र। आने वालों में से एक ने धीरे से कहा। अस्वस्थ नहीं में पूर्ण स्वस्थ हूँ। स्वस्थ होने का मतलब आखिर रोग मुक्त होना ही तो नहीं हुआ करता। स्वस्थ माने स्वस्थ अर्थात् अपनी पूरी चेतना में, पूरी प्रवक्ता में, पूरी स्फूर्ति में व्यक्ति का होना कहकर वह हलके से मुस्करा दिये।

आने वाले भाव विह्वल थे। ऐसा स्वागत, ऐसी अपूर्व आत्मीयता उन्हें जीवन में पहली बार मिली थी। वह अपने इन नवागन्तुक मित्रों को जो जापानी वैज्ञानिकों के प्रतिनिधि मण्डल के रूप में आए थे, विद्यालय घुमाना शुरू किया। उन्हें भी आश्चर्य था विश्व का सर्वोच्च वैज्ञानिक प्रयोगशाला से संन्यास ने इस छोटे से विद्यालय में क्यों अपने को अटकाए हे। क्या इसकी प्रतिभा का दुरुपयोग नहीं हो रहा। जो प्रतिभा.....

आगे कुछ कोई सोचता इसके पूर्व उन्होंने एक छोटे से उपवन की और इशारा करते हुए कहा-आइए उधर बैठेंगे। सभी वहाँ पहुँच कर एक गोल घेरे में बैठ गए। लहराते पुष्पों, उड़ती तितलियों के बीच हरी घास पर बैठते ही एक अपूर्व ताजगी आ गई। “यदि मैं आपसे आपके व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूछूँ” प्रश्नकर्ता का स्वर शालीन था। “प्रसन्नता होगी-” कह कर वह जिज्ञासा की प्रतीक्षा करने लगे। “शायद आप का मतलब इस बाल विद्यालय में किए जा रहे अध्यापक कार्य से है।” “हाँ।” “प्रतिभा के बारे में बहुत भ्रम फैल गया है मित्र”। उन्होंने एक हल्की मुसकान के साथ अपनी बात शुरू की।” प्रतिभावान वह नहीं है जिसने कोई बड़ा पद हथिया लिया हो, जिसकी शारीरिक और बौद्धिक क्षमताएँ बढ़ी-चढ़ी हों। इसके साथ एक शर्त और यह भी जुड़ी है कि उसकी दिशा क्या है। दिशा विहीनता की स्थिति में व्यक्ति क्षमतावान् तो हो सकता है, किन्तु प्रतिभावान नहीं। अन्तर उतना ही है जितना वेग और गति में, एक दिशाहीन है दूसरा दिशायुक्त। उन्होंने भौतिक विज्ञान की भाषा में समझाया। सामर्थ्य दोनों में है, क्रियाशील भी दोनों हैं पर एक को अपने गन्तव्य का कोई पता ठिकाना नहीं, दूसरा प्रतिपल अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रहा है।” “अरे! यह तो बहुत बड़ा अन्तर है”। बोलने वाले के स्वरों में आश्चर्य था।

“बस यही दशा आज जीवन की है। आज की स्थिति में यह उस जहाज की तरह है जिसका नेव्हीगेटर बेहोश है, बस चला जा रहा है, बता सकते हैं उसका परिणाम! जरूर कहीं न कहीं अनेकों को नष्ट कर स्वयं नष्ट हो जाएगा”। सुनने वालों में से एक का जवाब था। “ठीक कहते हैं।” उन्होंने चिन्तक की मुद्रा में कहा। हर मनुष्य सोचता है। पर क्या करना है? परिणति क्या होगी? इसके गुणों-दोषों पर विचार करने की उस फुरसत नहीं होती और परिणाम होता है, क्षमताओं का उन्मत्त नर्तन जिसमें वेग तो होता है पर दिशा नहीं। पिछले विश्वयुद्ध में यही तो हुआ, हिटलर ही क्यों-पूरी जमात की क्षमताएँ उन्मादी होकर थिरक रहीं थीं। राजनेता वैज्ञानिक सभी तो शामिल थे। उनमें से अनेकों के बारे में दुनिया प्रतिभाशाली होने का भ्रम पाले हुए है”। उनका संकेत अपनी ओर था।” तो फिर प्रतिभा”......एक अन्य की जिज्ञासा उभरी। अर्थात् वह क्षमता जिसकी दिशा सृजन की ओर हो। जिसके हर बढ़ते कदम का स्वागत मानवीय मुस्कान करे। छटपटाहट विफलता आह्लाद में बदल जाए। क्षमताएँ सभी के पास हैं, मात्रा का थोड़ा बहुत भेद भले हो। इनके वेग को सृजन की ओर बढ़ती गति में बदलकर हर कोई प्रतिभाशाली बन सकता है। किन्तु स्वयं आपकी प्रतिभा का उपयोग.......”? प्रश्नकर्ता अपने मूल विषय पर आ गया।” वह तो मैं मानवीय जीवन की प्रथम आवश्यकता की पूर्ति में कर रहा हूँ। प्रथम आवश्यकता? हाँ प्रथम आवश्यकता, जो टी. वी., टेलीफोन नहीं, स्वादिष्ट व्यंजन, सुख के सरंजाम नहीं, हैलिकाप्टर राकेटलाँचर, अणु, परमाणु आयुध भी नहीं मित्रों वह है जीवन कैसे जिया जाय, इस बात की जानकारी। समूची जिन्दगी कैसे अनेकों सद्गुणों की सुरभि बिखेरने वाला मुसकराता गुलदस्ता कैसे बने, इस बात का पता। इसके बिना सभी कुछ बन्दर के हाथ में उस्तरे जैसा है, जिसका उपयोग वह सिवा अपनी और दूसरों की नाक काटने के और कुछ नहीं करेगा। अच्छा हो बन्दर पहले नाई बने फिर उस्तरा पकड़े।” आप तो दार्शनिकों की सी बातें करते हैं”- सुनने वालों ने उल्लास भरे स्वरों में कहा। ”दार्शनिक तो नहीं, अभी तक के अनुभवों ने सोचना सिखा दिया है और अभी तक के अनुभवों के आधार पर प्रतिभा का जो स्वरूप समझ में आया है वह है प्रकाश की ओर गतिमान जीवन। उसी के अनुरूप इन बच्चों को प्रतिभाशाली बना रहा हूँ। उन्हें मनुष्य होने का शिक्षण दे रहा हूँ।”

“अर्थात् आप बन्दरों को नाई बना रहे हैं,” कहने वाले का संकेत पेड़ों पर उछल-कूद कर रहे विद्यालय के बालकों की ओर था। ठीक कह रहे हैं ताकि वे अपने उस्तरे की सहायता से मनुष्यता के चेहरे का सौंदर्य निखार सकें और वह “तमसो मा ज्योतिर्गमय” की पुकार लगाती हुई प्रकाश के युग में पहुँच सके। प्रतिभा की यथार्थता समझाने और स्वयं का जीवन तदनुरूप गढ़ने वाले यह विश्व विश्रुत वैज्ञानिक थे ‘अलबर्ट आइन्स्टीन जिनके द्वारा लिखे गए ऑटो बायोग्राफिकल नोट्स आ भी हम सबको प्रतिभावान बनने का तत्त्वदर्शन सुझाते हैं।



(अखंड ज्योति-12/1990)

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी.


चक्रवर्ती राजगोपालाचारी.

राजाजी नाम से भी जाने जाते हैं। वे वकील, लेखक, राजनीतिज्ञ और दार्शनिक थे। वे स्वतन्त्र भारत के द्वितीय गवर्नर जनरल और प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल थे। १० अप्रैल १९५२ से १३ अप्रैल १९५४ तक वे मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री रहे। वे दक्षिण भारत के कांग्रेस के प्रमुख नेता थे, किन्तु बाद में वे कांग्रेस के प्रखर विरोधी बन गए तथा स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की। वे गांधीजी के समधी थे। (राजाजी की पुत्री लक्ष्मी का विवाह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी से हुआ था।) उन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कार्य किया।

आरंभिक जीवन.

उनका जन्म दक्षिण भारत के सलेम जिले में थोरापल्ली नामक गांव में हुआ था। राजाजी तत्कालीन सलेम जनपद के थोरापल्ली नामक एक छोटे से गाँव में एक तमिल ब्राह्मण परिवार (श्री वैष्णव) में जन्मे थे। आजकल थोरापली कृष्णागिरि जनपद में है। उनकी आरम्भिक शिक्षा होसूर में हुई। कालेज की शिक्षा मद्रास (चेन्नई) एवं बंगलुरू में हुई।

मुख्य मंत्री.

सन 1937 में हुए काँसिलो के चुनावों में चक्रवर्ती के नेतृत्व में कांग्रेस ने मद्रास प्रांत में विजय प्राप्त की। उन्हें मद्रास का मुख्यमंत्री बनाया गया। 1939 में ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस के बीच मतभेद के चलते कांग्रेस की सभी सरकारें भंग कर दी गयी थीं। चक्रवर्ती ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इसी समय दूसरे विश्व युद्ध का आरम्भ हुआ, कांग्रेस और चक्रवर्ती के बीच पुन: ठन गयी। इस बार वह गाँधी जी के भी विरोध में खड़े थे। गाँधी जी का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में मात्र नैतिक समर्थन दिया जाए, वहीं राजा जी का कहना था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने की शर्त पर ब्रिटिश सरकार को हर प्रकार का सहयोग दिया जाए। यह मतभेद इतने बढ़ गये कि राजा जी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 1942 में 'भारत छोड़ो' आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब भी वह अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ गिरफ्तार होकर जेल नहीं गये। इस का अर्थ यह नहीं कि वह देश के स्वतंत्रता संग्राम या कांग्रेस से विमुख हो गये थे। अपने सिद्धांतों और कार्यशैली के अनुसार वह इन दोनों से निरंतर जुड़े रहे। उनकी राजनीति पर गहरी पकड़ थी। 1942 के इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने देश के विभाजन को स्पष्ट सहमति प्रदान की। यद्यपि अपने इस मत पर उन्हें आम जनता और कांग्रेस का बहुत विरोध सहना पड़ा, किंतु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। इतिहास गवाह है कि 1942 में उन्होंने देश के विभाजन को सभी के विरोध के बाद भी स्वीकार किया, सन 1947 में वही हुआ। यही कारण है कि कांग्रेस के सभी नेता उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का लोहा मानते रहे। कांग्रेस से अलग होने पर भी यह महसूस नहीं किया गया कि वह उससे अलग हैं।

राज्यपाल.

1946 में देश की अंतरिम सरकार बनी। उन्हें केन्द्र सरकार में उद्योग मंत्री बनाया गया। 1947 में देश के पूर्ण स्वतंत्र होने पर उन्हें बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इसके अगले ही वर्ष वह स्वतंत्र भारत के प्रथम 'गवर्नर जनरल' जैसे अति महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त किए गये। सन 1950 में वे पुन: केन्द्रीय मंत्रिमंडल में ले लिए गये। इसी वर्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु होने पर वे केन्द्रीय गृह मंत्री बनाये गये। सन 1952 के आम चुनावों में वह लोकसभा सदस्य बने और मद्रास के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। इसके कुछ वर्षों के बाद ही कांग्रेस की तत्कालीन नीतियों के विरोध में उन्होंने मुख्यमंत्री पद और कांग्रेस दोनों को ही छोड़ दिया और अपनी पृथक स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की।

सम्मान.

1954 में भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले राजा जी को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। भारत रत्न पाने वाले वे पहले व्यक्ति थे। वह विद्वान और अद्भुत लेखन प्रतिभा के धनी थे। जो गहराई और तीखापन उनके बुद्धिचातुर्य में था, वही उनकी लेखनी में भी था। वह तमिल और अंग्रेज़ी के बहुत अच्छे लेखक थे। 'गीता' और 'उपनिषदों' पर उनकी टीकाएं प्रसिद्ध हैं। इनके द्वारा रचित चक्रवर्ति तिरुमगन, जो गद्य में रामायण कथा है, के लिये उन्हें सन् १९५८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (तमिल) से सम्मानित किया गया। उनकी लिखी अनेक कहानियाँ उच्च स्तरीय थीं। 'स्वराज्य' नामक पत्र उनके लेख निरंतर प्रकाशित होते रहते थे। इसके अतिरिक्त नशाबंदी और स्वदेशी वस्तुओं विशेषकर खादी के प्रचार प्रसार में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

निधन. 

अपनी वेशभूषा से भी भारतीयता के दर्शन कराने वाले इस महापुरुष का 28 दिसम्बर 1972 को निधन हो गया।