जन्म कुंडली के 12 भावों में से चतुर्थ भाव. ज्योतिष

जन्म कुंडली के 12 भावों में से चतुर्थ भाव.
(ज्योतिष)

जन्म कुंडली में चतुर्थ भाव को प्रसन्नता या सुख का भाव कहा जाता है। इसे माता के भाव के तौर पर भी जाना जाता है। यह भाव आपके निजी जीवन, घर में आपकी छवि, माता के साथ आपके संबंध, परिवार के अन्य सदस्यों के साथ आपके संबंध, आपकी सुख-सुविधाएँ और स्कूली व शुरुआती शिक्षा से संबंधित होता है। 

चतुर्थ भाव मानसिक शांति, पारिवारिक जीवन, निजी रिश्तेदार, घर, समृद्धि, उल्लास, सुविधाएँ, जमीन और पैतृक संपत्ति, छोटी-छोटी खुशियां, शिक्षा, वाहन और गर्दन व कंधों से संबंध रखता है। प्रसन्नज्ञान में भट्टोत्पल कहते हैं कि मूल्यवान जड़ी-बूटी, खजाना, छिद्र और गुफाओं को दर्शाता है। 

ज्योतिष विद्वानों के अनुसार, चतुर्थ भाव माता का भाव होता है। यह भाव घर, निवास, पारिवारिक जीवन और व्यक्ति के सामान्य जीवन को दर्शाता है। यह भाव घर-परिवार से जुड़ी गुप्त बातों का बोध कराता है। काल पुरुष कुंडली में चतुर्थ भाव पर कर्क राशि का नियंत्रण रहता है और इस राशि का स्वामी ग्रह चंद्रमा होता है।

उत्तर-कालामृत में कालिदास कहते हैं चतुर्थ भाव माता, तेल, स्नान, रिश्ते, जाति, वाहन, छोटी नाव, कुएँ, पानी, दूध, गाय, भैंस, मक्का और वृद्धि आदि को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त आर्द्र भूमि में उत्पादन, दवाई, विश्वास, झूठे आरोप, तंबू, तालाब की खुदाई या जन कल्याण के लिए इसका इस्तेमाल, हवेली, कला, घर में मनोरंजन, पैतृक संपत्ति, चोरी हुई संपत्ति का पता लगाने की कला, वैदिक और पवित्र ग्रन्थों का विकास आदि।

चतुर्थ भाव जमीन या अचल संपत्ति को भी दर्शाता है, साथ ही किराये या लीज पर ली गई जमीन या वस्तुएँ। यह भाव वाहन सुख और अन्य व्यक्तियों के माध्यम से मिलने वाले वाहन सुख को भी प्रकट करता है। कुंडली में चतुर्थ भाव सभी प्रकार की संपत्ति को प्रभावित करता है (संपत्ति जैसे- क्षेत्र, चारागाह, रियल इस्टेट, खेत, बिल्डिंग, गार्डन, माइंस और स्मारक आदि)

चतुर्थ भाव व्यक्ति की शिक्षा और शैक्षणिक योग्यता का बोध कराता है इसलिए इससे व्यक्ति की शुरुआती शिक्षा और कॉलेज की पढ़ाई के बारे में जाना जाता है। चतुर्थ भाव पैतृक घर जहां व्यक्ति का जन्म हुआ है, घर या जन्मभूमि से दूर जाने की संभावना, भूमिगत स्थान, प्राचीन स्मारक, आर्किटेक्चर, वाहन, घोड़े, हाथी और व्यक्ति का माँ के साथ संबंधों को दर्शाता है।

चतुर्थ भाव सुख, विजय और आराम, पवित्र स्थान, नैतिक गुण, धार्मिक आचरण, स्तन, छाती, विद्रोह, मन, बुद्धिमता, व्यक्ति की योग्यता, हाई स्कूल और कॉलेज की शिक्षा आदि को व्यक्त करता है।

मेदिनी ज्योतिष में चतुर्थ भाव राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन, माइंस, गार्डन, सार्वजनिक इमारतें, फसलें, कृषि, खनिज, जमीन, शांति, राजनीतिक स्थिरता, प्राकृतिक आपदाएँ, शैक्षणिक संस्थान, स्कूल, कॉलेज, कानून और व्यवस्था, घर व अन्य समुदायों से सद्भाव को दर्शाता है। इसे सिंहासन भाव भी कहा जाता है।

इस भाव को राष्ट्र के लोगों के जीने की स्थिति, रियल इस्टेट, हाउसिंग, फार्मिंग और उत्पादन से भी जोड़कर देखा जाता है। यह भाव मातृभूमि, राष्ट्रवाद, झंडा और राजा के सिंहासन को भी दर्शाता है। इससे मौसम की स्थिति, ज्वालामुखी विस्फोट, भूकंप, बाढ़, सुनामी, भू-स्खलन, वनों में आग या अन्य प्राकृतिक आपदाओं को भी देखा जाता है।

पश्चिमी ज्योतिष में चतुर्थ भाव का विचार कैबिनेट (मंत्रिमंडल) के तौर पर किया जाता है। वहीं वैदिक ज्योतिष में मंत्रिमंडल को प्रथम भाव से देखा जाता है। चतुर्थ भाव भौगोलिक मंत्रालय को भी दर्शाता है। यह किसी भी प्रकार सहमति या समझौते को निरस्त करने का निर्धारण भी करता है।

चतुर्थ भाव का कुंडली के अन्य भावों से अंतर्संबंध हो सकता है। यह हमारे निजी जीवन या अफेयर को दर्शाता है, साथ ही आपके छोटे भाई-बहनों का धन, संचार में वृद्धि, यात्रा करने की क्षमता, वस्त्र, फर्नीचर, घर के अंदर की कलात्मक वस्तुएँ, कार, ऑर्किटेक्चर की पढ़ाई, पेशेवर और वाणिज्यिक स्थान को भी दर्शाता है।

यह भाव निकटवर्ती रिश्ते और रिश्तेदारों के साथ संबंध व उनके घर आने का बोध कराता है। सामान्य रूप से यह सभी प्रकार के रिश्तों और रिश्तेदारों का प्रतिनिधित्व करता है, जो आपके घर आया करते हैं। छोटे भाई-बहनों के संसाधन, बच्चों को खोने का भय, आपके बच्चे कहां दान करते हैं, वह स्थान जहां वे धन दान करते हैं। यह सभी कुंडली में चतुर्थ भाव से देखा जाता है।

चतुर्थ भाव विवाह के बाद आपके परिवार यानि बीवी और बच्चे आदि को दर्शाता है, साथ ही संयुक्त संपत्ति में आपका भाग्य, ससुराल पक्ष के लोगों का भाग्य, बिजनेस में की जाने वाली संभावनाओं से होने वाला नुकसान, आपके अंकल को होने वाला लाभ, कर्ज से मुक्ति, रोग और शत्रु, विरोधियों से होने वाला लाभ आदि का बोध होता है।

चतुर्थ भाव आपके जीवनसाथी के करियर और प्रोफेशन का बोध भी कराता है। समाज में आपके जीवनसाथी की छवि या प्रतिष्ठा, आपके ससुराल पक्ष के लोगों के गुरु, ससुराल पक्ष के लोगों की शिक्षा और उनके द्वारा की जाने वाली लंबी दूरी की यात्राओं को भी व्यक्त करता है। चतुर्थ भाव आपके पिता और गुरु के जीवन में होने वाले बड़े परिवर्तन या मृत्यु, पिता की सर्जरी, धन के संबंध में पिता और गुरु से संबंधित गुप्त तथ्य, आपके नैतिक मूल्यों में होने वाले बड़े बदलाव, उच्च शिक्षा या लंबी यात्राओं को व्यक्त करता है। यह भाव आपके जीवनसाथी के अधिकारी और बॉस के साथ कानूनी साझेदारी का बोध भी कराता है। यह भाव स्वास्थ्य, कर्ज और बड़े भाई-बहनों के विरोधी, इच्छाओं की पूर्ति, कानूनी कार्रवाई शत्रुओं के माध्यम से पूरी होने वाली इच्छाओं को व्यक्त करता है।

चतुर्थ भाव आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति आपकी आस्था को दर्शाता है। आपके अंदर मौजूद संवेदना, संपत्ति को खरीदने या बेचने को लेकर आपके द्वारा किये जाने वाले प्रयासों का बोध कराता है। यदि किसी व्यक्ति का चतुर्थ भाव पीड़ित है तो उस व्यक्ति को यूनिवर्सिटी में एडमिशन मिलने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

लाल किताब के अनुसार चतुर्थ भाव आपके ननिहाल पक्ष के रिश्तेदारों, माँ के माता-पिता, जमीन, वाहन, घोड़ा, झील, नदी, समुद्र, नाला, तालाब, धन और लक्ष्मी स्थान को दर्शाता है। इस भाव का स्वामी चंद्रमा को कहा गया है, इसलिए यह जल से संबंधित सभी वस्तुओं का प्रतिनिधित्व करता है।

चंद्रमा को माँ का कारक कहा गया है, इसलिए यदि कुंडली के चतुर्थ भाव में कोई भी ग्रह स्थित होता है तो, वह अच्छा फल देता है। यदि आप ठंडे पानी के अंदर लोहे की राड डालते हैं तो इसके बुरे प्रभाव देखने को मिल सकते हैं। क्योंकि यह पानी की शीतलता को खत्म करता है। चतुर्थ और दशम भाव में स्थित ग्रह एक-दूसरे के साथ अच्छे संबंध बनाते हैं। यदि इन भावों में कोई भी ग्रह स्थित न हो तो, अन्य भाव निष्क्रिय रहेंगे।

कुंडली में चतुर्थ भाव प्रत्येक व्यक्ति के अंदर स्थित विशेष रूप से पवित्र ज्ञान (बाइबल, भागवद गीता, कुरान आदि), जीवन में मिलने वाली सभी प्रकार की सुख और सुविधाओं को प्रकट करता है।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से तृतीय भाव. ज्योतिष

जन्म कुंडली के 12 भावों में से तृतीय भाव.
(ज्योतिष)
 


जन्म कुंडली में तृतीय भाव को वीरता और साहस का भाव कहा जाता है। यह हमारी संवाद शैली और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले प्रयासों को दर्शाता है। किसी भी तरह के कार्य को करने की इच्छाशक्ति का निर्धारण भी इस भाव से देखा जाता है। यह भाव आपके छोटे भाई-बहनों से भी संबंधित होता है। तृतीय भाव को विभिन्न माध्यमों से भी व्यक्त किया जाता है। 

धैर्य भाव: बुरे विचार, स्तन, कान, विशेषकर दायां कान, वीरता, पराक्रम, भाई-बहन, मानसिक शक्ति

तृतीय भाव भाई-बहन, बुद्धिमत्ता, पराक्रम, कम दूरी की यात्राएँ, पड़ोसी, नज़दीकी रिश्तेदार, पत्र और लेखन आदि का प्रतिनिधित्व करता है। तृतीय भाव से किसी भी व्यक्ति के साहस, पराक्रम, छोटे भाई-बहन, मित्र, धैर्य, लेखन, यात्रा और दायें कान का विचार किया जाता है। यह भाव दायें कान व स्तन, दृढता, वीरता और शौर्य को भी दर्शाता है। अष्टम भाव से अष्टम होने की वजह से तृतीय भाव जातक की आयु और चतुर्थ भाव से द्वादश होने के कारण माता की आयु का विचार भी इसी भाव से किया जाता है।

'सत्याचार्य' के अनुसार किसी व्यक्ति की मानसिक शक्ति, दृढ़ संकल्प और भाषा के बारे में जानने के लिए यह भाव देखा जाता है।

'सर्वार्थ चिन्तामणि' के अनुसार, यह भाव कुंडली में किसी भी व्यक्ति के लिए दवाई, मित्र, शिक्षा और कम दूरी की यात्राओं को दर्शाता है।

'ऋषि पाराशर' ने तृतीय भाव की व्याख्या करते हुए लिखा है कि, यह साहस और वीरता का भाव है। यह हमारी मानसिक क्षमता व स्थिरता, याददाशत और दिमागी प्रवृत्ति आदि को व्यक्त करता है। यह भाव मुख्य रूप से शिक्षा या ज्ञान प्राप्ति के लिए किये गये प्रयासों व झुकाव को दर्शाता है। काल पुरुष कुंडली में तृतीय भाव पर मिथुन राशि का नियंत्रण रहता है और इसका स्वामी बुध ग्रहहोता है।

तृतीय भाव छोटे भाई-बहन, कजिन, प्रियजन, कर्ज से मुक्ति और पड़ोसियों के बारे में बताता है। सहज स्थान होने की वजह से यह भाव व्यक्ति को मिलने वाली मदद और अपने कार्य को पूरा करने के लिए मिलने वाली सहायता को दर्शाता है।

उत्तर कालामृत में कालिदास कहते हैं कि तृतीय भाव युद्ध, सड़क के किनारे वाला स्थान, मानसिक भ्रम की स्थिति, दुःख, सैनिक, कंठ, भोजन, कान, शुद्ध भोजन, संपत्ति का विभाजन, अंगुली और अंगूठे के बीच का स्थान, महिला सेवक, छोटे वाहन की यात्रा और धर्म को लेकर प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी को दर्शाता है।

'जातक परिजात' में कहा गया है कि, तृतीय भाव छोटे भाई-बहनों के कल्याण, प्रतिष्ठान, कान, चुनिंदा गहने, वस्त्र, स्थिरता, वीरता, शक्ति, जड़ युक्त खाद्य पदार्थ और फल आदि को दर्शाता है।

तृतीय भाव साहस, छोटी दूरी की यात्रा (साइकिल, ट्रेन, नदी, झील और वायु मार्ग के माध्यम से) का संकेत करता है। यह सभी प्रकार के पत्राचार, लेखन, अकाउंटिंग, गणित, समाचार, संचार के माध्यम जैसे- पोस्ट ऑफिस, लेटर बॉक्स, टेलीफोन, टेलीग्राफ, टेलीप्रिंट, टेलीविजन, टेली कम्युनिकेशन, रेडियो, रिपोर्ट, सिग्नल, एयर मेल आदि का प्रतिनिधित्व करता है।

तृतीय भाव किताब और प्रकाशन से संबंधित भी होता है, अतः इस भाव के प्रभाव से कोई भी व्यक्ति भविष्य में संपादक, रिपोर्टर, सूचना अधिकारी और पत्रकार बन सकता है। यह भाव निवास परिवर्तन, बेचैनी, बदलाव और परिवर्तन, पुस्तकालय, बुक स्टोर, भाव-राव, हस्ताक्षर (कॉन्ट्रेक्ट या समझौते पर) मध्यस्थता आदि का कारक भी होता है। इसके अलावा यह भाव हाथ, बांह, श्वसन और तंत्रिका तंत्र को भी दर्शाता है।

मेदिनी ज्योतिष के अनुसार तृतीय भाव परिवहन, टेलीकम्युनिकेशन, पोस्टल सर्विसेज, पड़ोसी देश और अन्य देशों के साथ संधियों को व्यक्त करता है।

वहीं नाड़ी ज्योतिष के अनुसार तृतीय भाव जातक के माता-पिता के पुनर्विवाह को भी दर्शाता है, यदि तृतीय भाव में एक से ज्यादा ग्रह स्थित हों।

प्रश्न ज्योतिष के अनुसार तृतीय भाव संचार के सभी माध्यमों को दर्शाता है। चाहे वह पत्र, पोस्टल डिलीवरी, टेलीफोन, फैक्स या इंटरनेट हो।

वैदिक ज्योतिष में तृतीय भाव का संबंध संचार, संवाद, हाथों की मूवमेंट, शारीरिक पुष्टता, स्वयं के द्वारा की जाने वाली लंबी दूरी की यात्रा को दर्शाता है। यदि आप कोई काम अपने हाथों में लेकर उसे पूरा करते हैं, तो इसका बोध कुंडली में तृतीय भाव के माध्यम से किया जाता है। यह ड्राइविंग, कला, मीडिया, एंटरटेनमेंट, रोड, लेखन और आदेश, जो आप अपने नजदीकी रिश्तेदार या भाई-बहनों को संदेश के रूप में देते हैं। किसी भी कार्य को करने की क्षमता या यात्रा के बारे में तृतीय भाव से देखा जाता है।

यह भाव धन बढ़ोत्तरी के लिए किये जाने वाले प्रयासों को भी दर्शाता है। यह माता का भाव भी होता है। यद्यपि चतुर्थ भाव माता का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए कुंडली में तृतीय भाव से भी माता के संबंध में अध्ययन किया जाता है। यह भाव जीवन में खुशियों का अभाव या घर की खुशियों की कमी को भी दर्शाता है। यह आशा, कामना और बच्चों की इच्छा (विशेषकर पहली संतान), वृद्धि, सफलता, बच्चों को मिलने वाले पुरस्कार, जॉब, करियर, प्रशासनिक सेवा, बच्चों का व्यावसायिक लोन, वीरता और शत्रुओं से सामना करने का साहस, धर्म, गुरुजन और जीवनसाथी के सलाहकार को भी दर्शाता है।

तृतीय भाव बड़े परिवर्तन और ससुराल पक्ष में किसी की मृत्यु का बोध भी कराता है। यह अष्टम भाव से अष्टम पर स्थित होता है इसलिए मृत्यु जैसे विषयों का अनुभव कराता है। यह आपके जीवनसाथी के गुरु और जीवनसाथी के पिता का बोध भी कराता है। यह भाव कर्ज, बीमारी, आपके बड़े भाई-बहनों के बच्चे, आध्यात्मिक कर्मों के संचय को भी दर्शाता है। क्या आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी, क्या आप विदेश यात्रा पर जाएंगे, क्या आप अस्पताल में भर्ती होंगे आदि ये सभी बाते तृतीय भाव द्वारा व्यक्त की जाती है।

लाल किताब के अनुसार, तृतीय भाव भाई-बहन, संधि या समझौता, आपके हाथ, मजबूती, कलाई, युद्ध क्षेत्र, रिश्तेदार और घर की साज-सज्जा को दर्शाता है।

ज्योतिष ग्रन्थों के अनुसार, मंगल ग्रह तृतीय भाव का स्वामी होता लेकिन बुध ग्रह भी इस भाव को नियंत्रित करता है। इसलिए व्यक्ति पर इन दोनों ग्रहों का मिश्रित प्रभाव देखने को मिलता है। यह भाव नवम भाव के स्वामी और एकादश भाव के स्वामी के माध्यम से सक्रिय होते हैं। यदि ये दोनों भाव खाली होते है तो, तृतीय भाव निष्क्रिय या सामान्य रहता है। यह किसी भी प्रकार का फल प्रदान नहीं करता है।

तृतीय भाव एक प्रमुख भाव है, क्योंकि यह हमारे संदेश को बाहर की दुनिया और मित्रों के बीच, सोशल मीडिया, मनोरंजन, ऑनलाइन माध्यम, सेलफोन, स्मार्टफोन या संचार के अन्य किसी उपकरण के द्वारा प्रसारित करता है, इसलिए यह एक मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से द्वितीय भाव. ज्योतिष

जन्म कुंडली के 12 भावों में से द्वितीय भाव.
(ज्योतिष)
 

जन्म कुंडली से द्वितीय भाव को कुंटुंब भाव और धन भाव के नाम से जाना जाता है। यह भाव धन से संबंधित मामलों को दर्शाता है, जिसका हमारे दैनिक जीवन में बड़ा महत्व है। द्वितीय भाव परिवार, चेहरा, दाईं आँख, वाणी, भोजन, धन या आर्थिक और आशावादी दृष्टिकोण आदि को दर्शाता है। यह भाव ग्रहण करने, सीखने, भोजन और पेय, चल संपत्ति, पत्र व दस्तावेज का प्रतिनिधित्व करता है। 

वैदिक ज्योतिष में द्वितीय भाव से धन, संपत्ति, कुटुंब परिवार, वाणी, गायन, नेत्र, प्रारंभिक शिक्षा और भोजन आदि बातों का विचार किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह भाव जातक के द्वारा जीवन में अर्जित किये गये स्वर्ण आभूषण, हीरे तथा अन्य बहुमूल्य पदार्थों के बारे में भी बोध कराता है। द्वितीय भाव को एक मारक भाव भी कहा जाता है।

द्वितीय भाव का कारक ग्रह बृहस्पति को माना गया है। इस भाव से धन, वाणी, संगीत, प्रारंभिक शिक्षा और नेत्र आदि का विचार किया जाता है।

आर्थिक स्थिति: कुंडली में आमदनी और लाभ का विचार एकादश भाव के अलावा द्वितीय भाव से भी किया जाता है। जब द्वितीय भाव और एकादश भाव के स्वामी व गुरु मजबूत स्थिति में हों, तो व्यक्ति धनवान होता है। वहीं यदि कुंडली में इनकी स्थिति कमजोर हो तो, आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

शुरुआती शिक्षा: चूंकि द्वितीय भाव का व्यक्ति की बाल्य अथवा किशोरावस्था से गहरा संबंध होता है इसलिए इस भाव से व्यक्ति की प्रारंभिक शिक्षा देखी जाती है।

वाणी, गायन और संगीत: द्वितीय भाव का संबंध मनुष्य के मुख और वाणी से होता है। यदि द्वितीय भाव, द्वितीय भाव के स्वामी और वाणी का कारक कहे जाने वाले बुध ग्रह किसी प्रकार से पीड़ित हो, तो व्यक्ति को हकलाने या बोलने में परेशानी रह सकती है। चूंकि द्वितीय भाव वाणी से संबंधित है इसलिए यह भाव गायन अथवा संगीत से भी संबंध को दर्शाता है।

नेत्र: द्वितीय भाव का संबंध व्यक्ति के नेत्र से भी होता है। इस भाव से प्रमुख रूप से दायें नेत्र के बारे में विचार करते हैं। यदि द्वितीय भाव में सूर्य अथवा चंद्रमा पापी ग्रहों से पीड़ित हों या फिर द्वितीय भाव व द्वितीय भाव के स्वामी पर क्रूर ग्रहों का प्रभाव हो, तो व्यक्ति को नेत्र पीड़ा या विकार हो सकते हैं।

रूप-रंग और मुख: द्वितीय भाव मनुष्य के मुख और चेहरे की बनावट को दर्शाता है। यदि द्वितीय भाव का स्वामी बुध अथवा शुक्रहो और बलवान होकर अन्य शुभ ग्रहों से संबंधित हो, तो व्यक्ति सुंदर चेहरे वाला होता है, साथ ही व्यक्ति अच्छा बोलने वाला होता है।

उत्तर-कालामृत के अनुसार, द्वितीय भाव नाखून, सच और असत्य, जीभ, हीरे, सोना, तांबा और अन्य मूल्यवान स्टोन, दूसरों की मदद, मित्र, आर्थिक संपन्नता, धार्मिक कार्यों में विश्वास, नेत्र, वस्त्र, मोती, वाणी की मधुरता, सुंगधित इत्र, धन अर्जित करने के प्रयास, कष्ट, स्वतंत्रता, बोलने की बेहतर क्षमता और चांदी आदि को दर्शाता है।

द्वितीय भाव आर्थिक संपन्नता, स्वयं द्वारा अर्जित धन या परिवार से मिले धन को दर्शाता है। यह भाव पैतृक, वंश, महत्वपूर्ण वस्तु या व्यक्ति आदि का बोध भी कराता है। कालपुरुष कुंडली में द्वितीय भाव की राशि वृषभ होती है जबकि इस भाव का स्वामी शुक्र को कहा जाता है।

प्रसन्नज्ञान में भट्टोत्पल कहते हैं कि द्वितीय भाव मोती, माणिक्य रत्न, खनिज पदार्थ, धन, वस्त्र और व्यवसाय को दर्शाता है।

मेदिनी ज्योतिष के अनुसार, द्वितीय भाव का आर्थिक मंत्रालय, राज्य की बचत, बैंक बेलैंस, रिजर्व बैंक की निधि या धन व आर्थिक मामलों से संबंध है।

प्रश्न ज्योतिष के अनुसार, द्वितीय भाव धन से जुड़े प्रश्न का निर्धारण करता है। इनमें लाभ या हानि, व्यवसाय से वृद्धि आदि बातें प्रमुख हैं।

द्वितीय भाव कुंडली के अन्य भावों से भी अंतर्संबंध रखता है। यह भाव छोटे भाई-बहनों को हानि, उनके खर्च, छोटे भाई-बहनों से मिलने वाली मदद और उपहार, जातक के हुनर और प्रयासों में कमी को दर्शाता है। द्वितीय भाव आपकी माँ के बड़े भाई-बहन, आपकी माँ को होने वाले लाभ और वृद्धि, समाज में आपकी माँ के संपर्क आदि को भी प्रकट करता है। वहीं द्वितीय भाव आपके बच्चों की शिक्षा, विशेषकर पहले बच्चे की, समाज में आपके बच्चों की छवि और प्रतिष्ठा का बोध कराता है।

द्वितीय भाव प्राचीन ज्ञान से संबंधित कर्म, मामा का भाग्य, उनकी लंबी यात्राएँ और विरोधियों के माध्यम से लाभ को दर्शाता है। यह आपके जीवनसाथी की मृत्यु, पुनर्जन्म, जीवनसाथी की संयुक्त संपत्ति, साझेदार से हानि या साझेदार के साथ मुनाफे की हिस्सेदारी का बोध कराता है।

द्वितीय भाव आपके सास-ससुर, आपके ससुराल पक्ष के व्यावसायिक साझेदार, ससुराल के लोगों से कानूनी संबंध, ससुराल के लोगों के साथ-साथ बाहरी दुनिया से संपर्क और पैतृक मामलों को दर्शाता है।

यह भाव स्वास्थ्य, रोग, पिता या गुरु की बीमारी, शत्रु, मानसिक और वैचारिक रूप से आपके विरोधी, निवेश, करियर की संभावना, शिक्षा, ज्ञान और आपके अधिकारियों की कलात्मकता को प्रकट करता है।

वैदिक ज्योतिष के अनुसार, कुंडली में द्वितीय भाव बड़े भाई-बहनों की सुख-सुविधा, मित्रों का सुख, मित्रों के लिए आपका दृष्टिकोण, बड़े भाई-बहनों का आपकी माँ के साथ संबंध को दर्शाता है। यह भाव लेखन, आपकी दादी के बड़े भाई-बहन और दादी के बोलने की कला को भी प्रकट करता है। द्वितीय भाव गुप्त शत्रुओं की वजह से की गई यात्राओं पर हुए खर्च और प्रयासों को भी दर्शाता है।

लाल किताब के अनुसार द्वितीय भाव ससुराल पक्ष और उनके परिवार, धन, सोना, खजाना, अर्जित धन, धार्मिक स्थान, गौशाला, कीमती पत्थर और परिवार को दर्शाता है।

लाल किताब के अनुसार, कुंडली के द्वितीय भाव की सक्रियता के लिए नवम या दशम भाव में किसी ग्रह को उपस्थित होना चाहिए। यदि नवम और दशम भाव में कोई ग्रह नहीं रहता है तो द्वितीय भाव की निष्क्रियता बरकरार रहती है, फिर चाहें कोई शुभ ग्रह भी इस भाव में क्यों न बैठा हुआ हो।

कुंडली में द्वितीय भाव एक महत्वपूर्ण भाव है। क्योंकि यह हमारे जीवन जीने की शैली, संपत्ति की खरीद, समाज में धन और भौतिक सुखों से मिलने वाली पहचान को दर्शाता है। द्वितीय भाव से यह निर्धारित होता है कि आपके द्वारा अर्जित धन से आप समाज में किस सम्मान के हकदार होंगे।

जन्म कुंडली के 12 भावों में से प्रथम भाव. ज्योतिष

जन्म कुंडली के 12 भावों में से प्रथम भाव.
(ज्योतिष)

जन्म कुंडली में प्रथम भाव यानि लग्न का विशेष महत्व है। हिन्दू ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति ऋग्वेद से हुई है, इसलिए इसे वैदिक ज्योतिष कहा गया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्म कुंडली में कुल 12 भाव होते हैं और हर भाव की अपनी विशेषताएँ और महत्व होता है। इनमें प्रथम भाव को इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह मनुष्य के व्यक्तित्व, स्वभाव, आयु, यश, सुख और मान-सम्मान आदि बातों का बोध कराता है। प्रथम भाव को लग्न या तनु भाव भी कहा जाता है। हर व्यक्ति के जीवन का संपूर्ण दर्शन लग्न भाव पर निर्भर करता है। 

प्रथम भाव का कारक सूर्य को कहा जाता है। इस भाव से व्यक्ति की शारीरिक संरचना, रुप, रंग, ज्ञान, स्वभाव, बाल्यावस्था और आयु आदि का विचार किया जाता है। प्रथम भाव के स्वामी को लग्नेश का कहा जाता है। लग्न भाव का स्वामी अगर क्रूर ग्रह भी हो तो, वह अच्छा फल देता है।

शारीरिक संरचना: प्रथम भाव से व्यक्ति की शारीरिक बनावट और कद-काठी के बारे में पता चलता है। यदि प्रथम भाव पर जलीय ग्रहों का प्रभाव अधिक होता है तो व्यक्ति मोटा होता है। वहीं अगर शुष्क ग्रहों और राशियों का संबंध लग्न पर अधिक रहता है तो जातक दुबला होता है।

स्वभाव: किसी भी व्यक्ति के स्वभाव को समझने के लिए लग्न का बहुत महत्व है। लग्न मनुष्य के विचारों की शक्ति को दर्शाता है। यदि चतुर्थ भाव, चतुर्थ भाव का स्वामी, चंद्रमा, लग्न व लग्न भाव के स्वामी पर शुभ ग्रहों का प्रभाव होता है तो व्यक्ति दयालु और सरल स्वभाव वाला होता है। वहीं इसके विपरीत अशुभ ग्रहों के प्रभाव से व्यक्ति क्रूर प्रवृत्ति का होता है।

आयु और स्वास्थ्य: प्रथम भाव व्यक्ति की आयु और सेहत को दर्शाता है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार जब लग्न, लग्न भाव के स्वामी के साथ-साथ सूर्य, चंद्रमा, शनि और तृतीय व अष्टम भाव और इनके स्वामी मजबूत हों तो, व्यक्ति को दीर्घायु एवं उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। वहीं यदि इन घटकों पर क्रूर ग्रहों का प्रभाव हो या कमजोर हों, तो यह स्थिति व्यक्ति की अल्पायु को दर्शाती है।

बाल्यकाल: प्रथम भाव से व्यक्ति के बचपन का बोध भी होता है। ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार यदि लग्न के साथ लग्न भाव के स्वामी और चंद्रमा पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव हो, तो व्यक्ति को बाल्यकाल में शारीरिक कष्ट उठाने पड़ते हैं। वहीं शुभ ग्रहों के प्रभाव से बाल्यावस्था अच्छे से व्यतीत होती है।

मान-सम्मान: प्रथम भाव मनुष्य के मान-सम्मान, सुख और यश को भी दर्शाता है। यदि लग्न, लग्न भाव का स्वामी, चंद्रमा, सूर्य, दशम भाव और इनके स्वामी बलवान अवस्था में हों, तो व्यक्ति को जीवन में मान-सम्मान प्राप्त होता है।

“उत्तर-कालामृत” के अनुसार, “प्रथम भाव मुख्य रूप से मनुष्य के शरीर के अंग, स्वास्थ्य, प्रसन्नता, प्रसिद्धि समेत 33 विषयों का कारक होता है।”

प्रथम भाव को मुख्य रूप से स्वयं का भाव कहा जाता है। यह मनुष्य के शरीर और शारीरिक संरचना का प्रतिनिधित्व करता है। यह हमारे शरीर के ऊपरी हिस्से जैसे चेहरे की बनावट, नाक-नक्शा, सिर और मस्तिष्क आदि को प्रकट करता है। काल पुरुष कुंडली में प्रथम भाव मेष राशि को दर्शाता है, जिसका स्वामी ग्रह मंगल है।

सत्याचार्य के अनुसार, कुंडली में प्रथम भाव अच्छे और बुरे परिणाम, बाल्यकाल में आने वाली समस्याएँ, हर्ष व दुःख और देश या विदेश में निवेश की संभावनाओं को प्रकट करता है।

नाम, प्रसिद्धि और सामाजिक प्रतिष्ठा का विचार भी लग्न से किया जा सकता है। उच्च शिक्षा, लंबी यात्राएँ, पढ़ाई के दौरान छात्रावास में जीवन, बच्चों के अनजान और विदेशी लोगों से संपर्कों (विशेषकर पहली संतान के) का बोध भी लग्न से किया जाता है।

'प्रसन्नज्ञान' में भट्टोत्पल कहते हैं कि जन्म, स्वास्थ्य, हर्ष, गुण, रोग, रंग, आयु और दीर्घायु का विचार प्रथम भाव से किया जाता है।

प्रथम भाव से मानसिक शांति, स्वभाव, शोक, कार्य की ओर झुकाव, दूसरों का अपमान करने की प्रवृत्ति, सीधा दृष्टिकोण, संन्यास, पांच इंद्रियां, स्वप्न, निंद्रा, ज्ञान, दूसरों के धन को लेकर नजरिया, वृद्धावस्था, पूर्वजन्म, नैतिकता, राजनीति, त्वचा, शांति, लालसा, अत्याचार, अहंकार, असंतोष, मवेशी और शिष्टाचार आदि का बोध होता है।

मेदिनी ज्योतिष में लग्न से पूरे देश का विचार किया जाता है, जो कि राज्य, लोगों और स्थानीयता को दर्शाता है।

प्रश्न ज्योतिष में प्रथम भाव प्रश्न पूछने वाले को दर्शाता है।

प्रथम भाव का अन्य भावों से अंतर्संबंध..

प्रथम भाव अन्य भावों से भी अंतर्संबंध बनाता है। यह पारिवारिक धन की हानि को भी दर्शाता है। यदि आप विरासत में मिली संपत्ति को स्वयं के उपभोग के लिए इस्तेमाल करते हैं, अतः यह संकेत करता है कि आप अपने धन की हानि कर रहे हैं। इससे आपके स्वास्थ्य के बारे में भी पता चलता है, अतः आप विरासत में मिले धन को इलाज पर भी खर्च कर सकते हैं। यह मुख्य रूप से अस्पताल के खर्च, कोर्ट की फीस और अन्य खर्चों को दर्शाता है। यह भाव भाई-बहनों की उन्नति और स्वयं अपने प्रयासों, कौशल और संवाद के जरिये तरक्की करने का बोध कराता है।

प्रथम भाव करियर, सम्मान, माता की सामाजिक प्रतिष्ठा, आपके बच्चों की उच्च शिक्षा, आपके बच्चों के शिक्षक, आपके बच्चों की लंबी दूरी की यात्राएँ, बच्चों का भाग्य, आपके शत्रुओं की हानि और उन पर आपकी विजय को प्रकट करता है। इसके अतिरिक्त यह कर्ज और बीमारी को भी दर्शाता है।

यह भाव आपके जीवनसाथी और उसकी इच्छाओं के बारे में दर्शाता है। इसके अतिरिक्त यह भाव आपके ससुराल पक्ष के लोगों की सेहत और जीवनसाथी की सेहत को भी प्रकट करता है। ठीक इसी प्रकार प्रथम भाव पिता के व्यवसाय से जुड़ी संभावनाओं को दर्शाता, पिता के भाग्य, पिता के बच्चों (यानि आप) और उनकी शिक्षा के बारे में बताता है।

लग्न भाव आपकी खुशियां और समाज में आपकी प्रतिष्ठा को भी दर्शाता है। वहीं कार्यस्थल पर अपने कौशल से वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा मिलने वाली प्रशंसा को भी प्रकट करता है। यह बड़े भाई-बहनों के प्रयास और उनकी भाषा, स्वयं के प्रयासों द्वारा अर्जित आय का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह भाव धन संचय के अलावा व्यय को भी दर्शाता है।

लाल किताब में प्रथम भाव को स्वास्थ्य, साहस, पराक्रम, कार्य करने की क्षमता, हर्ष, दुःख, शरीर, गला, शाही या सरकारी जीवन को दर्शाता है।

लाल किताब में प्रथम भाव को सभी 12 भावों का राजा कहा गया है और सप्तम भाव को गृह मंत्री कहा जाता है। प्रथम भाव में एक से अधिक ग्रहों का स्थित रहना अच्छा नहीं माना जाता है। क्योंकि इसकी वजह से दिमाग में भ्रम की स्थिति पैदा होती है। क्योंकि यदि यहां पर एक सेनापति के लिए एक से अधिक राजा हों तो, यह शुभ फल प्रदान नहीं करता है। वहीं अगर सप्तम भाव में एक से अधिक ग्रह और प्रथम भाव में केवल एक ही ग्रह हो, तो यह स्थिति जातक के लिए बहुत बेहतर होती है।

लाल किताब में प्रथम भाव को राज सिंहासन कहा गया है। यदि कोई ग्रह प्रथम भाव में स्थित रहता है तो वह अपने शत्रु ग्रहों को हानि पहुंचाता है और उसके बाद अपनी स्थिति के अनुसार फल देता है। मान लीजिये, यदि कोई क्रूर ग्रह प्रथम भाव में गोचर कर रहा है, तो इस भाव में स्थित ग्रह उसे नष्ट कर देगा या उसके दुष्प्रभावों को कम कर देगा।

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि प्रथम भाव हम सभी के लिए महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि यह हमारे व्यक्तित्व, स्वभाव, शरीर, स्वास्थ्य और रूप, रंग आदि को प्रकट करता है, जिनका जीवन में बड़ा महत्व होता है।

कुंडली में प्रथम भाव – स्वयं को जानने का मार्ग.

जीवन में सार्थकता.


जीवन में सार्थकता.

चरित्रवान् बनने के लिये अपनी आत्मिक शक्ति जगाने की आवश्यकता होती है। तप, संयम और धैर्य से आत्मा बलवान बनती है। कामुकता, लोलुपता व इन्द्रिय सुखों की बात सोचते रहने से ही आत्म-शक्ति का ह्रास होता है। अपने जीवन में कठिनाइयों और मुसीबतों को स्थान न मिले तो आत्म-शक्ति जागृत नहीं होती। जब तक कष्ट और कठिनाइयों से जूझने का भाव हृदय में नहीं आता तब तक चरित्रवान् बनने की कल्पना साकार रूप धारण नहीं कर सकती।

चरित्र-निर्माण के लिये साहित्य का बड़ा महत्व है। महापुरुषों की जीवन कथायें पढ़ने से स्वयं भी वैसा बनने की इच्छा होती है। विचारों को शक्ति व दृढ़ता प्रदान करने वाला साहित्य आत्म-निर्माण में बड़ा योग देता है। इससे आन्तरिक विशेषताएं जागृत होती हैं। अच्छी पुस्तकों से प्राप्त प्रेरणा सच्चे मित्र का कार्य करती हैं। इससे जीवन की सही दिशा का ज्ञान होता है। इसके विपरीत अश्लील साहित्य अधःपतन का कारण बनता है। जो साहित्य इन्द्रियों को उत्तेजित करे, उससे सदा सौ कोस दूर रहें। इनसे चरित्र दूषित होता है। साहित्य का चुनाव करते समय यह देख लेना अनिवार्य है कि उसमें मानवता के अनुरूप विषयों का सम्पादन हुआ है अथवा नहीं? यदि कोई पुस्तक ऐसी मिल जाय तो उसे ही सच्ची रामायण, गीता, उपनिषद् मानकर वर्णित आदर्शों से अपने जीवन को उच्च बनाने का प्रयास करें तो चारित्रिक संगठन की बार स्वतः पूरी होने लगती है।

हमारी वेषभूषा व खानपान भी हमारे विचारों तथा रहन-सहन को प्रभावित करते हैं। भड़कीले, चुस्त व अजीब फैशन के वस्त्र मस्तिष्क पर अपना दूषित प्रभाव डालने से चूकते नहीं। इनसे हर घड़ी सावधान रहें। वस्त्रों में सादगी और सरलता मनुष्य की महानता का परिचय है। इससे किसी भी अवसर पर कठिनाई नहीं पड़ती। मन और बुद्धि की निर्मलता, पवित्रता पर इनका बड़ा सौम्य प्रभाव पड़ता है। यही बात खान-पान के सम्बन्ध में भी है। आहार की सादगी और सरलता से विचार भी वैसे ही बनते हैं। मादक द्रव्य मिर्च, मसाले, मांस जैसे उत्तेजक पदार्थों से चरित्र-बल क्षीण होता है और पशुवृत्ति जागृत होती है। खान-पान की आवश्यकता स्वास्थ्य रहने के लिए होती है न कि विचार-बल को दूषित बनाने को। आहार में स्वाद-प्रियता से मनोविकार उत्पन्न होते हैं। अतः भोजन जो ग्रहण करें, वह जीवन रक्षा के उद्देश्य से हो तो भावनायें भी ऊर्ध्वगामी बनती है।

चरित्र-रक्षा प्रत्येक मूल्य पर की जानी चाहिये। इसके छोटे-छोटे कार्यों की भी उपेक्षा करना ठीक नहीं। उठना, बैठना, वार्तालाप, मनोरंजन के समय भी मर्यादाओं का पालन करने से उक्त आवश्यकता पूरी होती है। सभ्यता का चिह्न सच्चरित्र, सादा जीवन और उच्च विचारों को माना गया है। इससे जीवन में मधुरता और स्वच्छता का समावेश होता है। जीवन की सम्पूर्ण मलिनतायें नष्ट होकर नये प्रकाश का उदय होता है जिससे लोग अपना जीवन लक्ष्य तो पूरा करते ही हैं औरों को भी सुवासित तथा लाभान्वित करते हैं। जीवन सार्थकता की साधना चरित्र है। सच्चे सुख का आधार भी यही है। इसलिए प्रयत्न यही रहे कि हमारा चरित्र सदैव उज्ज्वल रहे, उद्दात्त रहे।

ईश्वर और विज्ञान.


ईश्वर और विज्ञान.

1970 के समय तिरुवनंतपुरम में समुद्र के पास एक बुजुर्ग भगवद्गीता पढ़ रहे थे। तभी एक नास्तिक और होनहार नौजवान उनके पास आकर बैठा, उसने उन पर कटाक्ष किया कि लोग भी कितने मूर्ख है विज्ञान के युग मे गीता जैसी ओल्ड फैशन्ड बुक पढ़ रहे है। उसने उन सज्जन से कहा कि आप यदि यही समय विज्ञान को दे देते तो अब तक देश ना जाने कहाँ पहुँच चुका होता, उन सज्जन ने उस नौजवान से परिचय पूछा तो उसने बताया कि वो कोलकाता से है और विज्ञान की पढ़ाई की है, अब यहाँ भाभा परमाणु अनुसंधान में अपना कैरियर बनाने आया है।

आगे उसने कहा कि आप भी थोड़ा ध्यान वैज्ञानिक कार्यो में लगाये भगवद्गीता पढ़ते रहने से आप कुछ हासिल नही कर सकोगे।

सज्जन मुस्कुराते हुए जाने के लिये उठे, उनका उठना था कि 4 सुरक्षाकर्मी वहाँ उनके आसपास आ गए, आगे ड्राइवर ने कार लगा दी, जिस पर लाल बत्ती लगी थी। लड़का घबराया और उसने उनसे पूछा "आप कौन है??"

उन सज्जन ने अपना नाम बताया 'विक्रम साराभाई' जिस भाभा परमाणु अनुसंधान में लड़का अपना कैरियर बनाने आया था, उसके अध्यक्ष वही थे।

उस समय विक्रम साराभाई के नाम पर 13 अनुसंधान केंद्र थे, साथ ही साराभाई को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने परमाणु योजना का अध्यक्ष भी नियुक्त किया था।

अब शर्मसार होने की बारी लड़के की थी, वो साराभाई के चरणों मे रोते हुए गिर पड़ा। तब साराभाई ने बहुत अच्छी बात कही, उन्होंने कहा "हर निर्माण के पीछे निर्माणकर्ता अवश्य है। इसलिए फर्क नही पड़ता ये महाभारत है या आज का भारत, ईश्वर को कभी मत भूलो।"

आज नास्तिक गण विज्ञान का नाम लेकर कितना नाच ले मगर इतिहास गवाह है कि विज्ञान ईश्वर को मानने वाले आस्तिकों ने ही रचा है, फिर चाहे वो किसी भी धर्म को मानने वाले क्यो ना हो।
ईश्वर सत्य है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

राजा पृथु की तपस्या और परलोक गमन.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- इस प्रकार महामनस्वी प्रजापति पृथु ने स्वयमेव अन्नादि तथा पुर-ग्रामदि सर्ग की व्यवस्था करके स्थावर-जगम सभी की आजीविका का सुभीता कर दिया तथा साधुजनोचित धर्मों का खूब पालन किया। ‘मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है और जिसके लिये मैंने इस लोक में जन्म लिया था, उस प्रजा रक्षणरूप ईश्वराज्ञा का पालन भी हो चुका है; अतः अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ- मोक्ष के लिये प्रयत्न करना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने अपने विरह में रोती हुई अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वी का भार पुत्रों को सौंप दिया और सारी प्रजा को बिलखती छोड़कर वे अपनी पत्नीसहित अकेले ही तपोवन को चल दिये। वहाँ भी वे वानप्रस्थ आश्रम के नियमानुसार उसी प्रकार कठोर तपस्या में लग गये, जैसे पहले गृहस्थाश्रम में अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वी को विजय करने में लगे थे।

कुछ दिन तो उन्होंने कन्द-मूल-फल खाकर बिताये, कुछ काल सूखे पत्ते खाकर रहे, फिर कुछ पखवाड़ों तक जल पर ही रहे और इसके बाद केवल वायु से ही निर्वाह करने लगे। वीरवर पृथु मुनिवृत्ति से रहते थे। गर्मियों में उन्होंने पंचाग्नियों का सेवन किया, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर अपने शरीर पर जल की धाराएँ सहीं और जाड़े में गले तक जल में खड़े रहे। वे प्रतिदिन मिट्टी की वेदी पर ही शयन करते थे। उन्होंने शीतोष्णदि सब प्रकार के द्वन्दों को सहा तथा वाणी और मन का संयम करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्राणों को अपने अधीन किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिये उन्होंने उत्तम तप किया। इस क्रम से उनकी तपस्या बहुत पुष्ट हो गयी और उसके प्रभाव से कर्ममल नष्ट हो जाने के कारण उनका चित्त सर्वथा शुद्ध हो गया। प्राणायाम के द्वारा मन और इन्द्रियों के निरुद्ध हो जाने से उनका वासनाजनित बन्धन गया। तब, भगवान् सनत्कुमार ने उन्हें जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोग की शिक्षा दी थी, उसी के अनुसार राजा पृथु पुरुषोत्तम श्रीहरि की आराधना करने लगे। इस तरह भगवत्परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचार का पालन करते हुए निरन्तर साधन करने से परब्रह्म परमात्मा में उनकी अनन्यभक्ति हो गयी।

इस प्रकार भगवदुपासना से अन्तःकरण शुद्ध-सात्त्विक हो जाने पर निरन्तर भगवच्चितन के प्रभाव के प्रभाव से प्राप्त हुई इस अनन्य भक्ति से उन्हें वैराग्यसहित प्राप्त हुई और फिर उस तीव्र ज्ञान के द्वारा उन्होंने जीव के उपाधिभूत अहंकार को नष्ट कर दिया, जो सब प्रकार के संशय-विपर्यय का आश्रय है। इसके पश्चात् देहात्मबुद्धि की निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण की अनुभूति होने पर अन्य सब प्रकार की सिद्धि आदि से भी उदासीन हो जाने के कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञान के लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायता से पहले अपने जीवकोश का नाश किया था, क्योंकि जब तक साधन को योगमार्ग के द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृत में अनुराग नहीं होता, तब तक केवल योगसाधना से उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होता- भ्रम नहीं मिटता। फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथु ने अपने चित्त को दृढ़तापूर्वक परमात्मा में स्थिर कर ब्रह्मभाव में स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया। उन्होंने एड़ी से गुदा के द्वार को रोककर प्राणवायु को धीरे-धीरे मूलाधार से ऊपर की ओर उठाते हुए उसे क्रमशः नाभि, हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तक में स्थित किया।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 42-63 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 42-63 का हिन्दी अनुवाद

राजा पृथु ने कहा- भगवन्! दीनदयाल श्रीहरि ने मुझ पर पहले कृपा की थी, उसी को पूर्ण करने के लिये आप लोग पधारे हैं। आप लोग बड़े ही दयालु हैं। जिस कार्य के लिये आप लोग पधारे थे, उसे आप लोगों ने अच्छी तरह सम्पन्न कर दिया। अब, इसके बदले में मैं आप लोगों को क्या दूँ ? मेरे पास तो शरीर और इसके साथ जो कुछ है, वह सब महापुरुषों का ही प्रसाद है।

ब्रह्मन्! प्राण, स्त्री, पुत्र सब प्रकार की सामग्रियों से भरा हुआ भवन, राज्य, सेना, पृथ्वी और कोश- यह सब कुछ आप ही लोगों का है, अतः आपके ही श्रीचरणों में अर्पित है। वास्तव में तो सेनापतित्व, राज्य, दण्डविधान और सम्पूर्ण लोकों के शासन का अधिकार वेद-शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों को ही है। ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपनी ही वस्तु दान देता है। दूसरे- क्षत्रिय आदि तो उसी की कृपा से अन्न खाने को पाते हैं। आप लोग वेद के पारगामी हैं, आपने अध्यात्मतत्त्व का विचार करके हमें निश्चित रूप से समझा दिया है कि भगवान् के प्रति इस प्रकार की अभेद-शक्ति ही उनकी उपलब्धि का प्रधान साधन है। आप लोग परम कृपालु हैं। अतः अपने इस दीनोद्धाररूप कर्म से ही सर्वदा सन्तुष्ट रहें। आपके इस उपकार का बदला कोई क्या दे सकता है? उसके लिये प्रयत्न करना भी अपनी हँसी कराना ही है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! फिर आदिराज पृथु ने आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ सनकादि की पूजा की और वे उनके शील ही प्रशंसा करते हुए सब लोगों के सामने ही आकाशमार्ग से चले गये। महात्माओं में अग्रगण्य महाराज पृथु उनके आत्मोपदेश पाकर चित्त की एकाग्रता से आत्मा में ही स्थित रहने के कारण अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव करने लगे। वे ब्रह्मार्पण-बुद्धि से समय, स्थान, शक्ति, न्याय और धन के अनुसार सभी कर्म करते थे। इस प्रकार एकाग्रचित्त से समस्त कर्मों का फल परमात्मा को अर्पण करके आत्मा को कर्मों का साक्षी एवं प्रकृति से अतीत देखने के कारण वे सर्वथा निर्लिप्त रहे। जिस प्रकार सूर्यदेव सर्वत्र प्रकाश करने पर भी वस्तुओं के गुण-दोष से निर्लेप रहते हैं, उसी प्रकार सार्वभौम साम्राज्य लक्ष्मी से सम्पन्न और गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी अहंकारशून्य होने के कारण वे इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं हुए।

इस प्रकार आत्मनिष्ठा में स्थित होकर सभी कर्तव्यकर्मों का यथोचित रीति से अनुष्ठान करते हुए उन्होंने अपनी भार्या अर्चि के गर्भ से अपने अनुरूप पाँच पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक थे। महाराज पृथु भगवान् के अंश थे। वे समय-समय पर, जब-जब आवश्यक होता था, जगत् के प्राणियों की रक्षा के लिये अकेले ही समस्त लोकपालों के गुण धारण कर लिया करते थे। अपने उदार मन, प्रिय और हितकर वचन, मनोहर मूर्ति और सौम्य गुणों के द्वारा प्रजा का रंजन करते रहने से दूसरे चन्द्रमा के समान उनका ‘राजा’ यह नाम सार्थक हुआ। सूर्य जिस प्रकार गरमी में पृथ्वी का जल खींचकर वर्षाकाल में उसे पुनः पृथ्वी पर बरसा देता है तथा अपनी किरणों से सबको ताप पहुँचाता है, उसी प्रकार वे कररूप से प्रजा का धन लेकर उसे दुष्कालादि के समय मुक्तहस्त से प्रजा के हित में लगा देते थे तथा सब पर अपना प्रभाव जमाये रखते थे। वे तेज में अग्नि के समान दुर्धर्ष, इन्द्र के समान अजेय, पृथ्वी के समान क्षमाशील और स्वर्ग के समान मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाले थे। समय-समय पर प्रजाजनों को तृप्त करने के लिये वे मेघ के समान उनके अभीष्ट अर्थों को खुले हाथ से लुटाते रहते थे। वे समुद्र के समान गम्भीर और पर्वतराज सुमेरु के समान धैर्यवान् भी थे।

महाराज पृथु दुष्टों का दमन करने में यमराज के समान, आश्चर्यपूर्ण वस्तुओं के संग्रह में हिमालय के समान, कोश की समृद्धि करने में कुबेर के समान और धन को छिपाने में वरुण के समान थे। शारीरिक बल, इन्द्रियों की पटुता तथा पराक्रम में सर्वत्र गतिशील वायु के समान और तेज की असह्ता में भगवान् शंकर के समान थे। सौन्दर्य में कामदेव के समान, उत्साह में सिंह के समान, वात्सल्य में मनु के समान और मनुष्यों के आधिपत्य में सर्वसमर्थ ब्रह्मा जी के समान थे। ब्रह्मविचार में बृहस्पति, इन्द्रियजय में साक्षात् श्रीहरि तथा गौ, ब्राह्मण, गुरुजन एवं भगवद्भक्तों की भक्ति, लज्जा, विनय, शील एवं परोपकार आदि गुणों में अपने ही समान (अनुपम) थे। लोग त्रिलोकी में सर्वत्र उच्च स्वर से उनकी कीर्ति का गान करते थे, इससे वे स्त्रियों तक के कानों में वैसे ही प्रवेश पाये हुए थे, जैसे सत्पुरुषों के हृदय में श्रीराम।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद

बाह्य जगत् में भी देखा जाता है कि जल, दर्पण आदि निमित्तों के रहने पर ही अपने बिम्ब और प्रतिबिम्ब का भेद दिखायी देता है, अन्य समय नहीं। जो लोग विषयचिन्तन में लगे रहते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयों में फँस जाती हैं तथा मन को भी उन्हीं की ओर खींच ले जाती हैं। फिर तो जैसे जलाशय के तीर पर उगे हुए कुशादि अपनी जड़ों से उसका जल खींचते रहते हैं, उसी प्रकार वह इन्द्रियासक्त मन बुद्धि की विचारशक्ति को क्रमशः हर लेता है। विचारशक्ति के नष्ट हो जाने पर पूर्वापर की स्मृति जाती रहती है और स्मृति का नाश हो जाने पर ज्ञान नहीं रहता। इस ज्ञान के नाश को ही पण्डितजन ‘अपने-आप अपना नाश करना’ कहते हैं। जिसके उद्देश्य से अन्य सब पदार्थों में प्रियता का बोध होता है- उस आत्मा का अपने द्वारा ही नाश होने से जो स्वार्थ हानि होती है, उससे बढ़कर लोक में जीव की और कोई हानि नहीं है।

धन और इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करना मनुष्य के सभी पुरुषार्थों का नाश करने वाला हैं; क्योंकि इनकी चिन्ता से वह ज्ञान और विज्ञान से भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म पाता है। इसलिये जिसे अज्ञानान्धकार से पार होने की इच्छा हो, उस पुरुष को विषयों में आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रप्ति में बड़ी बाधक है। इन चार पुरुषार्थों में भी सबसे श्रेष्ठ मोक्ष ही माना जाता है; क्योंकि अन्य तीन पुरुषार्थों में सर्वदा काल का भय लगा रहता है। प्रकृति में गुणक्षोभ होने के बाद जितने भी उत्तम और अधम भाव- पदार्थ प्रकट हुए हैं, उनमें कुशल से रह सके ऐसा कोई भी नहीं है। काल भगवान् उन सभी के कुशालों को कुचलते रहते हैं।

अतः राजन्! जो भगवान् देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि और अहंकार से आवृत्त सभी स्थावर-जंगम प्राणियों के हृदयों में जीव के नियामक अन्तर्यामी आत्मारूप से सर्वत्र साक्षात् प्रकाशित हो रहे हैं- उन्हें तुम ‘वह मैं ही हूँ’ ऐसा जानो। जिस प्रकार माला का ज्ञान हो जाने पर उसमें सर्पबुद्धि नहीं रहती, उसी प्रकार विवेक होने पर जिसका कहीं पता नहीं लगता, ऐसा यह मायामय प्रपंच जिसमें कार्य-कारणरूप से प्रतीत हो रहा है और जो स्वयं कर्मफल कलुषित प्रकृति से परे है, उस नित्यमुक्त, निर्मल और ज्ञानस्वरूप परमात्मा को मैं प्राप्त हो रहा हूँ।

संत-महात्मा जिनके चरणकमलों के अंगुलिदल हृदयग्रन्थि को, जो कर्मों से गठित है, इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डालते हैं कि समस्त इन्द्रियों का प्रत्याहार करके अपने अन्तःकरण को निर्विषय करने वाले संन्यासी भी वैसा नहीं कर पाते। तुम उन सर्वाश्रय भगवान् वासुदेव का भजन करो। जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरों से भरे हुए इस संसार सागर को योगादि दुष्कर साधनों से पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है; क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरि का आश्रय नहीं है। अतः तुम तो भगवान् के आराधनीय चरणकमलों को नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर समुद्र को पार कर लो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ब्रह्मा जी के पुत्र आत्मज्ञानी सनत्कुमार जी से इस प्रकार आत्मतत्त्व का उपदेश पाकर महाराज पृथु ने उनकी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- राजा पृथु के ये युक्तियुक्त, गम्भीर, परिमित और मधुर वचन सुनकर श्री सनत्कुमार जी बड़े प्रसन्न हुए और कुछ मुसकराते हुए कहने लगे।

श्रीसनत्कुमार जी ने कहा- महाराज! आपने सब कुछ जानते हुए भी समस्त प्राणियों के कल्याण की दृष्टि से बड़ी अच्छी बात पूछी है। सच है, साधुपुरुषों की बुद्धि ऐसी ही हुआ करती है। सत्पुरुषों का समागम श्रोता और वक्ता दोनों का ही अभिमत होता है, क्योंकि उसके प्रश्नोत्तर सभी का कल्याण करते हैं।

राजन्! श्रीमधुसूदन भगवान् के चरणकमलों के गुणानुवाद में अवश्य ही आपकी अविचल प्रीति है। हर किसी को इसका प्राप्त होना बहुत कठिन है और प्राप्त हो जाने पर यह हृदय के भीतर रहने वाले उस वासनारूप मल को सर्वथा नष्ट कर देती है, जो और किसी उपाय से जल्दी नहीं छुटता। शास्त्र जीवों के कल्याण के लिये भलीभाँति विचार करने वाले हैं; उनमें आत्मा से भिन्न देहादि के प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप निर्गुण ब्रह्म में सुदृढ़ अनुराग होना- यही कल्याण का साधन निश्चित किया गया है। शास्त्रों का यह भी कहना है कि गुरु और शास्त्रों के वचनों में विश्वास रखने से, भागवत धर्मों का आचरण करने से, तत्त्वजिज्ञासा से, ज्ञानयोग की निष्ठा से, योगेश्वर श्रीहरि की उपासना से, नित्यप्रति पुण्यकीर्ति श्रीभगवान् की पावन कथाओं को सुनने से, जो लोग धन और इन्द्रियों के भोगों में ही रत हैं उनकी गोष्ठी में प्रेम न रखने से, उन्हें प्रिय लगने वाले पदार्थों का आसक्तिपूर्वक संग्रह न करने से, भगवद्पुराणमृत का पान करने के सिवा अन्य समय आत्मा में ही सन्तुष्ट रहते हुए एकान्तसेवन में प्रेम रखने से, किसी भी जीव को कष्ट न देने से, निवृत्तिनिष्ठा से, आत्महित का अनुसन्धान करते रहने से, श्रीहरि के पवित्र चरित्ररूप श्रेष्ठ अमृत का आस्वादन करने से, निष्कामभाव से यम-नियमों का पालन करने से, कभी किसी की निन्दा न करने से, योगक्षेम के लिये प्रयत्न न करने से, शीतोष्णदि द्वन्दों को सहन करने से, भक्तजनों के कानों को सुख देने वाले श्रीहरि के गुणों का बार-बार वर्णन करने से और बढ़ते हुए भक्तिभाव से मनुष्य का कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जड़ प्रपंच से वैराग्य हो जाता है और आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्म में अनायास ही उसकी प्रीति हो जाती है।

परब्रह्म में सुदृढ़ प्रीति हो जाने पर पुरुष सद्गुरु की शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्य के प्रबल वेग के कारण वासनाशून्य हुए अपने अविद्यादि पाँच प्रकार के क्लेशों से युक्त अहंकारात्मक अपने लिंग शरीर को वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकड़ी से प्रकट होकर फिर उसी को जला डालती है। इस प्रकार लिंग देह का नाश हो जाने पर वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणों से मुक्त हो जाता है। फिर तो जैसे स्वप्नावस्था में तरह-तरह के पदार्थ देखने पर भी उससे जग पड़ने पर उनमें से कोई चीज दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीर के बाहर दिखायी देने वाले घट-पटादि और भीतर अनुभव होने वाले सुख-दुःखादि को भी नहीं देखता। इस स्थिति के प्राप्त होने से पहले ये पदार्थ ही जीवात्मा और परमात्मा के बीच में रहकर उनका भेद कर रहे थे। जब तक अन्तःकरणरूप उपाधि रहती है, तभी तक पुरुष को जीवात्मा, इन्द्रियों के विषय और इन दोनों का सम्बन्ध कराने वाले अहंकार का अनुभव होता है; इसके बाद नहीं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

महाराज पृथु को सनकादिका उपदेश.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- जिस समय प्रजाजन परमपराक्रमी पृथ्वीपाल पृथु की इस प्रकार प्रार्थना कर रहे थे, उसी समय वहाँ सूर्य के समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आये। राजा और उनके अनुचरों ने देखा तथा पहचान लिया कि वे सिद्धेश्वर अपनी दिव्य कान्ति से सम्पूर्ण लोकों को पाप निर्मुक्त करते हुए आकाश से उतरकर आ रहे हैं। राजा के प्राण सनकादिकों का दर्शन करते ही, जैसे विषयी जीव विषयों की ओर दौड़ता है, उनकी ओर चल पड़े- मानो उन्हें रोकने के लिये ही वे अपने सदस्यों और अनुयायियों के साथ एकाएक उठकर खड़े हो गये। जब वे मुनिगण अर्ध्य स्वीकार कर आसन पर विराज गये, तब शिष्टाग्रणी पृथु ने उनके गौरव से प्रभावित हो विनयवश गरदन झुकाये हुए उनकी विधिवत् पूजा की। फिर उनके चरणोदक को अपने सिर के बालों पर छिड़का। इस प्रकार शिष्टाजनोचित आचार का आदर तथा पालन करके उन्होंने यही दिखाया कि सभी सत्पुरुषों को ऐसा व्यवहार करना चाहिये। सनकादि मुनीश्वर भगवान् शंकर के अग्रज हैं। सोने के सिंहासन पर वे ऐसे सुशोभित हुए, जैसे अपने-अपने स्थानों पर अग्नि देवता। महाराज पृथु ने बड़ी श्रद्धासंयम के साथ प्रेमपूर्वक उनसे कहा।

पृथु जी ने कहा- मंगलमूर्ति मुनीश्वरों! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं; मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है जिससे स्वतः आपका दर्शन प्राप्त हुआ। जिस पर ब्राह्मण अथवा अनुचरों के सहित श्रीशंकर या विष्णु भगवान्प्रसन्न हों, उसके लिये इहलोक और परलोक में कौन-सी वस्तु दुर्लभ है। इस दृश्य-प्रपंच के कारण महत्त्वादि यद्यपि सर्वगत हैं, तो भी वे सर्वसाक्षी आत्मा को नहीं सकते; इसी प्रकार यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरते रहते हैं, तो भी अनधिकारी लोग आपको देख नहीं पाते। जिनके घरों में आप-जैसे पूज्य पुरुष उनके जल, तृण, पृथ्वी, गृहस्वामी अथवा सेवकादि किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार कर लेते हैं, वे गृहस्थ धनहीन होने पर भी धन्य हैं। जिन घरों में कभी भगवद्भक्तों के परम पवित्र चरणोदक के छींटे नहीं पड़े, वे सब प्रकार की ऋषि-सिद्धियों से भरे होने पर भी ऐसे वृक्षों के समान है कि जिन पर साँप रहते हैं।

मुनीश्वरों! आपका स्वागत है। आप लोग तो बाल्यावस्था से ही मुमुक्षुओं के मार्ग का अनुसरण करते हुए एकाग्रचित्त से ब्रह्मचर्यादि महान् व्रतों का बड़ी श्रद्धापूर्वक आचरण कर रहे हैं। स्वामियों! हम लोग अपने कर्मों के वशीभूत होकर विपत्तियों के क्षेत्ररूप इस संसार में पड़े हुए केवल इन्द्रियसम्बन्धी भोगों को ही परम पुरुषार्थ मान रहे हैं; सो क्या हमारे निस्तार का भी कोई उपाय है। आप लोगों से कुशल प्रश्न करना उचित नहीं है, क्योंकि आप निरन्तर आत्मा में रमण करते हैं। आपमें यह कुशल है और यह अकुशल है- इस प्रकार की वृत्तियाँ कभी होती ही नहीं। आप संसारानल से सन्तप्त जीवों के परम सुहृद् हैं, इसलिये आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में मनुष्य का किस प्रकार सुगमता से कल्याण हो सकता है? यह निश्चय है कि जो आत्मवान् (धीर) पुरुषों में ‘आत्मा’ रूप से प्रकाशित होते हैं और उपासकों के हृदय में अपने स्वरूप को प्रकट करने वाले हैं, वे अजन्मा भगवान् नारायण ही अपने भक्तों पर कृपा करने के लिये आप-जैसे सिद्ध पुरुषों के रूप में इस पृथ्वी पर विचरा करते हैं।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 44-52 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 44-52 का हिन्दी अनुवाद

उस गुणवान्, शीलसम्पन्न, कृतज्ञ और गुरुजनों की सेवा करने वाले पुरुष के पास सारी सम्पदाएँ अपने-आप आ जाती हैं। अतः मेरी तो यही अभिलाषा है कि ब्राह्मण कुल, गोवंश और भक्तों के सहित श्रीभगवान् मुझ पर प्रसन्न रहें।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- महाराज पृथु का यह भाषण सुनकर देवता, पितर और ब्राह्मण आदि सभी साधुजन बड़े प्रसन्न हुए और ‘साधु! साधु!’ यों कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कहा, ‘पुत्र के द्वारा पिता पुण्यलोकों को प्राप्त कर लेता है’ यह श्रुति यथार्थ है; पापी वेन ब्राह्मणों के शाप से मारा गया था; फिर भी इनके पुण्यबल से उसका नरक से निस्तार हो गया।

इसी प्रकार हिरण्यकशिपु भी भगवान् की निन्दा करने के कारण नरकों में गिरने वाला ही था कि अपने पुत्र प्रह्लाद के प्रभाव से उन्हें पार कर गया।

वीरवर पृथु जी! आप तो पृथ्वी के पिता ही हैं और सब लोकों के एकमात्र स्वामी श्रीहरि में भी आपकी ऐसी अविचल भक्ति है, इसलिये आप अनन्त वर्षों तक जीवित रहें। आपका सुयश बड़ा पवित्र है; आप उदारकीर्ति ब्राह्मण्यदेव श्रीहरि की कथाओं का प्रचार करते हैं। हमारा बड़ा सौभाग्य है; आज आपको अपने स्वामी के रूप में पाकर हम अपने को भगवान् के ही राज्य में समझते हैं।

स्वामिन्! अपने आश्रितों को इस प्रकार का श्रेष्ठ उपदेश देना आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि अपनी प्रजा के ऊपर प्रेम रखना तो करुणामय महापुरुषों का स्वभाव ही होता है। हम लोग प्रारब्धवश विवेकहीन होकर संसारारण्य में भटक रहे थे; सो प्रभो! आज आपने हमें इस अज्ञानान्धकार के पार पहुँचा दिया। आप शुद्ध सत्त्वमय परम पुरुष हैं, जो ब्राह्मण जाति में प्रविष्ट होकर क्षत्रियों की और क्षत्रिय जाति में प्रविष्ट होकर ब्राह्मणों की तथा दोनों जातियों में प्रतिष्ठित होकर सारे जगत् की रक्षा करते हैं। हमारा आपको नमस्कार है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद

जिनके चरणकमलों की सेवा के लिये निरन्तर बढ़ने वाली अभिलाषा उन्हीं के चरणनख से निकली हुई गंगाजी के समान, संसारताप से संतप्त जीवों के समस्त जन्मों के संचित मनोमल को तत्काल नष्ट कर देती है, जिनके चरणतल का आश्रय लेने वाला पुरुष सब प्रकार के मानसिक दोषों को धो डालता तथा वैराग्य और तत्त्वसाक्षात्काररूप बल पाकर फिर इस दुःखमय संसार चक्र में नहीं पड़ता और जिनके चरणकमल सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं-उन प्रभु को आप लोग अपनी-अपनी आजीविका के उपयोगी वर्णाश्रमोचित अध्यापनादि कर्मों तथा ध्यान-स्तुति-पुजादि मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रियाओं के द्वारा भजें। हृदय में किसी प्रकार का कपट न रखें तथा यह निश्चय रखें कि हमें अपने-अपने अधिकारानुसार इसका फल अवश्य प्राप्त होगा।

भगवान् स्वरूपतः विशुद्ध विज्ञानघन और समस्त विशेषणों से रहित हैं; किन्तु इस कर्ममार्ग में जौ-चावल आदि विविध द्रव्य, शुक्लादि गुण, अवघात (कूटना) आदि क्रिया एवं मन्त्रों के द्वारा और अर्थ, आशय (संकल्प), लिंग (पदार्थ-शक्ति) तथा ज्योतिष्टोम आदि नामों से सम्पन्न होने वाले, अनेक विशेषण युक्त यज्ञ के रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नि भिन्न-भिन्न काष्ठों में उन्हीं के आकारादि के अनुरूप भासती है, उसी प्रकार वे सर्वव्यापक प्रभु परमानन्दस्वरूप होते हुए भी प्रकृति, काल, वासना और अदृष्टि से उत्पन्न हुए शरीर में विषयाकार बनी हुई बुद्धि में स्थित होकर उन यज्ञ-यागादि क्रियाओं के फलरूप से अनेक प्रकार के जान पड़ते हैं।

अहो! इस पृथ्वीतल पर मेरे जो प्रजाजन यज्ञ-भोक्ताओं के अधीश्वर सर्वगुरु श्रीहरि का एकनिष्ठ भाव से अपने-अपने धर्मों के द्वारा निरन्तर पूजन करते हैं, वे मुझ पर बड़ी कृपा करते हैं। सहनशीलता, तपस्या और ज्ञान इन विशिष्ट विभूतियों के कारण वैष्णव और ब्राह्मणों के वंश स्वभावतः ही उज्ज्वल होते हैं। उन पर राजकुल का तेज, धन, ऐश्वर्य आदि समृद्धियों के कारण अपना प्रभाव न डाले। ब्रह्मादि समस्त महापुरुषों में अग्रगण्य, ब्राह्मण भक्त, पुराणपुरुष श्रीहरि ने भी निरन्तर इन्हीं के चरणों की वन्दना करके अविचल लक्ष्मी और संसार को पवित्र करने वाली कीर्ति प्राप्त की है।

आप लोग भगवान् के लोक संग्रहरूप धर्म का पालन करने वाले हैं तथा सर्वान्तर्यामी स्वयंप्रकाश ब्राह्मण प्रिय श्रीहरि विप्रवंश की सेवा करने से ही परम सन्तुष्ट होते हैं, अतः आप सभी को सब प्रकार से विनयपूर्वक ब्राह्मण कुल की सेवा करनी चाहिये। इनकी नित्य सेवा करने से शीघ्र ही चित्त शुद्ध हो जाने के कारण मनुष्य स्वयं ही (ज्ञान और अभ्यास आदि के बिना ही) परम शान्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतः लोक में इन ब्राह्मणों से बढ़कर दूसरा कौन है जो हविष्यभोजी देवताओं का मुख हो सके?

उपनिषदों के ज्ञानपरक वचन एकमात्र जिनमें ही गतार्थ होते हैं, वे भगवान् अनन्त इन्द्रादि यज्ञीय देवताओं के नाम से तत्त्वज्ञानियों द्वारा ब्राह्मणों के मुख में श्रद्धापूर्वक हवन किये हुए पदार्थ को जैसे चाव से ग्रहण करते हैं, वैसे ही चेतनाशून्य अग्नि में होमे हुए द्रव्य को नहीं ग्रहण करते। सभ्यगण! जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में प्रतिबिम्ब का भान होता है-उसी प्रकार जिससे इस सम्पूर्ण प्रपंच का ठीक-ठीक ज्ञान होता है, उस नित्य, शुद्ध और सनातन ब्रह्म (वेद) को जो परमार्थ-तत्त्व की उपलब्धि के लिये श्रद्धा, तप, मंगलमय आचरण, स्वाध्यायविरोधी वार्तालाप के त्याग तथा संयम और समाधि के अभ्यास द्वारा धारण करते हैं, उन ब्राह्मणों के चरणकमलों की धूलि को मैं आयु पर्यन्त अपने मुकुट पर धारण करूँ; क्योंकि उसे सर्वदा सिर पर चढ़ाते रहने से मनुष्य के सारे पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण गुण उसकी सेवा करने लगते हैं।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


उनके बाल बारीक, घुँघराले, काले और चिकने थे; गरदन शंख के समान उतार-चढ़ाव वाली तथा रेखाओं से युक्त थी और वे उत्तम बहुमूल्य धोती पहने और वैसी ही चादर ओढ़े थे। दीक्षा के नियमानुसार उन्होंने समस्त आभूषण उतार दिये थे; इसी से उनके शरीर के अंग-प्रत्यंग की शोभा अपने स्वाभाविक रूप में स्पष्ट झलक रही थी। वे शरीर पर कृष्णमृग का चर्म और हाथों में कुशा धारण किये हुए थे। इससे उनके शरीर की कान्ति और भी बढ़ गयी थी। वे अपने सारे नित्यकृत्य यथाविधि सम्पन्न कर चुके थे। राजा पृथु ने मानो सारी सभा को हर्ष से सराबोर करते हुए अपने शीतल एवं स्नेहपूर्ण नेत्रों से चारों ओर देखा और फिर अपना भाषण प्रारम्भ किया। उनका भाषण अत्यन्त सुन्दर, विचित्र पदों से युक्त, स्पष्ट, मधुर, गम्भीर एवं निश्शंक था। मानो उस समय वे सबका उपकार करने के लिये अपने अनुभव का ही अनुवाद कर रहे हों।

राजा पृथु ने कहा- सज्जनों! आपका कल्याण हो। आप महानुभाव, जो यहाँ पधारे हैं, मेरी प्रार्थना सुनें-जिज्ञासु पुरुषों को चाहिये कि संत-समाज में अपने निश्चय का निवेदन करें। इस लोक में मुझे प्रजाजनों का शासन, उनकी रक्षा, उनकी आजीविका का प्रबन्ध तथा उन्हें अलग-अलग अपनी मर्यादा रखने के लिये राजा बनाया गया है। अतः इनका यथावत् पालन करने से मुझे उन्हीं मनोरथ पूर्ण करने वाले लोकों की प्राप्ति होनी चाहिये, जो वेदवादी मुनियों के मतानुसार सम्पूर्ण कर्मों के साक्षी श्रीहरि के प्रसन्न होने पर मिलते हैं। जो राजा प्रजा को धर्ममार्ग की शिक्षा न देकर केवल उससे कर वसूल करने में लगा रहता है, वह केवल प्रजा के पाप का ही भागी होता है और अपने ऐश्वर्य से हाथ धो बैठता है। अतः प्रिय प्रजाजन! अपने इस राजा का परलोक में हित करने के लिये आप लोग परस्पर दोषदृष्टि छोड़कर हृदय से भगवान् को याद रखते हुए अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते रहिये; क्योंकि आपका स्वार्थ भी इसी में है और इस प्रकार मुझ पर भी आपका बड़ा अनुग्रह होगा।

विशुद्धचित्त देवता, पितर और महर्षिगण! आप भी मेरी इस प्रार्थना का अनुमोदन कीजिये; क्योंकि कोई भी कर्म हो, मरने के अनन्तर उसके कर्ता, उपदेष्टा और समर्थक को उसका समान फल मिलता है। माननीय सज्जनों! किन्हीं श्रेष्ठ महानुभावों के मत में तो कर्मों का फल देने वाले भगवान् यज्ञपति ही हैं; क्योंकि इहलोक और परलोक दोनों ही जगह कोई-कोई शरीर बड़े तेजोमय देखे जाते हैं। मनु, उत्तानपाद, महीपति ध्रुव, राजर्षि प्रियव्रत, हमारे दादा अंग तथा ब्रह्मा, शिव, प्रह्लाद, बलि और इसी कोटि के अन्यान्य महानुभावों के मत में तो धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग तथा स्वर्ग और अपवर्ग के स्वाधीन नियामक, कर्म फलदातारूप से भगवान् गदाधर की आवश्यकता है ही। इस विषय में तो केवल मृत्यु के दौहित्र वेन आदि कुछ शोचनीय और धर्मविमूढ़ लोगों का ही मतभेद है। अतः उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं हो सकता।

सम्भावनाओं की सुबह, संघर्षों के दिन.

सम्भावनाओं की सुबह,
संघर्षों के दिन.
(डॉ. प्रणव पण्ड्या)
इक्कीसवीं सदी के इस नववर्ष ने देश और धरती को सम्भावनाओं की सुबह का अनूठा उपहार दिया है। इस नये वर्ष 2020 में सम्भावनाएँ हैं, भविष्य के नये उजाले की, नयी मुस्कराहटों की, नयी समृद्धि एवं खुशहाली की। लेकिन इन सम्भावनाओं को साकार करने में संघर्ष भी कम नहीं है। सुबह यदि सम्भावनाओं की है तो दिन संघर्षों का है। हाँ यह सच है कि नववर्ष की हर नयी सुबह-सम्भावनाओं के नये संदेश लायेगी, पर इन्हें साकार वही कर पायेंगे जो नये साल के हर दिन को अपने संघर्षों की चुनौती समझेंगे। यह सच व्यक्ति के जीवन का है तो परिवार के जीवन का भी। समाज, राष्ट्र और विश्व भी इससे अलग नहीं है।

नववर्ष के पटल पर उभर रहे दृश्यों की गहरी पड़ताल करें तो एक ही सच सब के लिए है कि प्रकृति एवं प्रवृत्ति में बढ़ रहे अंधाधुंध प्रदूषण को रोकना है। क्योंकि इसी ने उज्ज्वल भविष्य की सभी सम्भावनाओं को रोक रखा है। प्रकृति में असंतुलित प्रदूषण ने ही भूकम्प, बाढ़ जैसी विनाशकारी आपदाओं के भयावह दृश्य खड़े किये हैं। दिल-दहला देने वाली इन महा-आपदाओं से उपजी करुण-कराह की अनसुनी भला कौन कर सकता है? ठीक यही, बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा तबाही इंसानी प्रवृत्तियों में आये प्रदूषण ने की है।

इंसान की अपनी ही प्रदूषित प्रवृत्तियाँ हैं जो रोज नये बम धमाके करती हैं। सामूहिक हत्या एवं खौफनाक संहार के विद्रूप आयोजन करती हैं। इंसानियत का संघर्ष इन्हीं से है। संवेदनशीलों को अपने अंदर बलिदानी साहस पैदा करना है। प्रकृति एवं प्रवृत्ति के इस विनाशकारी ताण्डव नर्तन को आज और अभी से रोकना है। अब यह न पूछें कि शुरुआत कहाँ से करनी है?

क्योंकि इसके जवाब में सारी ऊँगलियाँ हमारी अपनी ओर ही उठ रही हैं। व्यक्ति के रूप में हमें ही व्यक्तिगत शुरुआत करनी है। समाज के जिम्मेदार घटक के रूप में हमें ही इसके सामूहिक आयोजन करने हैं। यह जिम्मेदारी राष्ट्रीय भी है और विश्व भर की भी। स्वस्थ प्रकृति एवं स्वच्छ प्रवृत्ति को अपना ध्येय वाक्य माने बिना उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ साकार नहीं होंगी। लेकिन इसे कर वही पायेंगे जो अपनी हर सुबह को सम्भावनाओं की सुबह और हर दिन को संघर्षों का दिन बना लेंगे।



जिसे आप नही पचा सकते हो उसे भला कोई और कैसे पचा पायेगा?


जिसे आप नही पचा सकते हो
उसे भला कोई और कैसे पचा पायेगा?

राजा अक्षय का राज्य बहुत सुन्दर, समृध्द और शांत था। राजा महावीर और एक पराक्रमी योद्धा थे, परन्तु सुरक्षा को लेकर अक्षय कुछ तनाव में रहते थे क्योंकि सूर्यास्त के बाद शत्रु अक्सर उनके राज्य पर घात लगाकर आक्रमण करते रहते थे परन्तु कभी किसी शत्रु को कोई विशेष सफलता न मिली क्योंकि उनका राज्य एक किले पर स्थित था और पहाडी की चढ़ाई नामुंकिन थी और कोई भी शत्रु दिन में विजय प्राप्त नही कर सकता था.!

राज्य में प्रवेश के लिये केवल एक दरवाजा था और दरवाजे को बँद कर दे तो शत्रु लाख कोशिश के बावजूद भी अक्षय के राज्य का कुछ नही बिगाड़ सकते थे.!
मंत्री राजकमल हमेशा उस दरवाजे को स्वयं बँद करते थे.!

एकबार मंत्री और राजा रात के समय कुछ विशेष मंत्रणा कर रहे थे तभी शत्रुओं ने उन्हे बन्दी बनाकर कालकोठरी में डाल दिया.!

कालकोठरी में राजा और मंत्री बातचीत कर रहे थे ......

अक्षय - क्या आपने अभेद्य दरवाजे को ठीक से बन्द नही किया था मंत्री जी.?

राजकमल - नही राजन मैंने स्वयं उस दरवाजे को बन्द किया था.!

वार्तालाप चल ही रही थी कि वहाँ शत्रु चंद्रेश अपनी रानी व उसके भाई के साथ वहाँ पहुँचा, जब अक्षय ने उन्हे देखा तो अक्षय के होश उड़ गये और राजा अक्षय अपने गुरुदेव से मन ही मन क्षमा प्रार्थना करने लगे.! फिर शत्रु व उसकी रानी वहाँ से चले गये.!

राजकमल - क्या हुआ राजन? किन विचारों में खो गये.?

अक्षय - ये मैं तुम्हे बाद में बताऊँगा, पहले यहाँ से बाहर जाने की तैयारी करो.!

राजकमल - पर इस अंधेर कालकोठरी से बाहर निकलना लगभग असम्भव है राजन.!

अक्षय - आप उसकी चिन्ता न कीजिये, कल सूर्योदय तक हम यहाँ से चले जायेंगे.! क्योंकि गुरुदेव ने भविष्य को ध्यान में रखते हुये कुछ विशेष तैयारियाँ करवाई थी.!

कालकोठरी से एक गुप्त सुरंग थी, जो सीधी राज्य के बाहर निकलती थी, जिसकी पूरी जानकारी राजा के सिवा किसी को न थी और उनके गुरुदेव ने कुछ गहरी राजमय सुरंगों का निर्माण करवाया था और राजा को सख्त आदेश दिया था कि इन सुरंगों का राज किसी को न देना, राजा रातोंरात वहाँ से निकलकर मित्र राष्ट्र में पहुँचे, सैना बनाकर पुनः आक्रमण किया और पुनः अपने राज्य को पाने में सफल रहे।

परन्तु इस युध्द में उनकी प्रिय रानी, उनका पुत्र और आधी से ज्यादा जनता समाप्त हो चुकी थी! जहाँ चहु-ओर वैभव और समृद्धता थी, राज्य शान्त था, खुशहाली थी, आज चारों तरफ सन्नाटा पसरा था- मानो सबकुछ समाप्त हो चुका था!

राजकमल - हॆ राजन मॆरी अब भी ये समझ में नही आया की वो अभेद्य दरवाजा खुला कैसे? शत्रु ने प्रवेश कैसे कर लिया? जब की हमारा हर एक सैनिक पुरी तरह से वफादार है आखिर गलती किसने की?

अक्षय - वो गलती मुझसे हुई थी, मंत्रीजी! और इस तबाही के लिये मैं स्वयं को जिम्मेदार मानता हूँ। यदि मैंने गुरू आदेश का उल्लंघन न किया होता तो आज ये तबाही न आती। मॆरी एक गलती ने सबकुछ समाप्त कर दिया.!

राजकमल - कैसी गलती राजन?

अक्षय - शत्रु की रानी का भाई जयपाल कभी मेरा बहुत गहरा मित्र हुआ करता था और उसके पिता अपनी पुत्री का विवाह मुझसे करना चाहते थे पर विधि को कुछ और स्वीकार था और फिर एक छोटे से जमीनी विवाद की वजह से वो मुझे अपना शत्रु मानने लगा! और इस राज्य में प्रवेश का एक और दरवाजा है जो गुरुदेव और मेरे सिवा कोई न जानता था और गुरुदेव ने मुझसे कहा था की शत्रु कब मित्र बन जाये और मित्र कब शत्रु, कोई नही जानता है इसलिये जिन्दगी में एक बात हमेशा याद रखना की जो राज तुम्हे बर्बाद कर सकता है, उस राज को राज ही रहने देना कोई कितना भी घनिष्ठ क्यों न हो उसे भी वो राज कभी मत बताना, जिसकी वजह से तुम्हारा पतन हो सकता है!

और बस यही पर मैंने वो गलती कर दी और वो राज उस मित्र को जा बताया जो शत्रु की रानी का भाई था! जो कभी मित्र था, राजदार था, वही आगे जाकर शत्रु हो गया इसीलिये आज ये हालात हो गये!

राजा राज्य को चारों तरफ से सुरक्षित करके मंत्री को सोप दिया और स्वयं वन को चले गये.!

ऐसा कोई भी राज जो गोपनीय रखा जाना बहुत आवश्यक हो जिस राज के बेपर्दा होने पर किसी प्रकार का अमंगल हो सकता है, सम्भवतः उसे घनिष्ठ से घनिष्ठ व्यक्ति को भी मत बताना क्योंकि काल के गर्भ में क्या छिपा, कौन जाने? जिसे आप स्वयं राज नही रख सकते हो, उसकी उम्मीद किसी और से क्यों करते हो कि वह उस राज को राज बनाये रखेगा.?

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

महाराज पृथु का अपनी प्रजा को उपदेश.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! उस समय महाराज पृथु का नगर सर्वत्र मोतियों की लड़ियों, फूलों की मालाओं, रंग-बिरंगे वस्त्रों, सोने के दरवाजों और अत्यन्त सुगन्धित धूपों से सुशोभित था। उसकी गलियाँ, चौक और सड़कें चन्दन और अरगजे के जल से सींच दी गयी थीं तथा उसे पुष्प, अक्षत, फल, यवांकुर, खील और दीपक आदि मांगलिक द्रव्यों से सजाया गया गया। वह ठौर-ठौर पर रखे हुए फल-फूल के गुच्छों से युक्त केले के खंभों और सुपारी के पौधों से बड़ा ही मनोहर जान पड़ता था तथा सब ओर आम आदि वृक्षों के नवीन पत्तों की बंदनवारों से विभूषित था।

जब महाराज ने नगर में प्रवेश किया, तब दीपक, उपहार और अनेक प्रकार की मांगलिक सामग्री लिये हुए प्रजाजनों ने तथा मनोहर कुण्डलों से सुशोभित सुन्दरी कन्याओं ने उनकी अगवानी की। शंख और दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे, ऋत्विजगण वेदध्वनि करने लगे, वन्दीजनों ने स्तुतिगान आरम्भ कर दिया। यह सब देख और सुनकर भी उन्हें किसी प्रकार का अहंकार नहीं हुआ। इस प्रकार वीरवर पृथु ने राजमहल में प्रवेश किया। मार्ग में जहाँ-तहाँ पुरवासी और देशवासियों ने उनका अभिनन्दन किया।

परमयशस्वी महाराज ने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अभीष्ट वर देकर सन्तुष्ट किया। महाराज पृथु महापुरुष और सभी के पूजनीय थे। उन्होंने इसी प्रकार के अनेकों उदार कर्म करते हुए पृथ्वी का शासन किया और अन्त में अपने विपुल यश का विस्तार कर भगवान् का परमपद प्राप्त किया।

सूत जी कहते हैं- मुनिवर शौनक जी! इस प्रकार भगवान् मैत्रेय के मुख से आदिराज पृथु का अनेक प्रकार के गुणों से सम्पन्न और गुणवानों द्वारा प्रशंसित विस्तृत सुयश सुनकर परम भागवत विदुर जी ने उनका अभिनन्दन करते हुए कहा।

विदुर जी बोले- ब्रह्मन्! ब्राह्मणों ने पृथु का अभिषेक किया। समस्त देवताओं ने उन्हें उपहार दिये। उन्होंने अपनी भुजाओं में वैष्णव तेज को धारण किया और उससे पृथ्वी का दोहन किया। उनके उस पराक्रम के उच्छिष्टरूप विषय भोगों से ही आज भी सम्पूर्ण राजा तथा लोकपालों के सहित समस्त लोक इच्छानुसार जीवन-निर्वाह करते हैं। भला, ऐसा कौन समझदार होगा जो उनकी पवित्र कीर्ति सुनना न चाहेगा। अतः अभी आप मुझे उनके कुछ और भी पवित्र चरित्र सुनाइये।

श्रीमैत्रे जी ने कहा- साधुश्रेष्ठ विदुर जी! महाराज पृथु गंगा और यमुना के मध्यवर्ती देश में निवास कर अपने पुण्यकर्मो के क्षय की इच्छा से प्रारब्धवश प्राप्त हुए भोगों को ही भोगते थे। ब्राह्मणवंश और भगवान् के सम्बन्धी विष्णुभक्तों को छोड़कर उनका सातों द्वीपों के सभी पुरुषों पर अखण्ड एवं अबाध शासन था।

एक बार उन्होंने एक महासत्र की दीक्षा ली; उस समय वहाँ देवताओं, ब्रह्मार्षियों और राजर्षियों का बहुत बड़ा समाज एकत्र हुआ। उस समाज में महाराज पृथु ने उन पूजनीय अतिथियों का यथायोग्य सत्कार किया और फिर उस सभा में, नक्षत्रमण्डल में चन्द्रमा के समान खड़े हो गये। उनका शरीर ऊँचा, भुजाएँ भरी और विशाल, रंग गोरा, नेत्र कमल के समान सुन्दर और अरुणवर्ण, नासिका सुघड़, मुख मनोहर, स्वरूप सौम्य, कंधे ऊँचे और मुस्कान से युक्त दन्तपंक्ति सुन्दर थी। उनकी छाती चौड़ी, कमर का पिछला भाग स्थूल और उदर पीपल के पत्ते के समान सुडौल तथा बल पड़े हुए होने से और भी सुन्दर जान पड़ता था। नाभि भँवर के समान गम्भीर थी, शरीर तेजस्वी था, जंघाएँ सुवर्ण के समान देदीप्यमान थीं तथा पैरों के पंजे उभरे हुए थे।



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 28-38 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 28-38 का हिन्दी अनुवाद

जगदीश्वर! जगज्जननी लक्ष्मी जी के हृदय में मेरे प्रति विरोधभाव होने की संभावना तो है ही; क्योंकि जिस आपके सेवाकार्य में उनका अनुराग है, उसी के लिये मैं भी लालायित हूँ। किन्तु आप दीनों पर दया करते हैं, उनके तुच्छ कर्मों को भी बहुत करके मानते हैं। इसलिये मुझे आशा है कि हमारे झगड़े में भी आप मेरा ही पक्ष लेंगे। आप तो अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं; आपको भला, लक्ष्मी जी से भी क्या लेना है। इसी से निष्काम महात्मा ज्ञान हो जाने के बाद भी आपके भजन करते हैं। आप में माया के कार्य अहंकारदि का सर्वथा अभाव है। भगवन्! मुझे तो आपके चरणकमलों का निरन्तर चिन्तन करने के सिवा सत्पुरुषों का कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता। मैं भी बिना किसी इच्छा के आपका भजन करता हूँ, आपने जो मुझसे कहा कि ‘वर माँग’ सो आपकी इस वाणी को तो मैं संसार को मोह में डालने वाली ही मानता हूँ। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणी ने भी तो जगत् को बाँध रखा है। यदि उस वेदवाणीरूप रस्सी से लोग बँधे न होते, तो वे मोहवश सकाम कर्म क्यों करते? प्रभो! आपकी माया से ही मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आपसे विमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्त्री-पुत्रादि की इच्छा करता है। फिर भी जिस प्रकार पिता पुत्र की प्रार्थना कि अपेक्षा न रखकर अपने-आप ही पुत्र का कल्याण करता है, उसी प्रकार आप भी हमारी इच्छा की अपेक्षा न करके हमारे हित के लिये स्वयं ही प्रयत्न करें।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- आदिराज पृथु के इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वसाक्षी श्रीहरि ने उनसे कहा, ‘राजन्! तुम्हारी मुझमे भक्ति हो। बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा चित्त इस प्रकार मुझमें लगा हुआ है। ऐसा होने पर तो पुरुष सहज में ही मेरी उस माया को पार कर लेता है, जिसको छोड़ना या जिसके बन्धन से छूटना अत्यन्त कठिन है। अब तुम सावधानी से मेरी आज्ञा का पालन करते रहो। प्रजापालक नरेश! जो पुरुष मेरी आज्ञा का पालन करता है, उसका सर्वत्र मंगल होता है’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार भगवान् ने राजर्षि पृथु के सारगर्भित वचनों का आदर किया। फिर पृथु ने उनकी पूजा की और प्रभु उन पर सब प्रकार कृपा कर वहाँ से चलने को तैयार हुए। महाराज पृथु ने वहाँ जो देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, सिद्ध, चारण, नाग, किन्नर, अप्सरा, मनुष्य और पक्षी आदि अनेक प्रकार के प्राणी एवं भगवान् के पार्षद आये थे, उन सभी का भगवदबुद्धि से भक्तिपूर्वक वाणी और धन के द्वारा हाथ जोड़कर पूजन किया। इसके बाद वे सब अपने-अपने स्थानों को चले गये। भगवान् अच्युत भी राजा पृथु एवं उनके पुरोहितों का चित्त चुराते हुए अपने धाम को सिधारे। तदनन्तर अपना स्वरूप दिखाकर अन्तर्धान हुए अव्यक्तस्वरूप देवाधिदेव भगवान् को नमस्कार करके राजा पृथु भी अपनी राजधानी में चले आये।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! तुम्हारे गुणों ने और स्वभाव ने मुझको वश में कर लिया है। अतः तुम्हे जो इच्छा हो, मुझसे वर माँग लो। उन क्षमा आदि गुणों से रहित यज्ञ, तप अथवा योग के द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है, मैं तो उन्हीं के हृदय में रहता हूँ जिनके चित्त में समता रहती है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! सर्वलोकगुरु श्रीहरि के इस प्रकार कहने पर जगद्विजयी महाराज पृथु ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की।

देवराज इन्द्र अपने कर्म से लज्जित होकर उनके चरणों पर गिरना ही चाहते थे कि राजा ने उन्हें प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया और मनोमालिन्य निकाल दिया। फिर महाराज पृथु ने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान् का पूजन किया और क्षण-क्षण में उमड़ते हुए भक्तिभाव में निमग्न होकर प्रभु के चरणकमल पकड़ लिये। श्रीहरि वहाँ से जाना चाहते थे; किन्तु पृथु के प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था, उसने उन्हें रोक लिया। वे अपने कमलदल के समान नेत्रों से उनकी ओर देखते ही रह गये, वहाँ से जा न सके।

आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रों में जल भर आने के कारण न तो भगवान् का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जाने से कुछ बोल ही सके। उन्हें हृदय से आलिगन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये। प्रभु अपने चरणकमलों से पृथ्वी को स्पर्श किये खड़े थे; उनका कराग्रभाग गरुड़ जी के ऊँचे कंधे पर रखा हुआ था। महाराज पृथु नेत्रों के आँसू पोंछकर अतृप्त दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे।

महाराज पृथु बोले- मोक्षपति प्रभो! आप वर देने वाले ब्रह्मादि देवताओं को भी वर देने में समर्थ हैं। कोई भी बुद्धिमान् पुरुष आपसे देहाभिमानियों के भोगने योग्य विषयों को कैसे माँग सकता है? वे तो नारकी जीवों को भी मिलते ही हैं। अतः मैं इन तुच्छ विषयों को आपसे नहीं माँगता। मुझे तो उस मोक्षपद की भी इच्छा नहीं है, जिसमें महापुरुषों के हृदय से उनके मुख द्वारा निकला हुआ आपके चरणकमलों का मकरन्द नहीं है-जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुनने का सुख नहीं मिलता। इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपके लीलागुणों को सुनता ही रहूँ।

पुण्यकीर्ति प्रभो! आपके चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृत-कणों को लेकर महापुरुषों के मुख से जो वायु निकलती है, उसी में इतनी शक्ति होती है कि वह तत्त्व को भूले हुए हम कुयोगियों को पुनः तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरों की कोई आवश्यकता नहीं है।

उत्तम कीर्ति वाले प्रभो! सत्संग में आपके मंगलमय सुयश को दैववश एक बार भी सुन लेने पर कोई पशुबुद्धिपुरुष भले ही तृप्त हो जाये; गुणग्राही उसे कैसे छोड़ सकता है? सब प्रकार के पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये स्वयं लक्ष्मी जी भी आपके सुयश को सुनना चाहती हैं। अब लक्ष्मी जी के समान मैं भी अत्यन्त उत्सुकता से आप सर्वगुणधाम पुरुषोत्तम की सेवा ही करना चाहता हूँ। किन्तु ऐसा न हो कि एक ही पति की सेवा प्राप्त करने की होड़ होने के कारण आपके चरणों में ही मन को एकाग्र करने वाले हम दोनों में कलह छिड़ जाये।




श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

महाराज पृथु की यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान् का प्रादुर्भाव.

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! महाराज पृथु के निन्यानबे यज्ञों से यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु को भी बड़ा सन्तोष हुआ। उन्होंने इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित होकर उनसे कहा। श्रीभगवान् ने कहा- राजन! (इन्द्र ने) तुम्हारे सौ अश्वमेध पूरे करने के संकल्प में विघ्न डाला है। अब ये तुमसे क्षमा चाहते हैं, तुम इन्हें क्षमा कर दो।

नरदेव! जो श्रेष्ठ मानव साधु और सद्बुद्धि-सम्पन्न होते हैं, वे दूसरे जीवों से द्रोह नहीं करते; क्योंकि यह शरीर ही आत्मा नहीं है। यदि तुम-जैसे लोग भी मेरी माया से मोहित हो जायें, तो समझना चाहिये कि बहुत दिनों तक की हुई ज्ञानीजनों की सेवा से केवल श्रम ही हाथ लगा। ज्ञानवान् पुरुष इस शरीर को अविद्या, वासना और कर्मों का ही पुतला समझकर इसमें आसक्त नहीं होता। इस प्रकार जो इस शरीर में ही आसक्त नहीं है, यह विवेकी पुरुष इससे उत्पन्न हुए घर, पुत्र और धन आदि में भी किस प्रकार ममता रख सकता है।

यह आत्मा एक, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निर्गुण, गुणों का आश्रयस्थान, सर्वव्यापक, आवरणशून्य, सबका साक्षी एवं अन्य आत्मा से रहित है; अतएव शरीर से भिन्न है। जो पुरुष इस देहस्थित आत्मा को इस प्रकार शरीर से भिन्न जानता है, वह प्रकृति से सम्बन्ध रखते हुए भी उसके गुणों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसकी स्थिति मुझ परमात्मा में रहती है।

राजन्! जो पुरुष किसी प्रकार की कामना न रखकर अपने वर्णाश्रम के धर्मों द्वारा नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक मेरी आराधना करता है, उसका चित्त धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है। चित्त शुद्ध होने पर उसका विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है। जो पुरुष यह जानता है कि शरीर, ज्ञान, क्रिया और मन का साक्षी होने पर भी कूटस्थ आत्मा उनसे निर्लिप्त ही रहता है, वह कल्याणमय मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।

राजन्! गुणप्रवाहरूप आवाहन तो भूत, इन्द्रिय, इन्द्रियाभिमानी देवता और चिदाभास- इन सबकी समष्टिरूप परिच्छिन्न लिंग शरीर का ही हुआ करता है; इसका सर्वसाक्षी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है। मुझमें दृढ़ अनुराग रखने वाले बुद्धिमान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति प्राप्त होने पर कभी हर्ष-शोकादि विकारों के वशीभूत नहीं होते। इसलिये वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम पुरुषों में समान भाव रखकर सुख-दुःख को भी एक-सा समझो तथा मन और इन्द्रियों को जीतकर मेरे ही द्वारा जुटाये हुए मन्त्री आदि समस्त राजकीय पुरुषों की सहायता से सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करो। राजा का कल्याण प्रजा पालन में ही है। इससे उसे परलोक में प्रजा के पुण्य का छठा भाग मिलता है। इसके विपरीत जो राजा प्रजा की रक्षा तो नहीं करता; किंतु उससे कर वसूल करता जाता है, उसका सारा पुण्य तो प्रजा छीन लेती है और बदले में उसे प्रजा के पाप का भागी होना पड़ता है। ऐसा विचार कर यदि तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों की सम्मति और पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुए धर्म को ही मुख्यतः अपना लो और कहीं भी आसक्त न होकर इस पृथ्वी का न्यायपूर्वक पालन करते रहो तो सब लोग तुमसे प्रेम करेंगे और कुछ ही दिनों में तुम्हें घर बैठे ही सनकादि सिद्धों के दर्शन होंगे।

साभार krishnakosh.or