साम्य भाव से सिद्धि.




साम्य भाव से सिद्धि.                                         (पं. तुलसीराम जी शास्त्री, वृन्दावन)

समता- सब प्राणियों में आत्मीयता का, बराबरी का भाव रखना, अति उत्तम आध्यात्मिक गुण है। साम्य भाव मनुष्योचित आवश्यक तत्व है, इसे व्यक्तिगत जीवन में नित्य काम में लाना चाहिए। सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र में भी समता की हर प्रणाली का प्रसार करना चाहिए। नीचे पद्म -पुराण के कुछ श्लोक दिये जाते हैं। तुलाधार की असाधारण सिद्धियों को देखकर, नरोत्तम ने ब्राह्मण वेषधारी भगवान से पूछा था कि इसके पास इतनी सिद्धियाँ होने का क्या कारण है? भगवान ने उसे बताया कि समता समस्त सिद्धियों की जननी है। तुलाधार साम्य भावी है, इसीलिए उसे इतनी सिद्धियाँ प्राप्त हैं।

सत्येन सम भावेन जितं तेन जगत्त्रयम्। तेनातृप्यन्त पितरो देवा मुनि गणैः सह॥ 

भूत भव्य प्रवृतं च तेन जानाति धार्मिकः। नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्॥ 
विशेषे सम भावस्य पुरुषस्यानघस्य च। अरि मित्रेप्युदासीने मनोयस्य समं व्रजेत्।। 
सर्व पाप क्षयस्तस्य विष्णु सायुँयताँ व्रजेत्। 
समोधर्मः समः र्स्वगः समं हि परमं तपः॥ यरयैव मानसे नित्यं समः स पुरुषोत्तमः। 
विशेषे सर्व लोकेषु समो योगिष्वलोलुपः।। 
एवं यो वर्तते नित्यं कुल कोटि समुद्धेरेत्। सत्यं दभः शमश्चैव धैर्यस्थैर्यमलोभता॥ 
अनार्श्चयमनालस्यं तस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्। नवै देव लोकस्य नर लोकस्य सर्वशः॥ 
जानाति धर्मज्ञस्तस्य देहे स्थितो हरिः। के तस्य समोनास्ति समः सत्यार्जवेषु च॥ 
(पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अध्याय 47)

हे ब्रह्मन्! उस धर्मात्मा तुलाधार ने सत्य और समता से तीनों लोकों को जीत लिया है। इसी से उसके पितर, देवता और मुनि सब प्रसन्न रहते हैं। इन्हीं गुणों के कारण यह भूत और भविष्यत् की सब बातें जानता है। सत्य से बढ़कर कोई धर्म और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं है जो पुरुष पाप से रहित और समभाव में स्थिर है, जिसका चित्त शत्रु मित्र और उदासीन के प्रति समान है, उसके सब पापों का नाश हो जाता है और वह विष्णु भगवान के सायुज्य को प्राप्त होता है। समता, धर्म और समता ही उत्कृष्ट तपस्या है। जिसके हृदय में सदा समता विराजती है वही पुरुष सम्पूर्ण लोकों में श्रेष्ठ, योगियों में गणना करने योग्य और निर्लोभ होता है। जो सदा इसी प्रकार समतापूर्ण बर्ताव करता है वह अपनी अनेकों पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। उस पुरुष में सत्य, इन्द्रिय संयम, मनोनिग्रह, धीरता, स्थिरता, निर्लोभता और आलस्य हीनता ये सभी गुण प्रतिष्ठित होते हैं। समता के प्रभाव से धर्मज्ञ पुरुष देवलोक और मनुष्य लोक के सम्पूर्ण वृत्तांतों को जान लेता है। उसकी देह के भीतर साक्षात श्री विष्णु भगवान विराजमान रहते हैं। सत्य और सरलता आदि गुणों में उसकी समानता करने वाला इस संसार में दूसरा कोई नहीं होता। वह साक्षात् धर्म का स्वरूप होता है और वही इस जगत को धारण करता है।


(अखंड ज्योति, 1945)

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