"नैतिकता."

नैतिकता.

           नैतिक मूल्यों का संरक्षण हर हालत में होना ही चाहिए महाभारत कर्ण-पर्व के अध्याय 90 में एक कथा आती है कि खण्डन वन में एक महा सर्प रहता था-नाम था "अश्वसेन"। वन में आग लगी। उस अग्नि काँड का निमित्त अर्जुन को माना गया। अग्नि काँड में अश्वसेन की माता चक्षुश्रक मर गई। इस पर उसे बहुत क्रोध आया और अर्जुन से बदला लेने के लिए घात लगाने लगा।

           कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत रचा गया। कर्ण और अर्जुन आमने-सामने थे। अश्वसेन ने उपयुक्त अवसर देखा और वह बाण का रूप धारण करके कर्ण के तरकस में जा घुसा। अर्जुन पर प्रहार करते समय कर्ण के हाथ में संयोगवश वही बाण आया जिसमें अश्वसेन समाया हुआ था। बाण का अटपटा पन देखकर शल्य ने कहा- “महाभाग! यह बाण कुछ बेतुका सा है। धनुष पर बाण दूसरा चढ़ाओ। तो ठीक रहेगा। कर्ण ने दर्प पूर्वक कहा- “शल्य! मैं दोबारा लक्ष्य नहीं देखता और एक बार बाण को धनुष पर चढ़ा कर फिर उसे नहीं उतारता।’ ऐसा कहकर उसने धनुष साधा और बाण को लक्ष्य की ओर छोड़ा।

           कृष्ण ने इस महा भयंकर बाण को आते देखकर रथ के घोड़ों को जमीन पर बिठा दिया सो बाण के प्रहार से अर्जुन का मुकुट भर कटा उसका सिर बच गया।

           अश्वसेन का क्रोध शान्त न हुआअर्जुन के बच जाने से उसे बहुत दुख हुआ। अब की बार वह अपने असली स्वरूप में कर्ण के पास पहुँचा और बोला-’हे महाबली! पिछली बार तुमने मेरा पराक्रम जाने बिना ही बाण रूप में मुझे असावधानी से छोड़ा था उसी से अर्जुन बच गया। अबकी बार तुम ध्यानपूर्वक मुझे छोड़ो। इससे मेरा और तुम्हारा समान रूप से शत्रु-अर्जुन निश्चित रूप से मृत्यु के मुख में चला जायेगा।

            ‘कर्ण ने पूछा-भद्र तुम कौन हो और किस निमित्त मेरे तरकस में प्रवेश करते हो? अश्वसेन ने कहा- ’मैं विकराल विषधर महासर्प हूँ। अर्जुन ने मेरा देश जलाया है, सो मैं उससे बदला लूँगा। अपने पुरुषार्थ से उसे डस नहीं सका सो अब मैं तुम्हारी सहायता लेकर अपने शत्रु से प्रतिशोध लेना चाहता हूँ।

           कर्ण ने बड़ा मार्मिक उत्तर दिया और बोला- ’हे नाग! मैं अपने ही पुरुषार्थ से विजय पाना चाहता हूँ। द्वेष बुद्धि से छद्म का आश्रय लेकर तुम जिस प्रकार मेरी सहायता करना चाहते हो उसकी अपेक्षा तो मुझे पराजय भी स्वीकार है। हे तात! जो होगा सो मैं भुगतूँगा, तुम तो सुखपूर्वक अपने घर चले जाओ। किसी भी मूल्य पर सफलता पाने और कुछ भी करके मनोवाँछा पूरी करने की अपेक्षा असफल रहना और हारना श्रेयस्कर है। नैतिक मूल्यों का संरक्षण हर हालत में होना ही चाहिये, चाहे उससे अपने स्वार्थों को कितना ही आघात क्यों न लगता हो?

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