“भगवान् श्रीरामका सौन्दर्य”
(पूज्यपाद प॰ श्रीरामकिंकरजी उपाध्याय)
(पूज्यपाद प॰ श्रीरामकिंकरजी उपाध्याय)
जिन आँखिन में तुम रूप बस्यौ, उन आँखिन सौं अब देखिऐ का।
जहाँ तक मानव सौन्दर्य का सम्बन्ध है, अन्तःसौन्दर्य ही सौन्दर्य है; परंतु भगवान् राम के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। जीव के समान उनमें अन्तर-बाहर दो नहीं हैं। वे जैसे स्वरूपतः सच्चिदानन्दघन हैं, वैसे ही शरीरत:, उनका शरीर नित्य निर्विकार एवं सच्चिदानन्दमय है –
चिदानंदमय देह तुम्हारी । (मानस २/१२६/३)
इसी से उसके बाह्य कहे जाने वाले भाग में भी वही सौन्दर्य है और वह इतना है कि कवि स्वयं उसके वर्णन में, नहीं-नहीं कल्पना में भी सकुचाता है।
विदेह नगर के राज-पथ पर भगवान् श्रीराम अपने छोटे भाई श्रीलक्ष्मण के साथ राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरते हुए मंथर गति से आगे बढ़ रहे हैं। ‘लोक-लोचन-सुखदाता’, ‘सुखनिधान’ दोनों भाइयों की अत्यन्त सुहावनी मूर्ति देखकर ‘बालक-वृन्द’ संग लग गये हैं और वे उनके सौन्दर्य-रस का पान कर रहे हैं। बात-की-बात में यह समाचार सारे नगर में फ़ैल गया। सब लोग अपने-अपने काम-धाम त्याग कर दौड़ पड़े – अपने लोचनों का लाभ लेने के लिये। श्याम-गौर जुगल राजकुमारों की सहज-सौन्दर्य-सुधा का पान करके सब अनिर्वचनीय आनन्द में डूब गए। सब-के-सब विस्मित, चकित और मौन हो गये। युवतियाँ अपने-अपने भवनों के झरोखों पर आ लगीं। हृदय अनुराग के रंग में रँग गया। आँखें निर्निमेष होकर रूप-रस का पान करने में प्रमत्त हो गयीं। वाणी स्वयं ही हृदय के गुप्त भाव सहेलियों पर प्रकट करने लगीं – ‘मेरी प्यारी सखी ! इन्होंने तो कोटि-कोटि काम के शोभा को भी मात कर दिया। क्या किसी लोक में, किसी पुरुष में ऐसा सौन्दर्य देखा-सुना गया है ? –
‘सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहिं ।‘ (मानस १/२१९/३)
किसी सखी ने कहा – ‘सुना है, सब देवताओं में ब्रह्मा-विष्णु-महेश सर्वश्रेष्ठ हैं और परम सुन्दर भी हैं।‘ दूसरी ने कहा – ‘धत् पगली। कहीं चार हाथ, चार मुख या पाँच मुख वाले भी सुन्दर हो सकते हैं ? किसी के हाथ में पाँच उँगलियों के स्थान में छः हो जायँ तो क्या वह सुन्दर लगता है? इनके सौन्दर्य के सामने वे क्या होते हैं ?’
बिष्नु चारि भुज बिधिमुख चारि । बिकट बेष मुख पंच पुरारी ।।
अपर देउ अस कोउ न आही । यह छबि सखी पटतरिअ जाही ।। (मानस १/ २१९/४)
सखियोंने ‘कोटि-कोटि सत काम’ को एक-एक अंग पर निछावर कर दिया और चुनौती दे दी –
कहहु सखी अस को तनुधारी । जो न मोह यह रूप निहारी ।। (मानस १/२२०/१)
जान पड़ता है, विदेह नगर के नागरिकों की यह आलोचना अविलम्ब देवताओं तक पहुँच गयी। उन लोगों में खलबली मच गयी। ‘क्या कहीं मानव सौन्दर्य भी ऐसा हो सकता है? अवश्य ही अनुशय का आन्तर सौन्दर्य देवताओं से श्रेष्ठ हो सकता है, परंतु बाह्य सौन्दर्य तो हम देवताओं का ही श्रेष्ठ होता है। क्या राम मानव हैं? कदापि नहीं, वे साक्षात् परिपूर्णतम ब्रह्म हैं।
आओ, चलें, आज इस बात का निर्णय ही हो जाय कि उनका सौन्दर्य किस कोटि का है ?’ देव-सभा ने सर्वसम्मति से पाँच प्रतिनिधि, यों कहिये पाँच पंच चुन दिये। भगवान् विष्णु, भगवान् शंकर,प्रजापति ब्रह्मा, देवराज इन्द्र और देव-सेनापति कार्तिकेय – सब अपने को साज-सँवार कर, वाहनों पर बैठ विदेह-नगर में पहुँचे। उस समय बारात निकल रही थी। भगवान् श्रीराम भुवन-मोहन, कामाभिराम, परम सुन्दर अश्व को नचाते हुए आगे बढ़ रहे थे। भगवान् शंकर की दृष्टि पड़ी। रोम-रोम आनन्द से थिरक उठा। पाँचों मुखोंके दसों नेत्र छककर स्तब्ध हो गये । अन्य पाँच नेत्र संहारक होनेके कारण पहले तो बंद ही रक्खे । इन्होंने ही तो परम सुन्दर काम को भी भस्म कर दिया था। परंतु रामरूप की मोहनी उन पर भी चल गयी। वे खुले और तत्काल अपनी सारी गर्मी को गलाकर ठंडे हो गये। इस सौन्दर्य का क्या अद्भुत जादू है ! भगवान् शंकर ने अनुराग में भरकर सोचा, “मुझे भले ही कोई ‘विकट’ वेश कहे, हमें तो यह पंद्रह नेत्र ही अत्यन्त प्यारे हैं।“
संकरु राम रूप अनुरागे । नयन पंच दस अति प्रिय लागे ।। (मानस १/३१६/१)
चतुर्मुख ब्रह्मा ने भी श्रीराम-रूप-सुधा-माधुरी का पान किया; परंतु वे एक साथ ही ‘हरषाने’ और ‘पछताने’ भी लगे। यद्यपि रामरूप के दर्शन से हृदय में आनन्द का समुद्र उमड़ रहा है, फिर भी भगवान् शंकर की अपेक्षा घाटे में रहने के कारण पश्चाताप भी हो रहा है। यदि मेरे प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र होते तो कम-से-कम बारह नेत्रों से तो इस सौंदर्य का सेवन करता। यों लोक पितामह ब्रह्मा छक भी रहे थे और और पछता भी रहे थे –
निरखि राम छबि बिधि हरषाने । आठइ नयन जानि पछिताने ।। (मानस १/३१६/२)
चराचर जगत् में विष्णु-भगवान् सबसे सुन्दर हैं। समुद्र-मन्थन के समय सबकी जाँच-पड़ताल करके लक्ष्मीजी ने इनका वरण किया था। दोनों ही सुन्दर हैं और सौन्दर्य के पारखी भी। एक ही साथ दोनों ने भर आँख अश्व नचाते हुए, दूल्हा के वेष में बने कौशलकिशोर श्रीरामचन्द्र को देखा। शरीर की सुध-बुध जाती रही। रूप की मोहनी चल गयी। सबको लुभाने वाला स्वयं लुभा गया, मोहित हो गया –
हरि हित सहित रामु जब जोहे । रमा समेत रमापति मोहे ।।(मानस १/३१६/२)
स्वामिकार्तिक तो फूले नहीं समाते थे। ब्रह्मा का पौत्र उनसे डेवढा पड़ गया। छः सर और बारह आँखे । रोम-रोम से हृदय का उत्साह फूटा पड़ता था। वे भगवान् राम की ओर निहारते-निहारते उमंग भरी मुसुकान से कभी-कभी ब्रह्माजी की ओर भी देख लेते –
सुर सनेप उर बहुत उछाहू । बिधि ते डेवढ लोचन लाहू ।। (मानस १/३१६/३)
देवराज इन्द्र को सब लोग असुंदर मानते हैं। सारे शरीर में आँख-ही-आँख। यह मानो उनके दुराचार की घोषणा थी। देवता-दानव सबकी ऊँगली उठ जाती। इन्द्र का सिर लज्जा से झुक जाता। परंतु आज अपने सहस्र-सहस्र नेत्रों से छबिधाम श्रीराम को देखकर वे अपना जीवन सफल कर रहे हैं और महर्षि गौतम के शाप को परम कृपा मान रहे हैं। महर्षि शाप न देते तो यह अनिन्द्य सौन्दर्य सहस्र नेत्रों से देखने को कहाँ मिलता। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, स्वामिकार्तिक – सभी आज इन्द्र के सौभाग्य पर आश्चर्यचकित हो रहे हैं, उसको सराह रहे है और कह रहे हैं –
‘ आजू पुरंदर सम कोउ नाहीं । ‘ (मानस १/३१६/४)
यह तो देवलोक की बात रही, मानव-लोक में इस सौन्दर् याने साधारण मोहिनी नहीं डाली; क्या थलचर, क्या नभचर, क्या जलचर – सभी इस अनुपम सुघराईपर रीझ गये हैं।
भगवान् राम वन के बीहड़ मार्ग में चले जा रहे हैं। सहज क्रूर साँप, बिच्छू एक बार उनके कोमल चरणों की ओर देखते ही स्तब्ध रह गये। साहस नहीं हुआ कि इन सुकुमार चरणों को कष्ट दें –
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी । तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी ।। (मानस २/२६१/४)
‘साँपिनि’ भी यहाँ साभिप्राय है। सर्पिणी अपने पुत्रों को भक्षण कर जाती है। इससे अधिक क्रूरता क्या होगी? पर उसकी क्रूरता को भी इस भुवनमोहन सौन्दर्य ने शान्त कर दिया।
आकाश में उड़ते हुए पक्षी भी उड़ना छोड़, वृक्षों पर बैठ एकटक राम के सौन्दर्यको निहारने लगे। बटोही राम को देखते-देखते उनके चित्त को चुराकर चलते बने और वे ठगे-से बैठे रहे।
जलचरों की अवस्था तो और भी विलक्षण हो रही है। समुद्र पर पुल बँध चुका, पर सेना की बहुलता के सामने पुल की विशालता नगण्य थी। चतुर-चूडामणि ने इसका बड़ा विलक्षण उपाय निकाला। वे जाकर पुल के एक किनारे खड़े हो गये। समुद्र की शोभा देखने के लिये। क्षण-भर में सारा समुद्र कूर्मों से आवृत हो गया। इस रूप-सुधा के पान में वे इतने तल्लीन हो गये कि उनके शरीर की सुध-बुध जाती रही। उनका आपसी सहज वैर भूल गये। वे हटाने पर भी नहीं हटते।
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा । प्रगट भए सब जलचर बृंदा ।।
प्रभुहि बिलोकत टरहिं न टारे । मन हरषित सब भए सुखारे ।।
तिन्हकी ओट न देखिअ बारी । मगन भए हरि रूप निहारी ।। (मानस ६/३/२,४)
भगवान ने वानरों को आज्ञा दी, ‘आप लोग इन जलचरों के ऊपर से पार हों।‘ बड़े-बड़े विशालकाय वानर उनके शरीर पर से होते हुए पार हो गये। पर उन्हें इस रूप दर्शन में इतना आनन्द आ रहा था कि उन्हें पता भी न चला कि कोई हम पर से पार हुआ –
सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं ।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहिं जाहिं ।। (मानस ६/४)
यह है सौन्दर्य का जादू अब आइये कुछ मानवों की दशा देखिये ....
जो लोग सौन्दर्य को सत्य मानते हैं, उन साधारण मानवों की बात हम नहीं करते; हम तो उनकी चर्चा करते हैं, जो इस नाम-रूपात्मक सम्पूर्ण विश्व को मिथ्या मानते हैं बड़ा-से-बड़ा लोभ या भय भी उन्हें अपनी निष्ठा से विचलित करने में समर्थ नहीं होता। पर राम के सौन्दर्य ने इस असम्भव कार्य को सम्भव कर दिखाया।
जनकजी अपने समय के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानियों में एक थे। सारा दृश्य जगत् उनकी दृष्टि में मिथ्या था। अत्यधिक आत्मलीन रहने के कारण उन्हें अपनी देह की भी स्मृति नहीं रहती थी और इसीलिए उन्हें सदेह होते हुए भी ‘विदेह’ कहा जाता था। किसी भी इन्द्रिय का विषय उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने में असमर्थ था। बड़े-बड़े अरण्यवासी तपस्वी भी प्रणत-भाव से उनके यहाँ ज्ञानोपदेश लेने आते थे। उनकी महत्ता को मानस में इस प्रकार अंकित किया गया है –
जे बिरंचि निरलेप उपाए । पदुम पत्र जिमि जग जल जाए ।। (मानस २/३१६/४)
जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा । बचन किरन मुनि कमल बिकासा ।। (मानस २/२७६/१)
किंतु साँवरे राजकुमार की एक झाँकी ने ही उन्हें अपनी निष्ठा से च्युत कर दिया। विश्वामित्रजी के साथ आये हुए इन राजकुमारों को एक बार आँख उठाकर देखा; फिर क्या था – टकटकी बँध गयी, हृदय से ब्रह्मानन्द ने निकलकर न जाने कब इस परमानन्द समुद्र में डेरा डाल दिया। राजा ने अपने विचार से अपने को बचाने की बड़ी चेष्टा की, पर नेत्र उनके आदेश को सुनते ही न थे। उनका सहज विरागी मन रागी बनकर बेकाबू हो गया। उन्हें लग रहा था – यह सौन्दर्य मिथ्या नहीं, सत्य है; और इधर सभी लोग जनक की इस पराजय पर मुस्करा रहे थे। विश्वामित्र ने एक व्यंगभरी मुस्कान से पूछा – ‘ज्ञानिराज ! तुम्हारी यह क्या अवस्था ?’ और तब उन्होंने स्वयं अपनी अवस्था का वर्णन कर दिया –
सहज बिराग रूप मनु मोरा । थकित होत जिमि चंद चकोरा ।।
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ।।(मानस १/२१५/२-३)
इस रूपानन्द के सामने, भला, वह ब्रह्मसुख है भो किस गणना में ?
सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति ।। (मानस ७/८८ख)
पर यह प्रवृत्ति-मार्ग के ज्ञानाचार्य की बात है। आइये, हम परम-निवृत्ति-परायण सनत्कुमारादि की ओर चलें। वे तो साक्षात् भगवान् ही हैं। चारों महर्षि बहुकालीन होते हुए भी बालक की-सी अवस्था में यत्र-तत्र घूमा करते थे। उकी महत्ता मानस में इस प्रकार बतायी गयी है –
ब्रह्मानंद सदा लयलीना । देखत बालक बहुकालीना ।।
रूप धरें जनु चारिउ बेदा । समदरसी मुनि बिगत बिभेदा ।। (मानस ७/३१/२-३)
एक बार जब वे दंडकारण्य में अगस्त्यजी से रामकथा श्रवण कर रहे थे, एक प्रसंग ने उन्हें कुछ आश्चर्यान्वित कर दिया – ‘राम के सौन्दर्य को देखते ही जनकजी ज्ञाननिष्ठा से च्युत हो गए।‘ असम्भव ! ज्ञानी की रूप पर आसक्ति – विश्वास ही नहीं होता था उन्हें। अगस्त्यजी उनके विचारोंको भाँप गये । आपने मुस्कुराकर कहा – ‘अच्छा हो कि आपलोग भी एक बार परीक्षा करके देखें।‘ चल पड़े अयोध्या की ओर। आज उन्हें राम के सौन्दर्य की परीक्षा लेनी थी। पता चला, भगवान् अँवराई में विश्राम कर रहे हैं – वहीं महर्षि पहुँचे। चारों की दृष्टि एक साथ भगवान् के कोटि-काम-कमनीय मन्दस्मित-युक्त मुख पर पड़ी। फिर क्या था। पलकें स्थिर हो गयीं, नेत्रों से झर-झर आनन्द के आँसू बह रहे थे; वे लोग अपने मन को रोकने के लिये ज्ञान को खोज रहे थे, पर न जाने वह कबका हृदय से निकल कर भाग चुका था। भगवान् इस दृश्य को देखकर मुस्करा पड़े। तीनों भाई आपस में संकेत करते हुए हँस रहे थे –
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकि । भए मगन मन सके न रोकी ।।
स्यामल गात सरोरुह लोचन । सुंदरता मंदिर भव मोचन ।।
एकटक रहे निमेष न लावहिं । प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं ।। (मानस ७/३२/१-२)
यश की श्रेष्ठता की सबसे बड़ी कसौटी शत्रु है –
सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान ।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान ।। (मानस १/१४क)
और जब हम इस दृष्टिकोण से भगवान् राम के सौन्दर्य को देखते हैं, तब स्तम्भित हो जाना पड़ता है। शत्रु भी साधारण नहीं, घोर क्रूरकर्मा नरभक्षी राक्षस। उनके कठोर स्वभाव का चित्रण कवि ने एक ही अर्धाली में कर दिया –
‘सपनेहु जिन्हके धरम न दाया’
सहस्र देव, गन्धर्व, यक्ष, मानव निरपराध होते हुए भी उनकी तीक्ष्ण-धार तलवार के द्वारा टुकड़े-टुकड़े किये जा चुके थे। फिर राम ने तो त्रैलोक्यविजयी राक्षसाधिपति रावण की बहन के नाक-कान कटवा लिये थे। शूर्पणखा के द्वारा यह समाचार सुनते ही खर-दूषन-त्रिशिरा क्रोध में जल उठे। ‘एक छोकरे का इतना साहस? अभी इसका फल चखाते हैं।‘ चौदह हजार दानवी सेना क्षण भर में अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो गयी और गर्जना करती हुई राम की कुटिया की ओर चल पड़ी। आकाश धुल से पट गया। भगवान् श्रीराम ने लक्ष्मणजी को आज्ञा दी कि ‘सीताजी को छिपाकर रक्षा करो; और स्वयं जटाजूट बाँध, धनुष हाथ में लेकर युद्ध के लिये संनद्ध हो गये। सेना निकट आ गयी। सब देखने लगे, किसे मारना है। देखा, सामने एक साँवला राजकुमार तपस्वी वेष में खड़ा है। हाथ से अस्त्र-शस्त्र गिर पड़े। इन्हें मारना होगा? इतना सुन्दर, इतना सुकुमार ! आज तक न जाने कितने परम सुन्दर देवता उनके हाथों मारे जा चुके थे, पर उनके फौलाद के हृदयों को इस सौन्दर्य ने पिघला दिया और आज-तक सर्वश्रेष्ठ विजयी ने अब संधि कर लेनी चाही। क्यों? क्या भय के मारे? नहीं-नहीं, भय नाम की वस्तु ये सब नहीं जानते। वे स्वयं ही मन्त्री को बुलाकर इसका कारण बतलाते हैं –
सचिव बोलि बोले खर दूषन । यह कोउ नृपबालक नर भूषन ।।
नाग असुर सुर नर मुनि जेते । देखे जिते हते हम केते ।।
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई । देखि नहिं असि सुंदरताई ।।
जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरूपा । बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ।। (मानस ३/१८/१-३)
यद्यपि राघवेन्द्र ने इसका बड़ा कड़ा उत्तर दे दिया, जिसे सुनकर खर-दूषण-जैसे महान् अभिमानी भी जल उठे, फिर भी उसने सेना को यही आज्ञा दी कि ‘इन्हें जीवित पकड़ लाओ। जहाँ तक हो सके न मारे जायँ तो अच्छा’ –
उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा । (मानस ३/१८/छ॰ १)
यह है उनके दिव्य सौन्दर्य का प्रभाव और उसकी कुछ झाँकियाँ। एक बार इस दिव्य सौन्दर्य को देख लेने पर यह चमड़े से ढँका हुआ सांसारिक नर-कंकाल किसे लुभा सकता है। इसलिये यदि सचमुच सौन्दर्य ही देखना चाहते हैं तो हमारे राम की ओर देखें।
"सियावर रामचंद्र की जय"
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