कश्यप ऋषि.
कश्यप नाम के कई ऋषि हुए हैं, जिनमें से एक की गणना प्रजापतियों में होती है। इस ऋषि ने दक्ष की दिति, अदिति, दनु आदि नाम की ग्यारह कन्याओं से विवाह किया था। अदिति के गर्भ से देवता उत्पन्न हुए। दिति ने दैत्यों को और दनु ने दानवों को जन्म दिया। कश्यप एक गोत्र का नाम भी है। यह गोत्र इतना व्यापक है कि जिसके गोत्र का पता नहीं चलता, उसका गोत्र कश्यप मान लिया जाता है क्योंकि सभी जीव-धारियों की उत्पत्ति कश्यप से ही मानी जाती है। पौराणिक उल्लेख.
प्राचीन वैदिक ॠषियों में प्रमुख ॠषि, जिनका उल्लेख एक बार ऋग्वेद में हुआ है। अन्य संहिताओं में भी यह नाम बहुप्रयुक्त है। इन्हें सर्वदा धार्मिक एवं रह्स्यात्मक चरित्र वाला बतलाया गया है एवं अति प्राचीन कहा गया है।
ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार उन्होंने 'विश्वकर्मभौवन' नामक राजा का अभिषेक कराया था। ऐतरेय ब्राह्मणों ने कश्यपों का सम्बन्ध जनमेजय से बताया गया है।
शतपथ ब्राह्मण में प्रजापति को कश्यप कहा गया हैः
"स यत्कुर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत।
यदसृजत् अकरोत् तद् यदकरोत् तस्मात् कूर्मः कश्यपो वै कूर्म्स्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः कश्यपः।"
महाभारत एवं पुराणों में असुरों की उत्पत्ति एवं वंशावली के वर्णन में कहा गया है कि ब्रह्मा के छः मानस पुत्रों में से एक 'मरीचि' थे जिन्होंने अपनी इच्छा से कश्यप नामक प्रजापति पुत्र उत्पन्न किया।
कश्यप ने दक्ष प्रजापति की 17 पुत्रियों से विवाह किया। दक्ष की इन पुत्रियों से जो सन्तान उत्पन्न हुई उसका विवरण निम्नांकित है -
अदिति से आदित्य (देवता)
दिति से दैत्य
दनु से दानव
काष्ठा से अश्व आदि
अनिष्ठा से गन्धर्व
सुरसा से राक्षस
इला से वृक्ष
मुनि से अप्सरागण
क्रोधवशा से सर्प
सुरभि से गौ और महिष
सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु)
ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि
तिमि से यादोगण (जलजन्तु)
विनता से गरुड़ और अरुण
कद्रु से नाग
पतंगी से पतंग
यामिनी से शलभ
भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार कश्यप की तेरह भांर्याएँ थीं। उनके नाम हैं-
दिति, अदिति, दनु, विनता, खसा, कद्रु, मुनि, क्रोधा, रिष्टा, इरा, ताम्रा, इला, और प्रधा। इन्हीं से सब सृष्टि हुई।
कश्यप एक गोत्र का भी नाम है। यह बहुत व्यापक गोत्र है। जिसका गोत्र नहीं मिलता उसके लिए कश्यप गोत्र की कल्पना कर ली जाती है, क्योंकि एक परम्परा के अनुसार सभी जीवधारियों की उत्पत्ति कश्यप से हुई।
एक बार समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर परशुराम ने वह कश्यप मुनि को दान कर दी। कश्यप मुनि ने कहा-'अब तुम मेरे देश में मत रहो।' अत: गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने रात को पृथ्वी पर न रहने का संकल्प किया। वे प्रति रात्रि में मन के समान तीव्र गमनशक्ति से महेंद्र पर्वत पर जाने लगे।
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