प्रजापति ब्रह्माजी की पूजा क्यों नहीं होती?

 

प्रजापति ब्रह्माजी की पूजा क्यों नहीं होती?

पौराणिक कथानक नैतिक गतिविधियों के प्रति उत्साह और अनैतिकता के प्रति भय पैदा करने के लिए बनाये गये हैं। अब इसकी सच्चाई कितनी है, ये तो खुद हमें भी नहीं पता।

 हिन्दू धर्म से जुड़े पौराणिक इतिहास पर नजर डालें तो कई ऐसी कहानियां सुनने को मिल जायेंगी, जिनसे अभी तक आमजन की पहुच नहीं हो पाई हैं। विस्तृत इतिहास होने की वजह से कुछ घटनाएं छूट भी जाती हैं, तो कुछ नजरअंदाज हो जाती हैं। इन्हीं कहानियों में से एक हैं सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी  का अपनी ही बेटी के साथ विवाह करने की घटना। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि त्रिदेव के हाथों में ही इस सृष्टि की बागडोर समाहित है। ब्रह्मा के पास सृष्टि की रचना का दायित्व है तो विष्णुजी  के पास संरक्षण का, वहीं देवों के देव कहे जाने वाले महादेव शिवजी को विनाश का जिम्मा सौंपा गया है। इसी विनाश के बाद फिर से सृजन होता है, यह हैं चक्र। ब्रह्माजी का अपनी ही बेटी के साथ विवाह करने की इस घटना का उल्लेख सरस्वती पुराण में वर्णित है। सरस्वती पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना करते समय ब्रह्माजी ने सरस्वती को जन्म दिया था। सरस्वती याने विद्या की देवी के पिता  ब्रह्माजी हैं।

स्वयं ब्रह्माजी उनके आकर्षण से खुद को बचाकर नहीं रख पाए और उन्हें अपनी अर्धांगिनी बनाने पर विचार करने लगे। सरस्वती ने अपने पिता की इस मनोभावना को भांपकर, उनसे बचने के लिए चारो दिशाओं में छिपने का प्रयत्न किया लेकिन उनका हर प्रयत्न व्यर्थ साबित हुआ। इसलिए विवश होकर उन्हें अपने पिता के साथ विवाह करना पड़ा। ब्रह्मा और सरस्वती करीब 100 वर्षों तक एक जंगल में पति-पत्नी की तरह रहे। इन दोनों का एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम रखा गया था, स्वयंभु मनु।

 इसके उलट मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा के पांच सिर थे। कहा जाता है जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो वह इस समस्त ब्रह्मांड में अकेले थे। ऐसे में उन्होंने अपने मुख से सरस्वती, सान्ध्य, ब्राह्मी को उत्पन्न किया। ब्रह्मा अपनी ही बनाई हुई रचना, सरवस्ती के प्रति आकर्षित होने लगे और लगातार उन पर अपनी दृष्टि रखते थे। ब्रह्मा की दृष्टि से बचने के लिए सरस्वती चारो दिशाओं में छिपती रहती थी और पकड़ी भी जाती थी। एक बार सरस्वती आकाश में जाकर छिप गईं लेकिन ब्रह्मा ने उन्हें आकाश में भी खोज निकाला और उनसे सृष्टि की रचना में सहयोग करने का निवेदन किया। सरस्वती से विवाह करने के पश्चात सर्वप्रथम मनु का जन्म हुआ। ब्रह्मा और सरस्वती की यह संतान मनु को पृथ्वी पर जन्म लेने वाला पहला मानव कहा जाता है। इसके अलावा मनु को वेदों, सनातन धर्म और संस्कृत समेत समस्त भाषाओं का जनक भी कहा जाता है।

 प्रजापति ब्रह्मा का अपनी ही पुत्री के प्रति आकर्षित होना और उसके साथ संभोग करना अन्य सभी देवताओं की नजरों में अपराध था। सभी ने मिलकर पापों का सर्वनाश करने वाले शिव से आग्रह किया कि ब्रह्मा ने अपनी पुत्री के लिए यौनाकांक्षाएं रखीं, जोकि एक बड़ा पाप है, ब्रह्मा को उनके किए का फल मिलना ही चाहिए। क्रोध में आकर शिव ने उनके पांचवें सिर को उनके धड़ से अलग कर दिया था। शिव पुराण के अनुसार ब्रह्मा के सर्वप्रथम पांच सिर थे। लेकिन जब अपने पांचवें मुख से उन्होंने सरस्वती जोकि उनकी पुत्री थी, को उनके साथ संभोग करने के लिए कहा तो क्रोध-वश सरस्वती ने उनसे कहा कि तुम्हारा यह मुंह हमेशा अपवित्र बातें ही करता है जिसकी वजह से आप भी विपरीत ही सोचते हैं। इसी घटना के बाद एक बार भगवान शिव, अपनी अर्धांगिनी पार्वती को ढूंढ़ते हुए ब्रह्मा के पास पहुंचे तो पांचवें सिर को छोड़कर उनके अन्य सभी मुखों ने उनका अभिवादन किया, जबकि पांचवें मुख ने अमंगल आवाजें निकालनी शुरू कर दी। इसी कारणवश क्रोध में आकर शिव ने ब्रह्मा के पांचवें सिर को उनके धड़ से अलग कर दिया। 

 इसी से मीलती जुलती एक अन्य कथा ये भी है।

हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, ब्रह्मा ने स्वयं को समझने के लिए सृष्टि का निर्माण किया था। इस सृष्टि ने स्त्री का रूप लिया। उनकी यह रचना सतरूपा इतनी सुंदर थी कि वे उसकी सुंदरता से मुग्ध हो गये, सतरूपा जिसका अर्थ है जिसके कई रूप हों। सतरूपा के अनवरत बदलते रूप को देखकर ब्रह्मा जी अपने द्वारा उत्पन्न सतरूपा के प्रति आकृष्ट हो गए तथा उन्हें टकटकी बांध कर निहारने लगे। सतरूपा ने ब्रह्मा की दृष्टि से बचने की हर कोशिश की किंतु असफल रहीं। कहा तो ये भी जाता है कि सतरूपा में हजारों जानवरों में बदल जाने की शक्ति थी और उन्होंने ब्रह्मा जी से बचने के लिए ऐसा किया भी, लेकिन ब्रह्मा जी ने जानवर रूप में भी उन्हें परेशान करना नहीं छोड़ा। इसके अलावा ब्रह्मा जी की नज़र से बचने के लिए सतरूपा ऊपर की ओर देखने लगीं, तो ब्रह्मा जी अपना एक सिर ऊपर की ओर विकसित कर दिया जिससे सतरूपा की हर कोशिश नाकाम हो गई। 

 ब्रह्मा की यह अवस्था देवताओं को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने ब्रह्मा को खूब धिक्कारा। क्योंकि एक पिता अपनी पुत्री सृष्टि के पीछे भाग रहा था। भगवान शिव भी ब्रह्मा जी की इस हरकत को देख रहे थे। शिव की दृष्टि में सतरूपा ब्रह्मा की पुत्री सदृश थीं, इसीलिए उन्हें यह घोर पाप लगा। इससे क्रुद्ध होकर शिव जी ने ब्रह्मा का सिर काट डाला ताकि सतरूपा को ब्रह्मा जी की कुदृष्टि से बचाया जा सके। भगवान शिव ने इसके अतिरिक्त भी ब्रह्मा जी को शाप के रूप में दंड दिया। इस श्राप के अनुसार, त्रिदेवों में सम्मिलित ब्रह्माजी की पूजा-उपासना नहीं होगी। ब्रह्माजी को इस अनैतिकता का दण्ड स्वरूप, उन्हें अपना पांचवा सिर और पूजा की पात्रता को भी खोना पड़ा।

 इसका अर्थ ऐसा भी हो सकता है कि हम भी दुनिया में कुछ निर्माण करते हैं और विकाश भी करते हैं। माया, भ्रम, पाश तथा आत्म-मुग्धता के कारण अनैतिकता अपनाने पर सामाजिक मान्यता समाप्त हो जाती हैं अर्थात समाज से हमें वह आदर-सत्कार मिलना बंद हो जाता हैं, जिसके लिए हम अधिकारी थे। 

मनोविज्ञान के सूत्र.

 नोविज्ञा के सूत्र.


किसी पुरुष को किसी की बात से चोट पहुँची हो तो वह उस बात को तो भूल जाता हैं लेकिन उस व्यक्ति को माफ नहीं करता। वहीं महिला, बात से चोट पहुचाने वाले को माफ तो कर देती हैं किंतु बात नहीं भूलती।

 जब मनुष्य अपना लक्ष्य, दूसरे को बता देता हैं, तब उसके (बताने वाले) सफल होने की संभावना कम हो जाती हैं। ऐसा इसलिये होता हैं क्योकि वह प्रेरणा खो देता हैं यानी "मोटिवेशन लूज" कर देता हैं।

यदि आप अपनी भावनाओं को छिपा लोगे तो दूसरे व्यक्ति के लिये आपको समझना मुश्किल हो जाता हैं। हालाकि ऐसा करने से आप दूसरे की नजर में अपनी विश्वसनीयता खो सकते हैं।


लोग अपने बारे में अच्छा सुनने पर यकीन कम करते हैं परन्तु बुरा सुनने पर तुरन्त यकीन कर लेते हैं। ऐसा "सर्वाइवल इन्सिटिक्ट" के कारण होता हैं, जो जानवरों में ज्यादा पाई जाती हैं।


किसी के साथ ज्यादा समय बिताने पर आप उसकी आदते अपनाने लगते हैं। इसलिये सोच समझकर दोस्त बनाये।


खुशी का पहला आंसू दाहिनी आंख से तथा दुःख का पहला आंसू बाई आंख से निकलता हैं।


अगर कोई रो नहीं सकता, इसका मतलब वह इंसान भावनात्मक रूप से कमजोर हैं। रोना व्यक्ति को कमजोर नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता हैं।

अगर कोई व्यक्ति कम बोलता हैं किन्तु जब बोलता हैं तो तेजी से बोलता हैं; इसका मतलब हैं कि वह गोपनीय व्यक्तित्व वाला इंसान हैं, जो ज्यादातर बाते अपने तक ही रखता हैं।

बर्बादी की दुष्प्रवृत्ति.

र्बादी की दुष्प्रवृत्ति.

समय की बर्बादी को यदि लोग धन की हानि से बढ़कर मानने लगें, तो क्या हमारा जो बहुमूल्य समय यों ही आलस में बीतता रहता है क्या कुछ उत्पादन करने या सीखने में न लगे? विदेशों में आजीविका कमाने के बाद बचे हुए समय में से कुछ घंटे हर कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए लगाता है और इसी क्रम के आधार पर जीवन के अन्त तक वह साधारण नागरिक भी उतना ज्ञान संचय कर लेता है जितना कि हम में से उद्भट विद्वान समझे जाने वाले लोगों को भी नहीं होता। जापान में बचे हुए समय को लोग गृह−उद्योगों में लगाते हैं और फालतू समय में अपनी कमाई बढ़ाने के अतिरिक्त विदेशों में भेजने के लिए बहुत सस्ता माल तैयार कर देते हैं जिससे उनकी राष्ट्रीय भी बढ़ती है। एक ओर हम हैं जो स्कूल छोड़ने के बाद अध्ययन को तिलाञ्जलि ही दे देते हैं और नियत व्यवसाय के अतिरिक्त कोई दूसरी सहायक आजीविका की बात भी नहीं सोचते। क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इस बात में अपना गौरव समझते हैं कि उन्हें शारीरिक श्रम न करना पड़े।

समय की बर्बादी शारीरिक नहीं मानसिक दुर्गुण है। मन में जब तक इसके लिए रुचि, आकाँक्षा एवं उत्साह पैदा न होगा, जब तक इस हानि को मन हानि ही नहीं मानेगा तब तक सुधार का प्रश्न ही कहाँ पैदा होगा? टाइम टेबल बनाकर—कार्यक्रम निर्धारित कर, कितने लोग अपनी दिनचर्या चलाते हैं? फुरसत न मिलने की बहानेबाजी हर कोई करता है पर ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उसका बहुत सा समय, आलस, प्रमाद, लापरवाही और मंदगति से काम करने में नष्ट होता है। समय के अपव्यय को रोककर और उसे नियमित दिनचर्या की सुदृढ़ श्रृंखला में आबद्ध कर हम अपने आज के सामान्य जीवन को असामान्य जीवन में बदल सकते हैं। पर यह होगा तभी न जब मन का अवसाद टूटे? जब लक्षहीनता, अनुत्साह एवं अव्यवस्था से पीछा छूटे?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.


 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.

''1990 की घटना.. असम से दो सहेलियां रेलवे में भर्ती के लिए गुजरात रवाना हुईं. रास्ते में एक स्टेशन पर उन्हें गाड़ी बदलकर आगे का सफर करना था, लेकिन पहली गाड़ी में कुछ लड़कों ने उनके साथ छेड़खानी की थी. इस वजह से अगली गाड़ी में तो कम से कम सफर सुखद हो, यही आशा लिए दोनों लड़कियों ने भगवान से प्रार्थना करते हुए स्टेशन पर उतर गईं और भागते हुए रिजर्वेशन चार्ट तक पहुंची. चार्ट देख दोनों परेशान और भयभीत हो गईं क्योंकि ट्रेन में उनकी सीट कन्फर्म नहीं हुई थीं.

''मायूसी लिए उन्होंने न चाहते हुए भी नजदीक खड़े TC से गाड़ी में जगह देने के लिए विनती की. TC ने भी गाड़ी आने पर कोशिश करने का आश्वासन दिया. एक-दूसरे को भरोसा देते हुए दोनों गाड़ी का इंतजार करने लगीं. कुछ देर के इंतजार के बाद गाड़ी आ गई और दोनों जैसे-तैसे गाड़ी में एक जगह बैठ गईं. लेकिन जैसे ही उन्होंने अपने सामने वाली सीट पर देखा, वे घबरा गईं. उन्होंने देखा कि सामने वाली सीट पर दो पुरुष बैठे थे. पिछले सफर में हुई बदसलूकी का याद करते हुए दोनों युवतियां सिहर गईं. लेकिन अब वहां बैठने के अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था, क्योंकि उस डिब्बे में कोई और जगह खाली भी नहीं थी। ट्रेन चल चुकी थी और दोनों की निगाहें, किसी दूसरी सीट के लिए TC को ढूंढ रही थीं. कुछ समय बाद TC वहां पहुंच गया और कहा कि उन्हें कहीं और सीट नहीं मिल पाएगी और इस सीट का भी रिजर्वेशन है.''

''TC ने युवतियों से कहा कि वे अगला स्टेशन आने से पहले दूसरी जगह देख लें. यह सुनते ही दोनों के पैरों तले जैसे जमीन ही खिसक गई क्योंकि रात का सफर था. युवतियों की परेशानी से बेखबर ट्रेन अपनी तेजी से आगे बढ़ रही थी. जैसे-जैसे अगला स्टेशन पास आने लगा, दोनों परेशान होने लगीं लेकिन सामने बैठे पुरुष उनके परेशानी के साथ भय की अवस्था को बड़ी ही बारीकी से देख रहे थे. लेकिन जैसे ही अगला स्टेशन आया, युवतियों के सामने बैठे दोनों पुरुष अपनी सीट से उठ खड़े हो गए और चल दिए. अब दोनों लड़कियों ने उनकी जगह पकड़ ली और गाड़ी निकल पड़ी. कुछ देर बाद वो नौजवान वापस आए और फिर युवतियों से कुछ कहे बिना ही ट्रेन के फर्श पर सो गए. ये सब देखकर दोनों सहेलियां हैरान रह गईं. हालांकि, वे पिछली यात्रा में हुई बदसलूकी की वजह से अभी भी सहमी हुई थीं. इसी डर के साथ दोनों की आंखें लग गईं.''

''सुबह चाय वाले की आवाज सुन नींद खुली तो दोनों ने उन पुरुषों को धन्यवाद कहा. उनमें से एक पुरुष ने युवतियों से कहा, "बहन जी, गुजरात में कोई मदद चाहिए हो तो जरुर बताना". अब दोनों सहेलियों का उनके बारे में मत बदल चुका था. एक युवती ने अब अपने बैग से बुक निकाली और उनसे अपना नाम और संपर्क लिखने को कहा...दोनों ने अपना नाम और पता बुक में लिख दिया. इतनें में ही उन पुरुषों का स्टेशन आ गया और वे "हमारा स्टेशन आ गया है" कहकर उतर गए और भीड़ में कही गुम हो गए. दोनों सहेलियों ने उस बुक में लिखे नाम पढ़े.. उनमें एक नाम नरेंद्र मोदी का था और दूसरा नाम शंकर सिंह वाघेला का था.

1 जून, 2014 को प्रकाशित हुए अंग्रेजी अखबार 'The Hindu' में यह घटना प्रकाशित हुई थी, जिसका टाइटल था- 'A train journey and two names to remember'. और जिस युवती ने डायरी में नाम लिखाया था, उसका नाम लीना शर्मा था, जो भारतीय रेलवे में General Manager of the centre for railway information system के पद पर कार्यरत हैं.

स्वार्थपरता आध्यात्मिक पतन का मूल कारण है.


स्वार्थपरता आध्यात्मिक पतन का मूल कारण
(श्री मेहरबाबा)

स्वार्थपरता मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में एक बहुत बड़ी बाधा स्वरूप है। जब किन्हीं कारणों वश हमारी इच्छाओं की तृप्ति नहीं होती तभी स्वार्थपरता अस्तित्व में आती है। साथ ही जो मनुष्य मानव-स्वभाव के वास्तविक स्वरूप से अनजान होता है उसमें भी इस प्रवृत्ति का जन्म होता है। जन्म-जन्मान्तर के विकासक्रम में हमारे भीतर जो नाना प्रकार के संस्कार एकत्रित हो जाते हैं उनसे मानवीय चेतना आच्छादित हो जाती है। ये संस्कार ही इच्छाओं के रूप में प्रकट होते हैं और इन इच्छाओं द्वारा हमारी चेतना (ज्ञान) का क्षेत्र बहुत कुछ सीमित हो जाता है।

स्वार्थपरता का घेरा इच्छाओं के घेरे के बराबर ही होता है। तरह-तरह की इच्छाओं के अवरोध (रुकावट) के कारण अपने यथार्थ स्वरूप की अभिव्यक्ति आत्मा के लिये असंभव हो जाती है। इससे हमारा जीवन अपने तक ही केन्द्रित और सीमित हो जाता है। इसके लिये हम इच्छानुकूल वस्तुओं की खोज करते रहते हैं, जो सब की सब परिवर्तनशील और क्षणभंगुर होती हैं। किन्तु ऐसी नाशवान वस्तुओं के द्वारा वास्तविक तृप्ति होनी असंभव है। जीवन की चंचल वस्तुओं से प्राप्त संतोष स्थायी नहीं होता और मनुष्य की चाहें या इच्छाएं अतृप्त बनी रहती हैं। इस प्रकार असंतोष का एक सामान्य भाव सदैव मौजूद रहता है, जिसके साथ सभी प्रकार की चिन्ताओं का आगमन होता है।

मनुष्य का निष्फल अहंकार जितने मुख्य रूपों में व्यक्त होता है वे हैं काम, लोभ, और क्रोध। कई दृष्टियों से ‘काम’ बहुत कुछ ‘लोभ’ के ही समान है, केवल इसके तृप्त होने की विधि भिन्न है, जिसका सीधा सम्बन्ध स्थूल क्षेत्र से रहता है। काम स्थूल शरीर के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करता है। लोभ हृदय की विश्राम हीनता की एक अवस्था है, और वह अधिकार तथा सत्ता की लिप्सा से उत्पन्न होता है। इच्छाओं की पूर्ति के लिए अधिकार और शक्ति की खोज की जाती है। इस प्रयत्न में मनुष्य आँशिक रूप से ही सफल होता है, और उसका यह आँशिक संतोष, इच्छा की अग्नि को शाँत करने के बदले और भी भड़काता है। इस कारण लोभ के लिये अपने सम्मुख स्थित विशाल क्षेत्र पर विजय पाना असंभव होता है, और वह मनुष्य को अत्यन्त असंतुष्ट बना देता है। इससे क्रोध की उत्पत्ति होती है। क्रोध उत्तेजित मन का उफान है, इच्छाओं के खंडित होने से वह उत्पन्न होता है। उसका लक्ष्य होता है इच्छाओं के तृप्त होने के मार्ग की बाधाओं को दूर करना।

इस प्रकार काम, लोभ और क्रोध की प्रवृत्तियों द्वारा ही मनुष्य निराशा का अनुभव करता है और उसका निष्फल अहम् काम, लोभ और क्रोध के द्वारा ही अधिक तृप्ति के साधनों की खोज करता है। इस प्रकार हमारी आत्मा की चेतना असीम निराशा के दुष्ट चक्कर में फँस जाती है। काम, लोभ या क्रोध की पूर्ति न होने से ही निराशा उत्पन्न होती है। इन तीनों पतनकारी प्रवृत्तियों का विस्तार स्वार्थपरता के साथ ही होता है। इन तीनों अन्योन्याश्रित दुर्गुणों का मुख्य आधार स्वार्थपरता ही है, अतः स्वार्थपरता ही वास्तव में हमारी समस्त निराशा और चिंताओं का आदि कारण है। पर इस प्रयत्न में वह अपने आपको ही पराजित करती है। वह इच्छाओं के विस्तार द्वारा अपनी तृप्ति करना चाहती है, पर परिणाम में उसे एक असीम असंतोष ही मिलता है।

स्वार्थपरता का अनिवार्य परिणाम असंतोष और निराशा है, क्योंकि इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है। इसलिये सुख की समस्या का एकमात्र उपाय इच्छा त्याग है। पर बाहरी दमन के कारण इच्छाओं पर पूर्ण विजय प्राप्त नहीं की जा सकती, वे केवल ज्ञान के द्वारा ही जड़ से मिटाई जा सकती हैं। यदि तुम विचारों की गहराई में डूबो और थोड़ी देर के लिए गम्भीरता पूर्वक विचार करो, तो तुम्हें इच्छाओं का खोखलापन मालूम हो जायगा। सोचो कि इतने वर्षों में तुम्हें कितना सुख मिला तथा कितना दुःख मिला। जीवन में तुमने जो भोग किया, वह आज शून्य के बराबर है और जीवन में तुम्हें जो कष्ट मिला वह भी कुछ नहीं के समान है। वास्तव में वह दोनों ही भ्रम थे। सुखी होने का तुम्हें अधिकार अवश्य है, लेकिन तो भी तुम स्वयं वस्तुओं की चाह करके अपने लिये दुःख पैदा करते हो। चाह या इच्छा सदैव अशाँति का कारण होती है। जिस वस्तु की तुमने चाह की यदि वह तुम्हें न मिली तो तुम निराश होते हो। यदि वह तुम्हें मिली तो तुम उसे और भी अधिक परिमाण में चाहते हो और इस कारण दुखी होते हो। इसलिये तुम यह कहो कि “मुझे कुछ भी न चाहिये” इससे तुम सुखी हो जाओगे। इच्छाओं या चाहों की असारता की अनुभूति तुम्हें अन्त में ज्ञान प्रदान करेगी। यह आत्मज्ञान इच्छाओं से तुम्हें मुक्त करेगा और इस प्रकार स्थायी सुख का पथ तुम्हें मिल जायगा।

यहाँ पर चाह और आवश्यकता का भेद भली भाँति समझ लेना चाहिये। अभिमान और क्रोध, वासना और लोभ, ये सब चाह के विभिन्न रूप हैं। तुम शायद यह कहो कि “मुझे जिन वस्तुओं की चाह है, उन सब की मुझे आवश्यकता है”—किन्तु यह एक भूल है। यदि रेगिस्तान में तुम प्यासे हो तो तुमको स्वच्छ जल की आवश्यकता है, न कि शर्बत की। जब तक मनुष्य का शरीर है तब तक आवश्यकताएँ रहेंगी और ऐसी आवश्यकताएँ पूरी करना जरूरी है। किन्तु ‘चाह’ मूढ़ कल्पना का परिणाम है। यदि सुख पाना है, तो सावधानी पूर्वक हमें उनको निर्मूल करना चाहिये।

स्वार्थपरता के नाश की दूसरी विधि है हमारे भीतर प्रेम का उदय होना। सच्चे अस्तित्व का अर्थ है “प्रेम करके मरना”। यदि तुम एक दूसरे को प्रेम नहीं कर सकते हो, तो तुम उन्हें कैसे प्रेम कर सकते हो जो तुम्हें यंत्रणा देते हैं? स्वार्थपरता की सीमाएँ अज्ञान द्वारा निर्मित होती हैं। किन्तु जब मनुष्य यह जान लेता है कि उसकी रुचि और कार्य क्षेत्र के विस्तृत, उदार होने से उसे अधिक गौरवपूर्ण संतोष की प्राप्ति होगी, तब वह सेवामय जीवन की ओर अग्रसर होता है। इस स्थिति में वह सदिच्छाओं को अपने मन में स्थान देता है। पर दुःख निवारण तथा परोपकार द्वारा दूसरों को सुखी करना चाहता है। यद्यपि ऐसी अच्छी इच्छाओं में भी स्वार्थ का अप्रत्यक्ष संबंध रहता है, तथापि उसके सत्कार्यों पर संकुचित स्वार्थपरता का अधिकार नहीं रहता।

व्यक्तिगत अहम् की रचना में जो इच्छाएँ प्रविष्ट होती हैं, वे या तो अच्छी होती हैं या बुरी? बुरी इच्छाएँ सामान्यतया स्वार्थपरता के नाम से पुकारी जाती हैं और अच्छी इच्छाएँ निस्वार्थता के नाम से। किन्तु स्वार्थपरता और निस्वार्थता के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। ये दोनों द्वैत के क्षेत्र में ही कार्य करती हैं। स्वार्थपरता का जन्म तब होता है जब सारी इच्छाएँ अपने संकुचित व्यक्तित्व के चारों ओर केंद्रीभूत कर दी जाती हैं। जब निस्वार्थता का उदय होता है तब इच्छाओं का सामान्य रूप में विस्तार होने लगता है। इच्छाओं के विस्तार का यह परिणाम होता है कि वे एक विशाल क्षेत्र को घेरती हैं। एक सीमित क्षेत्र तक रुचियों का संकुचित होना स्वार्थपरता है और एक विशाल क्षेत्र में रुचियों का विस्तार निःस्वार्थता है।

द्वैत की दुनिया से ऊपर उठकर एकात्मभाव की दुनिया में प्रविष्ट होने के लिये स्वार्थ का निस्वार्थता में परिणित होना नितान्त आवश्यक है। दृढ़ आग्रह के साथ तथा निरंतर सत्कार्यों के करते रहने से स्वार्थ क्षीण हो जाता है। स्वार्थ जब संकुचित क्षेत्र से विस्तृत क्षेत्र में बढ़ता है और सत्कार्यों के रूप में प्रकट होने लगता है, तब अपने ही नाश का साधन बन जाता है। तब व्यक्तिगत स्वार्थ अपने को जागतिक या सार्वजनिक हित में लीन कर देता है। यद्यपि यह निस्वार्थ और परहितपरायण जीवन भी द्वन्द्वों से आबद्ध होता है, परन्तु यह स्थिति द्वंद्वों से पूर्णतः मुक्त होने के पहले की एक आवश्यक सीढ़ी है। सत्कार्य वह साधन है, जिसके द्वारा आत्मा अपने अज्ञान का उन्मूलन कर सकता है।

अच्छाई को पार करके आत्मा परमात्मा में पहुँचता है। निस्वार्थता सर्वोपरि परमार्थ में लय हो जाती है। मुक्ति की अवस्था में स्वार्थपरता तथा निःस्वार्थता का अस्तित्व सामान्य अर्थ में नहीं रह जाता और सभी के प्रति आत्मीयता की भावना में इनका रूपांतर हो जाता है। विश्व के समस्त जीवन में एकता का ज्ञान हो जाने से परम शान्ति एवं अथाह आनन्द की उपलब्धि होती है। यह ज्ञान आध्यात्मिक गतिशून्यता नहीं है और इसके द्वारा सापेक्षिक मूल्यों का भी नाश नहीं होता। सभी के प्रति आत्मीयता की अनुभूति से ऐसी स्थायी समता की प्राप्ति होती है, जिसमें विवेक ज्यों का त्यों बना रहता है, तथा ऐसी शाँति प्राप्त होती है जो संसार के प्रति उदासीनता अथवा उपेक्षा का बर्ताव नहीं करती। ‘सर्व भूतेषु आत्मवत्, का यह भाव केवल वैयक्तिक दृष्टिकोण के समन्वय का ही परिणाम नहीं होता वरन् यह अंतिम सत्य से, जिसके अंतर्गत सब कुछ है, एकता की वास्तविक प्राप्ति का परिणाम होता है।

सभी इच्छाओं को निर्मूल करके अपना हृदय खोलो और उसमें केवल एक ही लालसा को स्थान दो—अर्थात् अंतिम सत्य से एकत्व प्राप्त करने की लालसा। उस अंतिम सत्य की खोज बाहरी परिवर्तनशील वस्तुओं में नहीं की जानी चाहिये। उसकी खोज अपने ही भीतर करनी चाहिये। प्रत्येक बार जब तुम्हारा आत्मा तुम्हारे मानवीय हृदय में प्रवेश करना चाहता है, तब वह बाहर तो ताला लगा हुआ पाता है, तथा भीतर इच्छाओं की बड़ी भीड़ लगी रहती है। स्थायी आनन्द का उद्गम स्थान सर्वत्र मौजूद है, किन्तु तो भी समस्त प्राणी अज्ञान जनित इच्छाओं के कारण दुःखी हैं। स्थायी सुख का लक्ष्य पूर्णतः तभी चमकता है जब सीमित अहंकार अपनी समस्त इच्छाओं के सहित अपने अंतिम नाश को प्राप्त होता है।

अन्त में एक बात स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि इच्छाओं को त्यागने का अर्थ संसार को त्याग देना या जीवन के प्रति पूर्णतया निषेधात्मक रुख धारण करना नहीं है। जीवन का ऐसा किसी भी प्रकार का निषेध मनुष्य को मनुष्यत्व शून्य बनाना है। ईश्वरत्व मनुष्यत्व से रहित नहीं है। आध्यात्मिकता का परमावश्यक कर्त्तव्य मनुष्य को अधिक मनुष्यत्व युक्त बनाना है। मनुष्य में जो सौंदर्य है, महानता है, तथा सात्विकता है, उन्हें मुक्त तथा व्यक्त करने के कार्य का नाम आध्यात्मिकता है। बन्धनों के भय से जीवन से दूर भागने से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। ऐसा करना जीवन का निराकरण है। प्रकृति की द्वन्द्वात्मक अभिव्यक्ति से भयभीत होकर पीछे हटने से पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती। बंधन से बचने के प्रयत्न का अर्थ है जीवन से भयभीत होना, किन्तु आध्यात्मिकता का अर्थ है परस्पर विरोधों से अभिभूत हुये बिना जीवन का ठीक और पूर्ण ढंग से सामना करना। ऐसी आध्यात्मिकता का पालन करने वाला जीवन के विभिन्न रूपों से अपना संपर्क बनाये रखकर भी आसक्ति से संपूर्णतः रहित होकर आचरण करता है, और इस प्रकार स्वार्थपरता के दोष में किंचित भी ग्रस्त नहीं हो पाता।



(अखंड ज्योति मई,1959)

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद


लिंग ही आसुरी नाम का पश्चिमी द्वार है, स्त्रीप्रसंग ग्रामक नाम का देश है और लिंग में रहने वाला उपस्थेन्द्रिय दुर्मद नाम का मित्र है। गुदा निर्ऋति नाम का पश्चिमी द्वार है। नरक वैशस नाम का देश है और गुदा में स्थित पायु-इन्द्रिय लुब्धक नाम का मित्र है।

इनके सिवा दो पुरुष अंधे बताये गये थे, उनका रहस्य भी सुनो। वे हाथ और पाँव हैं; इन्हीं की सहायता से जीव क्रमशः सब काम करता और जहाँ-तहाँ जाता है। हृदय अन्तःपुर है, उसमें रहने वाला मन ही विषूची (विषूचीन) नाम का प्रधान सेवक है। जीव उस मन के सत्त्वादि गुणों के कारण ही प्रसन्नता, हर्षरूप विकार अथवा मोह को प्राप्त होता है।

बुद्धि (राजमहिषी पुरंजनी) जिस-जिस प्रकार स्वप्नावस्था में विकार को प्राप्त होती है और जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियादि को विकृत करती है, उसके गुणों से लिप्त होकर आत्मा (जीव) भी उसी-उसी रूप में उसकी वृत्तियों का अनुकरण करने को बाध्य होता है-यद्यपि वस्तुतः वह उनका निर्विकार साक्षीमात्र ही है। शरीर ही रथ है। उसमें ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच घोड़े जुते हुए हैं। देखने में संवत्सररूप काल के समान ही उसका अप्रतिहत वेग है, वास्तव में वह गतिहीन है। पुण्य और पाप-ये दो प्रकार के कर्म ही उसके पहिये हैं; तीन गण ध्वजा हैं, पाँच प्राण डोरियाँ हैं। मन बागडोर है, बुद्धि सारथि है, हृदय बैठने का स्थान है, सुख-दुःखादि द्वन्द जुए हैं, इन्द्रियों के पाँच विषय उसमें रखे हुए आयुध हैं और त्वचा आदि सात धातुएँ उसके आवरण हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसकी पाँच प्रकार की गति हैं। इस रथ पर चढ़कर रथीरूप यह जीव मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ता है। ग्यारह इन्द्रियाँ उसकी सेना हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा उन-उन इन्द्रियों के विषयों को अन्यायपूर्वक ग्रहण करना ही उसका शिकार खेलना है।

जिसके द्वारा काल का ज्ञान होता है, वह संवत्सर ही चण्डवेग नामक गन्धर्वराज है। उसके अधीन जो तीन सौ साठ गन्धर्व बताये गये थे, वे दिन हैं और तीन-तीन सौ साठ गन्धर्वियाँ रात्रि हैं। ये बारी-बारी से चक्कर लगाते हुए मनुष्य की आयु को हरते रहते हैं। वृद्धावस्था ही साक्षात् कालकन्या है, उसे कोई भी पुरुष पसंद नहीं करता। तब मृत्युरूप यवनराज ने लोक का संहार करने के लिये उसे बहिन मानकर स्वीकार कर लिया। आधि (मानसिक क्लेश) और व्याधि (रोगादि शारीरिक कष्ट) ही इस यवनराज के पैदल चलने वाले सैनिक हैं तथा प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर शीघ्र ही मृत्यु के मुख में ले जाने वाला शीत और उष्ण दो प्रकार का ज्वर ही प्रज्वार नाम का उसका भाई है।

इस प्रकार यह देहाभिमानी जीव अज्ञान से आच्छादित होकर अनेक प्रकार के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भोगता हुआ सौ वर्ष तक मनुष्य शरीर में पड़ा रहता है। वस्तुतः तो वह निर्गुण है, किन्तु प्राण, इन्द्रिय और मन के धर्मों को अपने में आरोपित कर मैं-मेरेपन के अभिमान से बँधकर क्षुद्र विषयों का चिन्तन करता हुआ, तरह-तरह के कर्म करता रहता है। यह यद्यपि स्वयंप्रकाश है, तथापि जब तक सबके परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवान् के स्वरूप को नहीं जानता, तब तक प्रकृति के गुणों में ही बँधा रहता है। उन गुणों का अभिमानी होने से वह विवश होकर सात्त्विक, राजस और तामस कर्म करता है तथा उन कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य.

राजा प्राचीनबर्हि ने कहा- भगवन्! मेरी समझ में आपके वचनों का अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है। विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं।

श्रीनारद जी ने कहा- राजन्! पुरंजन (नगर का निर्माता) जीव है-जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरों वाला या बिना पैरों का शरीररूप पुर तैयार कर लेता है। उस जीव का सखा जो अविज्ञात नाम से कहा गया है, वह ईश्वर है; क्योंकि किसी भी प्रकार के नाम, गुण अथवा कर्मों से जीवों को उसका पता नहीं चलता। जीव ने जब सुख-दुःखरूप सभी प्राकृत विषयों को भोगने की इच्छा की, तब उसने दूसरे शरीरों की अपेक्षा नौ द्वार, दो हाथ और दो पैरों वाला मानव-देह ही पसंद किया। बुद्धि अथवा अविद्या को ही तुम पुरंजनी नाम की स्त्री जानो; इसी के कारण देह और इन्द्रिय आदि में मैं-मेरेपन का भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसी का आश्रय लेकर शरीर में इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता है। दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकार के ज्ञान और कर्म होते हैं। इन्द्रियों की वृत्तियाँ ही उसकी सखियाँ और प्राण-अपान-व्यान-उदान-समानरूप पाँच वृत्तियों वाला प्राण वायु ही नगर की रक्षा करने वाला पाँच फन का सर्प है। दोनों प्रकार की इन्द्रियों के नायक मन को ही ग्यारहवाँ महाबली योद्धा जानना चाहिये।

शब्दादि पाँच विषय ही पांचाल देश हैं, जिसके बीच में वह नौ द्वारों वाला नगर बसा हुआ है। उस नगर में जो एक-एक स्थान पर दो-दो द्वार बताये गये थे-वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं। इनके साथ मुख, लिंग और गुदा-ये तीन और मिलाकर कुल नौ द्वार हैं; इन्हीं में होकर वह जीव इन्द्रियों के साथ बाह्य विषयों में जाता है। इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुख-ये पाँच पूर्व के द्वार हैं; दाहिने कान को दक्षिण का और बायें कान को उत्तर का द्वार समझना चाहिये। गुदा और लिंग-ये नीचे के दो छिद्र पश्चिम के द्वार हैं। खाद्यौता और आविर्मुखी नाम के जो दो द्वार एक स्थान पर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभ्राजित नाम का देश है, जिसका इन द्वारों से जीव चक्षु-इन्द्रिय की सहायता से अनुभव करता है। दोनों नासाछिद्र ही नलिनी और नालिनी नाम के द्वार हैं और नासिका का विषय गन्ध ही सौरभ देश है तथा घ्राणेन्द्रिय अवधूत नाम का मित्र है। मुख मुख्य नाम का द्वार है। उसमें रहने वाला वागिन्द्रिय विपण है और रसनेन्द्रिय रसविद् (रसज्ञ) नाम का मित्र है। वाणी का व्यापार आपण है और तरह-तरह का अन्न बहूदन है तथा दाहिना कान पितृहू और बायाँ कान देवहू कहा गया है। कर्मकाण्डरूप प्रवृत्तिमार्ग का शास्त्र और उपासना काण्डरूप निवृत्तिमार्ग का शास्त्र ही क्रमशः दक्षिण और उत्तर पांचाल देश हैं। इन्हें श्रवणेन्द्रियरूप श्रुतधर की सहायता से सुनकर जीव क्रमशः पितृयान और देवयान मार्गों में जाता है।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 49-65 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 49-65 का हिन्दी अनुवाद

पति के साथ वन में गयी हुई वह अबला इस प्रकार विलाप करती पति के चरणों में गिर गयी और रो-रोकर आँसू बहाने लगी। लकड़ियों की चिता बनाकर उसने उस पर पति का शव रखा और अग्नि जलाकर विलाप करते-करते स्वयं सती होने का निश्चय किया।

राजन! इसी समय उसका पुराना मित्र एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहाँ आया। उसने उस रोती हुई अबला को मधुर वाणी से समझाते हुए कहा।

ब्राह्मण ने कहा- तू कौन है? किसकी पुत्री है? और जिसके लिये तू शोक कर रही है, वह यह सोया हुआ पुरुष कौन है? क्या तुम मुझे नहीं जानती? मैं वही तेरा मित्र हूँ, जिसके साथ तू पहले विचरा करती थी। सखे! क्या तुम्हें अपनी याद आती है, किसी समय मैं तुम्हारा अविज्ञात नाम का सखा था? तुम पृथ्वी के भोग भोगने के लिये निवास-स्थान की खोज में मुझे छोड़कर चले गये थे। आर्य! पहले मैं और तुम एक-दूसरे के मित्र एवं मानस निवासी हंस थे। हम दोनों सहस्रों वर्षों तक बिना किसी निवास-स्थान के ही रहे थे, किन्तु मित्र! तुम विषय भोगों की इच्छा से मुझे छोड़कर यहाँ पृथ्वी पर चले आये। यहाँ घूमते-घूमते तुमने एक स्त्री का रचा हुआ स्थान देखा। उसमें पाँच बगीचे, नौ दरवाजे, एक द्वारपाल, तीन परकोटे, छः वैश्यकुल और पाँच बाजार थे। वह पाँच उपादान-कारणों से बना हुआ था और उसकी स्वामिनी एक स्त्री थी।

महाराज! इन्द्रियों के पाँच विषय उसके बगीचे थे, नौ इन्द्रिय-छिद्र द्वार थे; तेज, जल और अन्न-तीन परकोटे थे; मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-छः वैश्यकुल थे; क्रियाशक्तिरूप कर्मेन्द्रियाँ ही बाजार थीं; पाँच भूत ही उसके कभी क्षीण न होने वाले उपादान कारण थे और बुद्धि शक्ति ही उसकी स्वामिनी थी। यह ऐसा नगर था, जिसमें प्रवेश करने पर पुरुष ज्ञानशून्य हो जाता है-अपने स्वरूप को भूल जाता है।

भाई! उस नगर में उसकी स्वामिनी के फंदे में पड़कर उसके साथ विहार करते-करते तुम भी अपने स्वरूप को भूल गये और उसी के संग से तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है। देखो, तुम न तो विदर्भराज की पुत्री ही हो और न यह वीर मलयध्वज तुम्हारा पति ही। जिसने तुम्हें नौ द्वारों के नगर में बंद किया था, उस पुरंजनी के पति भी तुम नहीं हो। तुम पहले जन्म में अपने को पुरुष समझते थे और अब सती स्त्री मानते हो-यह सब मेरी ही फैलायी हुई माया है।

वास्तव में तुम न पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों तो हंस हैं; हमारा जो वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव करो मित्र! जो मैं (ईश्वर) हूँ, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भिन्न नहीं हो और तुम विचारपूर्वक देखो, मैं भी वही हूँ जो तुम हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनों में कभी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं देखते। जैसे एक पुरुष अपने शरीर की परछाई को शीशे में और किसी व्यक्ति के नेत्र में भिन्न-भिन्न रूप से देकता है, वैसे ही-एक ही आत्मा विद्या और अविद्या की उपाधि के भेद से अपने को ईश्वर और जीव के रूप में दो प्रकार से देख रहा है। इस प्रकार जब हंस (ईश्वर) ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवर का हंस (जीव) अपने स्वरूप में स्थित हो गया और उसे अपने मित्र के विछोह से भूला हुआ आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया। प्राचीनबर्हि! मैंने तुम्हें परोक्ष रूप से यह आत्मज्ञान का दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वर को परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद

फिर उनमें से प्रत्येक पुत्र के बहुत-बहुत पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके वंशधर इस पृथ्वी को मन्वन्तर के अन्त तक तथा उसके बाद भी भोगेंगे। राजा मलयध्वज की पहली पुत्री बड़ी व्रतशीला थी। उसके साथ अगस्त्य ऋषि का विवाह हुआ। उससे उनके दृढ़च्युत नाम का पुत्र हुआ और दृढ़च्युत के इक्ष्मवाह हुआ। अन्त में राजर्षि मलयध्वज पृथ्वी को पुत्रों में बाँटकर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने की इच्छा से मलय पर्वत पर चले गये। उस समय-चन्द्रिका जिस प्रकार चन्द्रदेव का अनुसरण करती है-उसी प्रकार मत्तलोचना वैदर्भी ने अपने घर, पुत्र और समस्त भोगों को तिलांजलि दे पाण्ड्य नरेश का अनुगमन किया। वहाँ चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी और वटोदका नाम की तीन नदियाँ थीं। उनके पवित्र जल में स्नान करके वे प्रतिदिन अपने शरीर और अन्तःकरण को निर्मल करते थे। वहाँ रहकर उन्होंने कन्द, बीज, मूल, फल, पुष्प, पत्ते, तृण और जल से ही निर्वाह करते हुए बड़ा कठोर तप किया। इससे धीरे-धीरे उनका शरीर बहुत सूख गया। महाराज मलयध्वज ने सर्वत्र समदृष्टि रखकर शीत-उष्ण, वर्षा-वायु, भूख-प्यास, प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःखादि सभी द्वन्दों को जीत लिया। तप और उपासना से वासनाओं को निर्मूल कर तथा यम-नियमादि के द्वारा इन्द्रिय, प्राण और मन को वश में करके वे आत्मा में ब्रह्म भावना करने लगे।

इस प्रकार सौ दिव्य वर्षों तक स्थाणु के समान निश्चल भाव से एक ही स्थान पर बैठे रहे। भगवान् वासुदेव में सुदृढ़ प्रेम हो जाने के कारण इतने समय तक उन्हें शरीरादि का भी भान न हुआ। राजन्! गुरुस्वरूप साक्षात् श्रीहरि के उपदेश किये हुए तथा अपने अन्तःकरण में सब ओर स्फुरित होने वाले विशुद्ध विज्ञान दीपक से उन्होंने देखा कि अन्तःकरण की वृत्तिका प्रकाशक आत्मा स्वप्नावस्था की भाँति देहादि समस्त उपाधियों में व्याप्त तथा उनसे पृथक् भी है। ऐसा अनुभव करके वे सब ओर से उदासीन हो गये। फिर अपनी आत्मा को परब्रह्म में और परब्रह्म को आत्मा में अभिन्नता रूप से देखा और अन्त में इस अभेद चिन्तन को भी त्यागकर सर्वथा शान्त हो गये।

राजन्! इस समय पतिपरायणा वैदर्भी सब प्रकार के भोगों को त्यागकर अपने परमधर्मज्ञ पति मलयध्वज की सेवा बड़े प्रेम से करती थी। वह चीर-वस्त्र धारण किये रहती, व्रत उपवासादि के कारण उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था और सिर के बाल आपस में उलझ जाने के कारण उनमें लटें पड़ गयी थीं। उस समय अपने पतिदेव के पास वह अंगारभाव को प्राप्त धूमरहित अग्नि के समीप अग्नि की शान्तशिखा के समान सुशोभित हो रही थी। उसके पति परलोकवासी हो चुके थे, परन्तु पूर्ववत् स्थिर आसन से विराजमान थे। इस रहस्य को न जानने के कारण वह उनके पास जाकर उनकी पूर्ववत् सेवा करने लगी। चरणसेवा करते समय जब उसे अपने पति के चरणों में गरमी बिलकुल नहीं मालूम हुई, तब तो वह झुंडी से बिछुड़ी हुई मृगी के समान चित्त में अत्यन्त व्याकुल हो गयी। उस बीहड़ वन में अपने को अकेली और दीन अवस्था में देखकर वह बड़ी शोककुल हुई और आँसुओं की धारा से स्तनों को भिगोती हुई बड़े जोर-जोर से रोने लगी। वह बोली, ‘राजेर्षे! उठिये, उठिये; समुद्र से घिरी हुई यह वसुन्धरा लुटेरों और अधर्मी राजाओं से भयभीत हो रही है, आप इसकी रक्षा कीजिये’।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद

गृहासक्त पुरंजन देह-गेहादि में मैं-मेरेपन का भाव रखने से अत्यन्त बुद्धिहीन हो गया था। स्त्री के प्रेमपाश में फँसकर वह बहुत दीन हो गया था। अब जब इनसे बिछुड़ने का समय उपस्थित हुआ, तब वह अपने पुत्री, पुत्र, पौत्र, पुत्रवधू, दामाद, नौकर और घर, खजाना तथा अन्यान्य जिन पदार्थों में उसकी ममता भर शेष थी (उनका भोग तो कभी का छूट गया था), उन सबके लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगा। ‘हाय! मेरी भार्या तो बहुत घर-गृहस्थी वाली है; जब मैं परलोक को चला जाऊँगा, तब यह असहाय होकर किस प्रकार अपना निर्वाह करेगी? इसे इन बाल-बच्चों की चिन्ता ही खा जायगी। यह मेरे भोजन किये बिना भोजन नहीं करती थी और स्नान किये बिना स्नान नहीं करती थी, सदा मेरी ही सेवा में तत्पर रहती थी। मैं कभी रूठ जाता था तो यह बड़ी भयभीत हो जाती थी और झिड़कने लगता तो डर के मारे चुप रह जाती थी। मुझसे कोई भूल हो जाती तो यह मुझे सचेत कर देती थी। मुझमें इतना अधिक स्नेह है कि यदि मैं कभी परदेश चला जाता था तो यह विरहव्यथा से सूखकर काँटा हो जाती थी। यों तो यह वीरमाता है, तो भी मेरे पीछे क्या यह गृहस्थाश्रम का व्यवहार चला सकेगी? मेरे चले जाने पर एकमात्र मेरे ही सहारे रहने वाले ये पुत्र और पुत्री भी कैसे जीवन धारण करेंगे? ये तो बीच समुद्र में नाव टूट जाने से व्याकुल हुए यात्रियों के समान बिलबिलाने लगेंगे’। यद्यपि ज्ञान दृष्टि से उसे शोक करना उचित न था, फिर भी अज्ञानवश राजा पुरंजन इस प्रकार दीनबुद्धि से अपने स्त्री-पुत्रादि के लिये शोकाकुल हो रहा था।

इसी समय उसे पकड़ने के लिये वहाँ भय नामक यवनराज आ धमका। जब यवन लोग उसे पशु के समान बाँधकर अपने स्थान को ले चले, तब उसके अनुचरगण अत्यन्त आतुर और शोकाकुल होकर उसके साथ हो लिये। यवनों द्वारा रोका हुआ सर्प भी उस पुरी को छोड़कर इन सबके साथ ही चल दिया। उसके जाते ही सारा नगर छिन्न-भिन्न होकर अपने कारण में लीन हो गया। इस प्रकार महाबली यवनराज के बलपूर्वक खींचने पर भी राजा पुरंजन ने अज्ञानवश अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञात का स्मरण नहीं किया। उस निर्दय राजा ने जिन यज्ञपशुओं की बलि दे थी, वे उसकी दी हुई पीड़ा को याद करके उसे क्रोधपूर्वक कुठारों से काटने लगे। वह वर्षों तक विवेकहीन अवस्था में अपार अन्धकार में पड़ा निरन्तर कष्ट भोगता रहा।

स्त्री की आसक्ति से उसकी यह दुर्गति हुई थी। अन्त समय में भी पुरंजन को उसी का चिन्तन बना हुआ था। इसलिये दूसरे जन्म में वह नृपश्रेष्ठ विदर्भराज के यहाँ सुन्दरी कन्या होकर उत्पन्न हुआ। जब यह विदर्भनन्दिनी विवाह योग्य हुई, तब विदर्भराज ने घोषित कर दिया कि इसे सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर ही ब्याह सकेगा। तब शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले पाण्ड्य नरेश महाराज मलयध्वज ने समरभूमि में समस्त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया। उससे महाराज मलयध्वज ने एक श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किये, जो आगे चलकर द्रविड़ देश के सात राजा हुए।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

पुरंजन को स्त्रीयोनि की प्राप्ति और
अविज्ञात के उपदेश से उसका मुक्त होना.

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! फिर भय नामक यवनराज के आज्ञाकारी सैनिक प्रज्वार और कालकन्या के साथ इस पृथ्वीतल पर सर्वत्र विचरने लगे। एक बार उन्होंने बड़े वेग से बूढ़े साँप से सुरक्षित और संसार की सब प्रकार की सुख-सामग्री से सम्पन्न पुरंजनपुरी को घेर लिया। तब, जिसके चंगुल में फँसकर पुरुष शीघ्र ही निःसार हो जाता है, वह कालकन्या बलात् उस पुरी की प्रजा को भोगने लगी। उस समय वे यवन भी कालकन्या के द्वारा भोगी जाती हुई उस पुरी में चारों ओर से भिन्न-भिन्न द्वारों से घुसकर उसका विध्वंस करने लगे। पुरी के इस प्रकार पीड़ित किये जाने पर उसके स्वामित्व का अभिमान रखने वाले तथा ममताग्रस्त, बहुकुटुम्बी राजा पुरंजन को भी नाना प्रकार के क्लेश सताने लगे। कालकन्या के आलिंगन करने से उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी तथा अत्यन्त विषयासक्त होने के कारण वह बहुत दीन हो गया, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। गन्धर्व और यवनों ने बलात् उसका सारा ऐश्वर्य लूट लिया।

उसने देखा कि सारा नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है; पुत्र, पौत्र, भृत्य, और अमात्य वर्ग प्रतिकूल होकर अनादर करने लगे हैं; स्त्री स्नेहशून्य हो गयी है, मेरी देह को कालकन्या ने वश में कर रखा है और पांचाल देश शत्रुओं के हाथ में पड़ कर भ्रष्ट हो गया है। यह सब देखकर राजा पुरंजन अपार चिन्ता में डूब गया और उसे उस विपत्ति से छुटकारा पाने का कोई उपाय न दिखायी दिया। कालकन्या ने जिन्हें निःसार कर दिया था, उन्हीं भोगों की लालसा से वह दीन था। अपनी पारलौकिकी गति और बन्धुजनों के स्नेह से वंचित रहकर उसका चित्त केवल स्त्री और पुत्र के लालन-पालन में ही लगा हुआ था। ऐसी अवस्था में उनसे बिछुड़ने की इच्छा न होने पर भी उसे उस पुरी को छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा; क्योंकि उसे गन्धर्व और यवनों ने घेर रखा था तथा कालकन्या ने कुचल दिया था।

इतने में ही यवनराज भय के बड़े भाई प्रज्वार ने अपने भाई का प्रिय करने के लिये उस सारी पुरी में आग लगा दी। जब वह नगरी जलने लगी, तब पुरवासी, सेवकवृन्द, सन्तान वर्ग और कुटुम्ब की स्वामिनी के सहित कुटुम्बवत्सल पुरंजन को बड़ा दुःख हुआ। नगर को कालकन्या के हाथ में पड़ा देख उसकी रक्षा करने वाले सर्प को भी बड़ी पीड़ा हुई, क्योंकि उसके निवासस्थान पर भी यवनों ने अधिकार कर लिया था और प्रज्वार उस पर भी आक्रमण कर रहा था। जब उस नगर की रक्षा करने में वह सर्वथा असमर्थ हो गया, तब जिस प्रकार जलते हुए वृक्ष के कोटर में रहने वाला सर्प उससे निकल जाना चाहता है, उसी प्रकार उसने भी महान् कष्ट से काँपते हुए वहाँ से भोगने की इच्छा की। उसके अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ गये थे तथा गन्धर्वों ने उसकी सारी शक्ति नष्ट कर दी थी; अतः जब यवन शत्रुओं ने उसे जाते देखकर रोक दिया, तब वह दुःखी होकर रोने लगा।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद

वह इतने दिनों तक पांचाल देश के उस नगर में अपने दूतों द्वारा लाये हुए कर को लेकर विषय-भोगों में मस्त रहता था। स्त्री के वशीभूत रहने के कारण इस अवश्यम्भावी भय का उसे पता ही न चला। बर्हिष्मन्! इन्हीं दिनों काल की एक कन्या वर की खोज में त्रिलोकी में भटकती रही, फिर भी उसे किसी ने स्वीकार नहीं किया। वह कालकन्या (जरा) बड़ी भाग्यहीना थी, इसलिये लोग उसे ‘दुर्भगा’ कहते थे। एक बार राजर्षि पूरु ने पिता को अपना यौवन देने के लिये अपनी ही इच्छा से उसे वर लिया था, इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें राज्यप्राप्ति का वर दिया था।

एक दिन मैं ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर आया, तो वह घूमती-घूमती मुझे भी मिल गयी। तब मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर भी कामातुरा होने के कारण उसने वरना चाहा। मैंने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इस पर उसने अत्यन्त कुपित होकर मुझे यह दुःसह शाप दिया कि ‘तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, अतः तुम एक स्थान पर अधिक देर न ठहर सकोगे’।

तब मेरी ओर से निराश होकर उस कन्या ने मेरी सम्मति से यवनराज भय के पास जाकर उसका पतिरूप से वरण किया और कहा, ‘वीरवर! आप यवनों में श्रेष्ठ हैं, मैं आपसे प्रेम करती हूँ और पति बनाना चाहती हूँ। आपके प्रति किया हुआ जीवों का संकल्प कभी विफल नहीं होता। जो मनुष्य लोक अथवा शास्त्र की दृष्टि से देने योग्य वस्तु का दान नहीं करता और जो शास्त्रदृष्टि से अधिकारी होकर भी ऐसा दान नहीं लेता, वे दोनों ही दुराग्रही और मूढ़ हैं, अतएव शोचनीय हैं। भद्र! इस समय मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ, आप मुझे स्वीकार करके अनुगृहीत कीजिये। पुरुष का सबसे बड़ा धर्म दीनों पर दया करना ही है’।

कालकन्या की बात सुनकर यवनराज ने विधाता का एक गुप्त कार्य कराने की इच्छा से मुसकराते हुए उससे कहा- ‘मैंने योगदृष्टि से देखकर तेरे लिये एक पति निश्चय किया है। तू सबका अनिष्ट करने वाली है, इसलिये किसी को भी अच्छी नहीं लगती और इसी से लोग तुझे स्वीकार नहीं करते। अतः इस कर्मजनित लोक को तू अलक्षित होकर बलात् भोग। तू मेरी सेना लेकर जा; इसकी सहायता से तू सारी प्रजा का नाश करने में समर्थ होगी, कोई भी तेरा सामना न कर सकेगा। यह प्रज्वार नाम का मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा। तुम दोनों के साथ मैं अव्यक्त गति से भयंकर सेना लेकर सारे लोकों में विचरूँगा’।


साभार krishnakosh.org

मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है.


मनुष्य अपने भाग्य
का निर्माता आप है.
(डॉ. प्रणव पण्ड्या)

भाग्य और पुरुषार्थ जिन्दगी के दो छोर हैं। जिसका एक सिरा वर्तमान में है तो दूसरा हमारे जीवन के सुदूर व्यापी अतीत में अपना विस्तार लिए हुए है। यह सच है कि भाग्य का दायरा बड़ा है, जबकि वर्तमान के पाँवों के नीचे तो केवल दो पग धरती है। भाग्य के कोष में संचित कर्मों की विपुल पूँजी है, संस्कारों की अकूत राशि है, कर्म बीजों, प्रवृत्तियों एवं प्रारब्ध का अतुलनीय भण्डार है। जबकि पुरुषार्थ के पास अपना कहने के लिए केवल एक पल है। जो अभी अपना होते हुए भी अगले ही पल भाग्य के कोष में जा गिरेगा। 


भाग्य के इस व्यापक आकार को देखकर ही सामान्य जन सहम जाते हैं। अरे यही क्यों? सामान्य जनों की कौन कहे कभी-कभी तो विज्ञ, विशेषज्ञ और वरिष्ठ जन भी भाग्य के बलशाली होने की गवाही देते हैं। बुद्धि के सभी तर्क, ज्योतिष की समस्त गणनाएँ, ग्रह-नक्षत्रों का समूचा दल-बल इसी के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। ये सभी कहते हैं कि भाग्य अपने अनुरूप शुभ या अशुभ परिस्थितियों का निर्माण करता है। और ये परिस्थतियाँ अपने आँचल में सभी व्यक्तियों-वस्तुओं एवं संयोगों-दुर्योगों को लपेट लेती हैं। ये सब अपना पृथक् अस्तित्त्व खोकर केवल भाग्य की छाया बनकर उसी की भाषा बोलने लग जाते हैं।
लेकिन इतने पर भी पुरुषार्थ की महिमा कम नहीं होती। आत्मज्ञानी, तत्त्वदर्शी, अध्यात्मवेत्ता सामान्य जनों के द्वारा कही-सुनी और बोली जाने वाली उपरोक्त सभी बातों को एक सीमा तक ही स्वीकारते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि पुरषार्थ आत्मा की चैतन्य शक्ति है, जबकि भाग्य केवल जड़ कर्मों का समुदाय। और जड़ कर्मों का यह आकार कितना ही बड़ा क्यों न हो चेतना की नन्हीं चिन्गारी इस पर भारी पड़ती है। जिस तरह अग्नि की नन्हीं सी चिन्गारी फूस के बड़े से बड़े ढेर को जलाकर राख कर देती है। जिस तरह छोटे से दिखने वाले सूर्य मण्डल के उदय होते ही तीनों लोकों का अँधेरा भाग जाता है। ठीक उसी तरह पुरुषार्थ का एक पल भी कई जन्मों के भाग्य पर भारी पड़ता है। 


पुरुषार्थ की प्रक्रिया यदि निरन्तर अनवरत एवं अविराम जारी रहे तो पुराने भाग्य के मिटने व मनचाहे नए भाग्य के बनने में देर नहीं। पुरुषार्थ का प्रचण्ड पवन आत्मा पर छाए भाग्य के सभी आवरणों को छिन्न-भिन्न कर देता है। तब ऐसे संकल्प निष्ठ पुरुषार्थी की आत्मशक्ति से प्रत्येक असम्भव सम्भव और साकार होता है। तभी तो ऋषि वाणी कहती है- मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।

‘नानी बाई का मायरा’?


नानी बाई का मायरा’?

‘नानी बाई का मायरा’ भक्त नरसी की भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित कथा है। जिसमें ’मायरो’ अर्थात ’भात’ जोकि मामा या नाना द्वारा कन्या को उसकी शादी में दिया जाता है। वह भात स्वयं श्री कृष्ण लाते हैं।

‘नानी बाई’ नरसी जी की पुत्री थी और सुलोचना बाई उनकी माँ थी। नानी बाई का विवाह जब तय हुआ था, तब नानी बाई के ससुराल वालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है, वह शादी की रस्म ‘भात’ नहीं भर पायेगा। उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे तो उनकी बहुत बदनामी हो जायेगी, इसलिये उन्होंने एक बहुत लम्बी सूची भात के सामान की बनाई। उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया, जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर खुद ही न आये।

नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज़ थी-श्री कृष्ण की भक्ति, इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण पर भरोसा करते हुए अपने संतों की टोली के साथ बेटी को आर्शिवाद देने के लिये अंजार नगर पहुँच गये। उन्हें आता देख नानी बाई के ससुराल वाले भड़क गये और उनका अपमान करने लगे। इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो, रोते हुए श्रीकृष्ण को यादकरते हुए, वहां से चल दिए।

नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और आत्महत्या करने दौड़ पड़ी परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया और उससे कहा कि कल वह स्वयं नरसी के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे।​

दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी, तभी सामने देखती है कि नरसी जी संतों की टोली और कृष्ण जी एक सेठ का रूप धारण करके साथ चले आ रहे हैं और उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही है जिनमें सामान लदा हुआ है। दूर-दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ नज़र आ रही थी, जिनमें वह सब दुगना भरा था, जिसकी मांग पत्र में लिखी गई थी। ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने देखा नहीं था।

यह सब देखकर ससुराल वाले अपने किये पर पछताने लगे। कहते हैं भगवान् द्वारिकाधीश ने स्वर्ण मुद्राओं की ऐसी वर्षा की, जिससे गाँव वाले भी धनी हो गए।

नानी बाई के ससुराल वाले उस सेठ को देखते ही रहे और सोचने लगे कि कौन है ये सेठ और ये क्यों नरसी जी की मदद कर रहा है, जब उनसे रहा न गया तो उन्होंने पूछा कि कृपा करके अपना परिचय दीजिये और आप क्यों नरसी जी की सहायता कर रहे हैं।​

उनके इस प्रश्न का जवाब सेठ ने दिया, वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है। सेठजी का उत्तर था ’मैं नरसी जी का सेवक हूँ, इनका अधिकार चलता है, मुझ-पर। जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं, मैं दौड़ा चला आता हूँ, इनके पास। जो ये चाहते हैं, मैं वही करता हूँ। इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही मेरा कर्तव्य है।


ये उत्तर सुनकर सभी हैरान रह गये और किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था, बस नानी बाई ही समझती थी कि उसके पिता की भक्ति के कारण ही श्री कृष्ण उनसे बंध गये हैं और उनका दुख अब देख नहीं पा रहे हैं इसलिये मायरा भरने के लिये स्वयं ही आ गये हैं। भगवान केवल अपने भक्तों के वश में होते हैं।

भक्त नरसी मेहता


भक्त नरसी मेहता

नरसी मेहता ऐसे ही एक महान भक्त थे, नरसी मेहता का जन्म गुजरात राज्य में गिरपर्वत के पास जुनागढ़ नगर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जब ये बहुत ही छोटे थे, तब ही इनके माता पिता का देहांत हो गया था।​

नरसी मेहता का पालन पोषण नरसी जी के बड़े भाई ने किया था। नरसी मेहता को साधुओं की सेवा करने में बड़ा आनन्द आता था। उन्हीं साधुओं की सेवा करते करते नरसी जी ने भी सत्संग में भगवान की भक्ति शुरू कर दी। उनकी भाभी ने उन्हें कई बार इसके लिये ताने देती थी। नरसी मेहता का विवाह भी बहुत छोटी आयु में माणिकबाई से करा दिया गया था।​ ​

एक दिन नरसी जी की भाभी ने उन्हें खूब खरी खोटी सुनाई क्योंकि वह घर देर से आये थे। यह अपमान वह सह नहीं पाये और उन्होंने अपने घर का ही त्याग कर दिया तथा वह गिर पर्वत के घने जंगल में कहीं चले गये। वहीं कहीं उन्हें एक शिवालय दिखाई दिया। नरसी जी वहीं रहने लगे और वहीं शिवजी की आराधना में लीन हो गये। सात दिनों बाद स्वयं भगवान शंकर ने दर्शन दिये और कहा कि जो तुम्हारी इच्छा हो वो वरदान मांग लो।​

नरसी मेहता को किसी भी प्रकार के फल की कामना में नहीं की थी, इसलिये उन्होंने कहा जो आपकी इच्छा हो वह मुझे दे दीजिये। उनके इस वचन से प्रसन्न होकर भगवान शिव उन्हें गौलोक ले गये। गौलोक में भगवान कृष्ण गोपियों के संग रासलीला रचा रहे थे, ऐसा मनमोहित दृश्य देखकर नरसी मेहता उसी में खोकर रह गये।​

वह इस दृष्य को बिना पलकें झपकाए देखते रह गये और भक्ति रस में लीन हो गये, तब ही भगवान कृष्ण ने नरसी जी की ओर देखा और उन्हें आर्शिवाद प्रदान किया और कहा जैसे भक्ति रस में तुम डूबे हो, वैसे ही रसपान का आनन्द सारे जगत को कराओ, नरसी जी ने इसे ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया और पृथ्वी पर जगह जगह कृष्ण भजन गाते हुए मग्न रहने लगे।​​

नरसी मेहता की ऐसी भक्ति से प्रेरित होकर बहुत से साधु संत उनके साथ भक्ति में लग गये, मगर कुछ लोगों को नरसी जी का प्रसिद्ध होना अच्छा नहीं लगता था, वह लोग नरसी जी को परेशान करने के नित नए बहाने ढूंढते थे, परन्तु नरसी जी उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया करते थे।​

एक समय द्वारिका जाने वाले यात्री जूनागढ़ आये। उन यात्रियों के पास कुछ धन रखा हुआ था, जिन्हें वह डाकुओं के भय के कारण अपने पास नहीं रखना चाहते थे, इसलिये वे सब एक ऐसे साहुकार को ढूंढ रहे थे, जो उस धन के बदले में एक हुंडी दे दे। उस समय हुंडी एक पत्र होता था, उस हुंडी में रकम और दूसरे सेठ का नाम लिखा होता था और हुंडी लिखने वाले की मोहर तथा हस्ताक्षर होते थे, उसे दूसरे नगर में सेठ को देने पर वह सेठ लिखी हुई रकम दे देता था, इससे रास्ते में हो रही चोरी का खतरा नहीं रहता था, जब यात्रियों ने किसी नगर सेठ का नाम पूछा तो कुछ शरारती व्यक्तियों ने नरसी जी का नाम दे दिया। यात्री गण, नरसी जी के पास जाकर उनसे प्रार्थना करने लगे कि वह उनकी हुंडी लिख दे, नरसी जी ने उनसे कहा कि वह तो एक विरक्त भक्त है, उनके पास कुछ भी नहीं है कि वह हुंडी लिख दें, परन्तु वह यात्री समझ रहे थे कि नरसी जी यह सब केवल उन्हें टालने के लिये कह रहे हैं।​

यात्रियों के बहुत आग्रह करने के बाद नरसी मेहता हुंडी लिखने के लिये राज़ी हो गये। नरसी जी ने श्री कृष्ण पर भरोसा किया और सांवल शाह गिरधारी के नाम की हुंडी लिखी, यात्री गण श्रद्धा पूर्वक हुंडी लेकर द्वारिका चले गये। वहाँ नरसी जी कृष्ण भजन गाते हुए श्री कृष्ण से लाज रखने की प्रार्थना करने लगे, जब यात्री द्वारिका पहुँचे तो स्वयं द्वारिकाधीश ने सांवल शाह सेठ बनकर हुंडी के बदले में धन दे दिया।​

उनके जीवन की अनेक घटनाएँ भक्ति से ओतप्रोत और भगवान् की विचित्र लीला से युक्त रही हैं। उन्हें कारावास में भी डलवाया गया किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण के साक्षीभाव से वे आदर सहित मुक्त हुये।

कहते हैं जीवन के अंत समय में भजन करते करते, उनकी देह श्रीकृष्ण की प्रतिमा में समाविष्ट हो गई थी।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

पुरंजनपुरी पर चण्डवेग की चढ़ाई तथा कालकन्या का चरित्र

श्रीनारद जी कहते हैं- महाराज! इस प्रकार वह सुन्दरी अनेकों नखरों से पुरंजन को पूरी तरह अपने वश में कर उसे आनन्दित करती हुई विहार करने लगी। उसने अच्छी तरह स्नान कर अनेक प्रकार के मांगलिक श्रृंगार किये तथा भोजनादि से तृप्त होकर वह राजा के पास आयी। राजा ने उस मनोहर मुख वाली राजमहिषी का सादर अभिनन्दन किया। पुरंजनी ने राजा का आलिंगन किया और राजा ने उसे गले लगाया। फिर एकान्त में मन के अनुकूल रहस्य की बातें करते हुए वह ऐसा मोहित हो गया कि उस कामिनी में ही चित्त लगा रहने के कारण उसे दिन-रात के भेद से निरन्तर बीतते हुए काल की दुस्तर गति का भी कुछ पता न चला। मद से छका हुआ मनस्वी पुरंजन अपनी प्रिया की भुजा पर सिर रखे महामूल्य शय्या पर पड़ा रहता। उसे तो वह रमणी ही जीवन का परम फल जान पड़ती थी। आज्ञान से आवृत्त हो जाने के कारण उसे आत्मा अथवा परमात्मा का कोई ज्ञान न रहा।

राजन्! इस प्रकार कामातुर चित्त से उसके साथ विहार करते-करते राजा पुरंजन की जवानी आधे क्षण के समान बीत गयी। प्रजापते! उस पुरंजनी से राजा पुरंजन के ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुईं, जो सभी माता-पिता का सुयश बढ़ाने वाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न थीं। ये पौरंजनी नाम से विख्यात हुईं। इतने में भी उस सम्राट् की लंबी आयु का आधा भाग निकल गया। फिर पांचालराज पुरंजन ने पितृवंश की वृद्धि करने वाले पुत्रों का वधुओं के साथ और कन्याओं का उनके योग्य वरों के साथ विवाह कर दिया। पुत्रों में से प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे वृद्धि को प्राप्त होकर पुरंजन का वंश सारे पांचाल देश में फैल गया। इन पुत्र, पौत्र गृह, कोश, सेवक और मन्त्री आदि में दृढ़ ममता हो जाने से वह इन विषयों में ही बँध गया।

फिर तुम्हारी तरह उसने भी अनेक प्रकार के भोगों की कामना से यज्ञ की दीक्षा ले तरह-तरह के पशुहिंसामय घोर यज्ञों से देवता, पितर और भूपतियों की आराधना की। इस प्रकार वह जीवन भर आत्मा का कल्याण करने वाले कर्मों की ओर से असावधान और कुटुम्बपालन में व्यस्त रहा। अन्त में वृद्धावस्था का वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषों को बड़ा अप्रिय होता है।

राजन्! चण्डवेग नाम का एक गन्धर्वराज है। उसके अधीन तीन सौ साठ महाबलवान् गन्धर्व रहते हैं। इनके साथ मिथुनभाव से स्थित कृष्ण और शुक्ल वर्ण की उतनी ही गंधार्वियाँ भी हैं। ये बारी-बारी से चक्कर लगाकर भोग-विलास की सामग्रियों से भरी-पूरी नगरी को लूटती रहती हैं। गन्धर्वराज चण्डवेग के उन अनुचरों ने जब राजा पुरंजन का नगर लूटना आरम्भ किया, तब उन्हें पाँच फन के सर्प प्रजागर ने रोका। यह पुरंजनपुरी की चौकसी कंरने वाला महाबलवान् सर्प सौ वर्ष तक अकेला ही उन सात सौ बीस गन्धर्व-गन्धर्वियों से युद्ध करता रहा। बहुत-से वीरों के साथ अकेले ही युद्ध करने के कारण अपने एकमात्र सम्बन्धी प्रजागर को बलहीन हुआ देख राजा पुरंजन को अपने राष्ट्र और नगर में रहने वाले अन्य बान्धवों के सहित बड़ी चिन्ता हुई।


साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद

स्त्रियों ने कहा- नरनाथ! मालूम नहीं आज आपकी प्रिया ने क्या ठानी है। शत्रुदमन! देखिये, वे बिना बिछौने के पृथ्वी पर ही पड़ी हुई हैं।

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! उस स्त्री के संग से राजा पुरंजन का विवेक नष्ट हो चुका था; इसलिये अपनी रानी को पृथ्वी पर अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसने दुःखित हृदय से उसे मधुर वचनों द्वारा बहुत कुछ समझाया, किन्तु उसे अपनी प्रेयसी के अंदर अपने प्रति प्रणय-कोप का कोई चिह्न नहीं दिखायी दिया। वह मनाने में भी बहुत कुशल था, इसलिये अब पुरंजन ने उसे धीरे-धीरे मनाना आरम्भ किया। उसने पहले उसके चरण छुए और फिर गोद में बिठाकर बड़े प्यार से कहने लगा।

पुरंजन बोला- सुन्दरि! वे सेवक तो निश्चय ही बड़े अभागे हैं, जिनके अपराध करने पर स्वामी उन्हें अपना समझकर शिक्षा के लिये उचित दण्ड नहीं देते। सेवक को दिया हुआ स्वामी का दण्ड तो उस पर बड़ा अनुग्रह ही होता है। जो मूर्ख हैं, उन्हीं को क्रोध के कारण अपने हितकारी स्वामी के किये हुए उस उपकार का पता नहीं चलता।

सुन्दर दन्तावली और मनोहर भौहों से शोभा पाने वाली मनस्विनि! अब यह क्रोध दूर करो और एक बार मुझे अपना समझकर प्रणय-भार तथा लज्जा से झुका हुआ एवं मधुर मुसकानमयी चितवन से सुशोभित अपना मनोहर मुखड़ा दिखाओ। अहो! भ्रमरपंक्ति के समान नीली अलकावली, उन्नत नासिका और सुमधुर वाणी के कारण तुम्हारा वह मुखारविन्द कैसा मनमोहक जान पड़ता है।

वीरपत्नी! यदि किसी दूसरे ने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उसे बताओ; यदि वह अपराधी ब्राह्मण कुल का नहीं है, तो मैं उसे अभी दण्ड देता हूँ। मुझे तो भगवान् के भक्तों को छोड़कर त्रिलोकी में अथवा उससे बाहर ऐसा कोई नहीं दिखायी देता जो तुम्हारा अपराध करके निर्भय और आनन्दपूर्वक रह सके। प्रिये! मैंने आज तक तुम्हारा मुख कभी तिलकहीन, उदास, मुरझाया हुआ, क्रोध के कारण डरावना, कान्तिहीन और स्नेहशून्य नहीं देखा; और न कभी तुम्हारे सुन्दर स्तनों को ही शोकाश्रुओं से भीगा तथा बिम्बाफलसदृश अधरों को स्निग्ध केसर की लीला से रहित देखा है। मैं व्यसनवश तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिये अवश्य अपराधी हूँ। फिर भी अपना समझकर तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ; कामदेव के विषम बाणों से अधीर होकर जो सर्वदा अपने अधीन रहता है, उस अपने प्रिय पति को उचित कार्य के लिये भला और कौन कामिनी स्वीकार नहीं करती।

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद 
राजा पुरंजन का शिकार खेलने वन में जाना और रानी का कुपित होना.

श्रीनारद जी कहते हैं—राजन्! एक दिन राजा पुरंजन अपना विशाल धनुष, सोने का कवच और अक्षय तरकस धारण कर अपने ग्यारहवें सेनापति के साथ पाँच घोड़ों के शीघ्रगामी रथ में बैठकर पंचप्रस्थ नाम के वन में गया। उस रथ में दो ईषादण्ड (बंब), दो पहिये, एक धुरी, तीन ध्वजदण्ड, पाँच डोरियाँ, एक लगाम, एक सारथि, एक बैठने का स्थान, दो जुए, पाँच आयुध और सात आवरण थे। वह पाँच प्रकार की चालों से चलता था तथा उसका साज-बाज सब सुनहरा था। यद्यपि राजा के लिये अपनी प्रिया को क्षण भर भी छोड़ना कठिन था, किन्तु उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि उसकी भी परवा न कर वह बड़े गर्व से धनुष-बाण चढ़ाकर आखेट करने लगा। इस समय आसुरीवृत्ति बढ़ जाने से उसका चित्त बड़ा कठोर और दयाशून्य हो गया था, इससे उसने अपने तीखे बाणों से बहुत-से निर्दोष जंगली जानवरों का वध कर डाला। जिसकी मांस में अत्यन्त आसक्ति हो, वह राजा केवल शास्त्रप्रदर्शित कर्मों के लिये वन में जाकर आवश्यकतानुसार अनिषिद्ध पशुओं का वध करे; व्यर्थ पशुहिंसा न करे। शास्त्र इस प्रकार उच्छ्रंखल प्रवृत्ति को नियन्त्रित करता है।

राजन्! जो विद्वान् इस प्रकार शास्त्रनियत कर्मों का आचरण करता है, वह उस कर्मानुष्ठान से प्राप्त हुए ज्ञान के कारणभूत कर्मों से लिप्त नहीं होता। नहीं तो, मनमाना कर्म करने से मनुष्य अभिमान के वशीभूत होकर कर्मों में बँध जाता है तथा गुण-प्रवाहरूप संसारचक्र में पड़कर विवेक-बुद्धि के नष्ट हो जाने से अधम योनियों में जन्म लेता है। पुरंजन के तरह-तरह के पंखों वाले बाणों से छिन्न-भिन्न होकर अनेकों जीव बड़े कष्ट के साथ प्राण त्यागने लगे। उसका वह निर्दयतापूर्ण जीव-संहार देखकर सभी दयालुपुरुष बहुत दुःखी हुए। वे इसे सह नहीं सके। इस प्रकार वहाँ खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, कृष्णमृग, साही तथा और भी बहुत-से मेध्य पशुओं का वध करते-करते राजा पुरंजन बहुत थक गया। तब वह भूख-प्यास से अत्यन्त शिथिल हो वन से लौटकर राजमहल में आया। वहाँ उसने यथायोग्य रीति से स्नान और भोजन से निवृत्त हो, कुछ विश्राम करके थकान दूर की। फिर गन्ध, चन्दन और माला आदि से सुसज्जित हो सब अंगों में सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने। तब उसे अपनी प्रिया की याद आयी। वह भोजनादि से तृप्त, हृदय में आनन्दित, मद से उन्मत्त और काम से व्यथित होकर अपनी सुन्दरी भार्या को ढूँढने लगा; किन्तु उसे वह कहीं भी दिखायी न दी।

प्राचीनबर्हि! तब उसने चित्त में कुछ उदास होकर अन्तःपुर की स्त्रियों से पूछा, ‘सुन्दरियों! अपनी स्वामिनी के सहित तुम सब पहले की ही तरह कुशल से हो न? क्या कारण है आज इस घर की सम्पत्ति पहले-जैसी सुहावनी नहीं जान पड़ती? घर में माता अथवा पतिपरायणा भार्या न हो, तो वह घर बिना पहिये के रथ के समान हो जाता है; फिर उसमे कौन बुद्धिमान् दीन पुरुषों के समान रहना पसंद करेगा। अतः बताओ, वह सुन्दरी कहाँ है, जो दुःख-समुद्र में डूबने पर मेरी विवेक-बुद्धि को पद-पद पर जाग्रत् करके मुझे उस संकट से उबार लेती है?

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 48-62 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 48-62 का हिन्दी अनुवाद

इसी प्रकार उस ओर नलिनी और नालिनी नाम के द्वार और भी एक ही जगह बनाये गये थे। उनसे होकर वह अवधूत के साथ सौरभ नामक देश को जाता था। पूर्व दिशा की ओर मुख्या नाम का जो पाँचवाँ द्वार था, उसमें होकर वह रसज्ञ और विपन के साथ क्रमशः बहूदन और आपण नाम के देशों को जाता था। पुरी के दक्षिण की ओर जो पितृहू नाम का द्वार था, उसमें होकर राजा पुरंजन श्रुतधर के साथ दक्षिण पांचाल देश को जाता था। उत्तर की ओर जो देवहू नाम का द्वार था, उससे श्रुतधर के ही साथ वह उत्तर पांचाल देश को जाता था। पश्चिम दिशा में आसुरि नाम का दरवाजा था, उसमें होकर वह दुर्मद के साथ ग्रामक देश को जाता था तथा निर्ऋति नाम का जो दूसरा पश्चिम द्वार था, उससे लुब्धक के साथ वह वैशस नाम के देश को जाता था। इस नगर के निवासियों में निर्वाक् और पेशस्कृत्-ये दो नागरिक अन्धे थे। राजा पुरंजन आँख वाले नागरिकों का अधिपति होने पर भी इन्हीं की सहायता से जहाँ-तहाँ जाता और सब प्रकार के कार्य करता था। जब कभी अपने प्रधान सेवक विषूचीन के साथ अन्तःपुर में जाता, तब उसे स्त्री और पुत्रों के कारण होने वाले मोह, प्रसन्नता एवं हर्ष आदि विकारों का अनुभव होता। उसका चित्त तरह-तरह के कर्मों में फँसा हुआ था और काम-परवश होने के कारण वह मूढ़ रमणी के द्वारा ठगा गया था। उसकी रानी जो-जो काम करती थी, वही वह भी करने लगता था। वह जब मद्यपान करती, तब वह भी मदिरा पीता और मद से उन्मत्त हो जाता था; जब वह भोजन करती, तब आप भी वही वस्तु चबाने लगता था। इसी प्रकार कभी उसके गाने पर गाने लगता, रोने पर रोने लगता, हँसने पर हँसने लगता और बोलने पर बोलने लगता। वह दौड़ती तो आप भी दौड़ने लगता, खड़ी होती तो आप भी खड़ा हो जाता, सोती तो आप भी उसी के साथ सो जाता और बैठती तो आप भी बैठ जाता। कभी वह सुनने लगती तो आप भी सुनने लगता, देखती तो देखने लगता, सूँघती तो सूँघने लगता और किसी चीज को छूती तो आप भी छूने लगता। कभी उसकी प्रिया शोकाकुल होती तो आप भी अत्यन्त दीन के समान व्याकुल हो जाता; जब वह प्रसन्न होती, आप भी प्रसन्न हो जाता और उसके आनन्दित होने पर आप भी आनन्दित हो जाता। (इस प्रकार) राजा पुरंजन अपनी सुन्दरी रानी के द्वारा ठगा गया। सारा प्रकृतिवर्ग-परिकर ही उसको धोखा देने लगा। वह मूर्ख विवश होकर इच्छा न होने पर भी खेल के लिए घर पर पाले हुए बंदर के समान अनुकरण करता रहता।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद

श्रीनारद जी कहा- वीरवर! जब राजा पुरंजन ने अधीर-से होकर इस प्रकार याचना की, तब उस बाला ने भी हँसते हुए उसका अनुमोदन किया। वह भी राजा को देखकर मोहित हो चुकी थी। वह कहने लगी, ‘नरश्रेष्ठ! हमें अपने उत्पन्न करने वाले का ठीक-ठीक पता नहीं है और न हम अपने या किसी दूसरे के नाम या गोत्र को ही जानती हैं। वीरवर! आज हम सब इस पुरी में हैं- इसके सिवा मैं और कुछ नहीं जानती; मुझे इसका भी पता नहीं है कि हमारे रहने के लिये यह पुरी किसने बनायी है। प्रियवर! ये पुरुष मेरे सखा और स्त्रियाँ मेरी सहेलियाँ हैं तथा जिस समय मैं सो जाती हूँ, यह सर्प जागता हुआ इस पुरी की रक्षा करता रहता है। शत्रुदमन! आप यहाँ पधारे, यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। आपका मंगल हो। आपको विषय-भोगों-की इच्छा है, उसकी पूर्ति के लिये मैं अपने साथियों सहित सभी प्रकार के भोग प्रस्तुत करती रहूँगी। प्रभो! इस नौ द्वारों वाली पुरी में मेरे प्रस्तुत किये हुए इच्छित भोगों को भोगते हुए आप सैकड़ों वर्षों तक निवास कीजिये। भला, आपको छोड़कर मैं और किसके साथ रमण करुँगी? दूसरे लोग तो न रति सुख को जानते हैं, न विहित भोगों को ही भोगते हैं, न परलोक का ही विचार करते हैं और न कल क्या होगा- इसका ही ध्यान रखते हैं, अतएव पशुतुल्य हैं। अहो! इस लोक में गृहस्थाश्रम में ही धर्म, अर्थ, काम, सन्तान-सुख, मोक्ष, सुयश और स्वर्गादि दिव्य लोकों की प्राप्ति हो सकती है। संसारत्यागी यतिजन तो इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते। महापुरुषों का कथन है कि इस लोक में पितर, देव, ऋषि, मनुष्य तथा सम्पूर्ण प्राणियों के और अपने भी कल्याण का आश्रय एकमात्र गृहस्थाश्रम ही है।

वीरशिरोमणे! लोक में मेरी-जैसी कौन स्त्री होगी, जो स्वयं प्राप्त हुए आप-जैसे सुप्रसिद्ध, उदारचित्त और सुन्दर पति को वरण न करेगी। महाबाहो! इस पृथ्वी पर आपकी साँप-जैसी गोलाकार सुकोमल भुजाओं में स्थान पाने के लिये किस कामिनी का चित्त न ललचावेगा? आप तो अपनी मधुर मुसकानमयी करुणापूर्ण दृष्टि से हम-जैसी अनाथाओं के मानसिक सन्ताप को शान्त करने के लिये ही पृथ्वी में विचर रहे हैं’।

श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! उन स्त्री-पुरुषों ने इस प्रकार एक-दूसरे की बात का समर्थन कर फिर सौ वर्षों तक उस पुरी में रहकर आनन्द भोगा। गायक लोग सुमधुर स्वर में जहाँ-तहाँ राजा पुरंजन की कीर्ति गाया करते थे। जब ग्रीष्म-ऋतु आती, तब वह अनेकों स्त्रियों के साथ सरोवर में घुसकर जलक्रीड़ा करता। उस नगर में जो नौ द्वार थे, उनमें से सात नगरी के ऊपर और दो नीचे थे। उस नगर का जो कोई राजा होता, उसके पृथक्-पृथक् देशों में जाने के लिये ये द्वार बनाये गये थे। राजन्! इनमें से पाँच पूर्व, एक दक्षिण, एक उत्तर और दो पश्चिम की ओर थे। उनके नामों का वर्णन करता हूँ। पूर्व की ओर खाद्योत और आविर्मुखी नाम के दो द्वार एक ही जगह बनाये गये थे। उनमें होकर राजा पुरंजन अपने मित्र द्युमान् के साथ विभ्राजित नामक देश को जाया करता था।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद

वहाँ के वन्य पशु भी मुनिजनोचित अहिंसादि व्रतों का पालन करने वाले थे, इसलिये उनसे किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचता था। वहाँ बार-बार जो कोकिल की कुहू-ध्वनि होती थी, उससे मार्ग में चलने वाले बटोहियों को ऐसा भ्रम होता था, मानो यह बगीचा विश्राम करने के लिये उन्हें बुला रहा है।

राजा पुरंजन ने उस अद्भुत वन में घूमते-घूमते एक सुन्दरी को आते देखा, जो अकस्मात् उधर चली आयी थी। उसके साथ दस सेवक थे, जिनमें से प्रत्येक सौ-सौ नायिकाओं का पति था। एक पाँच फन वाला साँप उसका द्वारपाल था, वही उसकी सब ओर से रक्षा करता था। वह सुन्दरी भोली-भाली किशोरी थी और विवाह के लिये श्रेष्ठ-पुरुष की खोज में थी। उसकी नासिका, दन्तपंक्ति, कपोल और मुख बहुत सुन्दर थे। उसके समान कानों में कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसका रंग साँवला था। कटि प्रदेश सुन्दर था। वह पीले रंग की साड़ी और सोने की करधनी पहने हुए थी तथा चलते समय चरणों से नूपुरों की झनकार करती जाती थी। अधिक क्या, वह साक्षात् कोई देवी-सी जान पड़ती थी। वह गजगामिनी बाला किशोरावस्था की सूचना देने वाले अपने गोल-गोल समान और परस्पर सटे हुए स्तनों को लज्जावश बार-बार अंचल से ढकती जाती थी। उसकी प्रेम से मटकती भौंह और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवन के बाण से घायल होकर वीर पुरंजन ने लज्जायुक्त मुस्कान से और भी सुन्दर लगने वाली उस देवी से मधुर वाणी में कहा- ‘कमलदललोचने! मुझे बताओ तुम कौन हो, किसकी कन्या हो? साध्वी! इस समय आ कहाँ से रही हो, भीरु! इस पुरी के समीप तुम क्या करना चाहती हो? सुभ्रु! तुम्हारे साथ इस ग्यारहवें महान् शुरवीर से संचालित ये दस सेवक कौन हैं और ये सहेलियाँ तथा तुम्हारे आगे चलने वाला यह सर्प कौन है? सुन्दरि! तुम साक्षात् लज्जादेवी हो अथवा उमा, रमा और ब्राह्मणी में से कोई हो? यहाँ वन में मुनियों की तरह एकान्तवास करके क्या अपने पतिदेव को खोज रही हो? तुम्हारे प्राणनाथ तो ‘तुम उनके चरणों की कामना करती हो’, इतने से ही पूर्णकाम हो जायेंगे। अच्छा, यदि तुम साक्षात् कमलादेवी हो, तुम तुम्हारे हाथ का कीड़ाकमल कहाँ गिर गया। सुभगे! तुम इनमें से कोई हो नहीं; क्योंकि तुम्हारे चरण पृथ्वी का स्पर्श कर रहे हैं। अच्छा, यदि तुम कोई मानवी ही हो, तो लक्ष्मी जी जिस प्रकार भगवान् विष्णु के साथ वैकुण्ठ की शोभा बढाती हैं, उसी प्रकार तुम मेरे साथ इस श्रेष्ठ पुरी को अलंकृत करो। देखो, मैं बड़ा ही वीर और पराक्रमी हूँ। परंतु आज तुम्हारे कटाक्षों ने मेरे मन को बेकाबू कर दिया है। तुम्हारी लजीली और रतिकाम से भरी मुस्कान के साथ भौंहों के संकेत पाकर यह शक्तिशाली कामदेव मुझे पीड़ित कर रहा है। इसलिये सुन्दरि! अब तुम्हें मुझ पर कृपा करनी चाहिये। शुचिस्मिते! सुन्दर भौहें और सुघड़ नेत्रों से सुशोभित तुम्हारा मुखारविन्द इन लंबी-लंबी काली अलकावलियों से घिरा हुआ है; तुम्हारे मुख से निकले हुए वाक्य बड़े ही मीठे और मन हरने वाले हैं, परंतु वह मुख तो लाज के मारे मेरी ओर होता ही नहीं। जरा ऊँचा करके अपने उस सुन्दर मुखड़े का मुझे दर्शन तो कराओ’।


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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 29-39 का हिन्दी अनुवाद


 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 29-39 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जिस समय देवांगनाएँ इस प्रकार स्तुति कर रही थीं, भगवान् के जिस परमधाम को आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोक को गयीं। परम भागवत पृथु जी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार हैं, मैंने तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया। जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्र को श्रद्धापूर्वक (निष्काम भाव से) एकाग्रचित्त से पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है-वह भी महाराज पृथु के पद-भगवान् के परमधाम को प्राप्त होता है। इसका सकाम भाव से पाठ करने से ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो जाता है, वैश्य व्यापारियों में प्रधान हो जाता है और शूद्र में साधुता आ जाती है। स्त्री हो अथवा पुरुष-जो कोई उसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्र का कल्याण करने वाला और अमंगल को दूर करने वाला है। यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला और कलियुग के दोषों का नाश करने वाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्ग की प्राप्ति में भी बड़ा सहायक है; इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हों, उन्हें इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये। जो राजा विजय के लिये प्रस्थान करते समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजा लोग उसी प्रकार भेंटें रखते हैं, जैसे पृथु के सामने रखते थे। मनुष्य को चाहिये कि अन्य सब प्रकार कि आसक्ति छोड़कर भगवान् में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज पृथु के इस निर्मल चरित को सुने, सुनावे और पढ़े।

विदुर जी! मैंने भगवान् के माहात्म्य को प्रकट करने वाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें सुना दिया। इसमें प्रेम करने वाला पुरुष महाराज पृथु की-सी गति पाता है। जो पुरुष इस पृथु-चरित का प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्काम भाव से श्रवण और कीर्तन करता है; उसका जिनके चरण संसार सागर को पार करने के लिये नौका के समान हैं, उन श्रीहरि में सुदृढ़ अनुराग हो जाता है।


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