लक्ष्य अब दूर नहीं. भाग-1



    
हम जैसा चाहते हैं, वैसे ही भगवान् हमें मिलते हैं। दो भक्त थे। एक भगवान् श्रीरामका भक्त था,  दूसरा भगवान् श्रीकृष्ण का। दोनों अपने-अपने भगवान् (इष्टदेव)-को श्रेष्ठ बतलाते थे। एक बार वे जंगलमें गये। वहाँ दोनों भक्त अपने-अपने भगवान्‌ को पुकारने लगे। उनका भाव यह था कि दोनों में से जो भगवान् शीघ्र आ जायँ वही श्रेष्ठ हैं। भगवान् श्रीकृष्ण शीघ्र प्रकट हो गये। इससे उनके भक्त ने उन्हें श्रेष्ठ बतला दिया। थोड़ी देर में भगवान् श्रीराम भी प्रकट हो गये। इस पर उनके भक्त ने कहा कि आपने मुझे हरा दिया;  भगवान् श्रीकृष्ण तो पहले आ गये, पर आप देर से आये,  जिससे मेरा अपमान हो गया! भगवान् श्रीराम ने अपने भक्तसे पूछा‒‘तूने मुझे किस रूप में याद किया था?’ भक्त बोला‒‘राजाधिराज के रूप में।तब भगवान् श्रीराम बोले‒‘बिना सवारी के राजाधिराज कैसे आ जायँगे। पहले सवारी तैयार होगी, तभी तो वे आयँगे!कृष्ण-भक्त से पूछा गया तो उसने कहा‒‘मैंने तो अपने भगवान्‌ को गाय चराने वालेके रूप में याद किया था कि वे यहीं जंगल में गाय चराते होंगे। इसीलिये वे पुकारते ही तुरन्त प्रकट हो गये।

दुःशासन के द्वारा भरी सभा में चीर खींचे जाने के कारण द्रौपदी ने द्वारका वासिन् कृष्णकहकर भगवान्‌ को पुकारा,  तो भगवान्‌ के आने में थोड़ी देर लगी। इसपर भगवान्‌ ने द्रौपदी से कहा कि तूने मुझे द्वारकावासिन्’(द्वारका में रहने वाले) कहकर पुकारा,  इसलिये मुझे द्वार का जाकर फिर वहाँ से आना पड़ा। यदि तू कहती कि यहीं से आ जाओ तो मैं यहीं से प्रकट हो जाता।

भगवान् सब जगह हैं। जहाँ हम हैं, वहीं भगवान् भी हैं। भक्त जहाँ से भगवान्‌ को बुलाता है, वहीं से भगवान् आते हैं। भक्तकी भावना के अनुसार ही भगवान् प्रकट होते हैं

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती ।
प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥

हरि   व्यापक    सर्वत्र  समाना ।
प्रेम  तें  प्रगट  होहिं  मैं  जाना ॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं ।
कहहु सो  कहाँ जहाँ  प्रभु नाहीं ॥ (मानस १ । १८५ । २-३)
                                

जब भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के बीच से अन्तर्धान हो गये तो गोपियाँ पुकारने लगीं

दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥   (श्रीमद्भागवत १०।३१।१)

हे प्रिय ! तुममें अपने प्राण समर्पित कर चुकने वाली हम सब तुम्हारी प्रिय गोपियाँ तुम्हें सब ओर ढूँढ रही हैं, अतएव अब तुम तुरन्त दिख जाओ।

गोपियों की पुकार सुनकर भगवान् उनके बीच में ही प्रकट हो गये

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥                (श्रीमद्भागवत १० । ३२ । २)

ठीक उसी समय उनके बीचो-बीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुख-कमल मन्द-मन्द मुसकान से खिला हुआ था, गले में वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मन को मथ डालने वाले कामदेव के मनको भी मथने वाला था।

इस प्रकार गोपियों ने प्यारे ! दिख जाओ(दयित दृश्यताम्)ऐसा कहा तो भगवान् वहीं दिख गये। यदि वे कहतीं कि कहीं से आ जाओ, तो भगवान् वहीं से आते।

भगवान्‌ की प्राप्ति साधन के द्वारा होती हैयह बात भी यद्यपि सच्ची है, परन्तु इस बात को मानकर चलने से साधक को भगवत्प्राप्ति देर से होती है। यदि साधक का ऐसा भाव हो जाय कि मुझे तो भगवान् अभी मिलेंगे, तो उसे भगवान् अभी ही मिल जायँगे। वे यह नहीं देखेंगे कि भक्त कैसा है, कैसा नहीं है? काँटों वाले वृक्ष हों, घास हो, खेती हो, पहाड़ हो, रेगिस्तान हो या समुद्र हो; वर्षा सब पर समान रूप से बरसती है। वर्षा यह नहीं देखती कि कहाँ पानी की आवश्यकता है और कहाँ नहीं? इसी प्रकार जब भगवान् कृपा करते हैं तो यह नहीं देखते कि यह पापी है या पुण्यात्मा? अच्छा है या बुरा? वे सब जगह बरस जाते अर्थात् प्रकट हो जाते हैं।

‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहींपुस्तक से’
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित.



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