नारद मोह-2


जब शिवजी ने पार्वती जी को बताया कि देवर्षि नारद ने श्री हरि (विष्णु) को श्राप  दिया था तो वे बड़ी चकित हुईं। और बोलीं, “नारद जी तो विष्णुभक्त और अत्यन्त ज्ञानी हैं। फिर उन्होंने भगवान को श्राप क्यों  दिया?”
शिवजी न हँस कर कहा, “इस संसार में न तो कोई ज्ञानी है और न मूर्ख। श्री रघुनाथ जी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है। मैं तुम्हें नारद जी की कथा सुनाता हूँ। 


हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उस गुफा के निकट ही गंगा जी बहती थीं। वह परम पवित्र गुफा नारद जी को अत्यन्त सुहावनी लगी। वहाँ के पर्वत, नदी और वन को देख कर उनके हृदय में लक्ष्मीकान्त विष्णुजी की भक्ति अत्यन्त बलवती हो उठी और वे वहीं बैठ कर तपस्या में लीन हो गये। नारद मुनि की इस तपस्या से देवराज इन्द्र भयभीत हो उठे कि कहीं देवर्षि नारद अपने तप के बल से इन्द्रपुरी को अपने अधिकार में न ले लें। इन्द्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया।  कामदेव ने अपनी माया से वसन्त ऋतु को उत्पन्न कर दिया। वृक्षों और लताओं में रंग-बिरंगे फूल खिल गये, कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल-मन्द-सुगन्ध सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती अप्सराएँ नृत्य व गान करने लगीं।

किन्तु कामदेव की किसी भी कला का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को भय सताने लगा कि कहीं देवर्षि मुझे श्राप न दे दें। हारकर देवर्षि के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगे। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया। कामदेव वापस अपने लोक में चले गये।


कामदेव के चले जाने पर नारद मुनि के मन में अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया।  वे शिव जी के पास चले गये और उन्हें  कामदेव को जीतने का विवरण कह सुनाया। भगवान शिव समझ गये कि इन्हें अहंकार हो गया है। शंकरजी ने सोचा कि यदि इनके अहंकार की बात विष्णुजी जान गये तो देवर्षि का अहित ही होगा। अतः उन्होंने नारद से कहा कि तुमने जो कथा मुझे बताई है उसे श्री हरि को मत बताना।


नारद जी को शिव जी की यह बात अच्छी नहीं लगी। अतः नारद जी क्षीरसागर में पहुँच गये और शिवजी के मना करने के बाद भी सारी कथा उन्हें सुना दी। भगवान विष्णु तत्काल समझ गये कि नारद के  मन को अहंकार ने घेर लिया है। अपने भक्त के अहंकार को वे सह नहीं पाते इसलिये उन्होंने अपने मन में सोचा कि मैं ऐसा उपाय करूँगा कि नारद का अहंकार भी दूर हो जाये और मेरी लीला भी चलती रहे।


नारदजी जब श्री विष्णु से विदा होकर चले तो उनका अभिमान और भी बढ़ गया।


श्री हरि ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में सौ योजन का एक अत्यन्त सुन्दर नगर रच दिया। उस नगर में शीलनिधि अत्यन्त वैभवशाली राजा रहता था। उस राजा की विश्वमोहिनी नाम की ऐसी रूपवती कन्या थी जिसके रूप को देख कर साक्षात् लक्ष्मी भी मोहित हो जायें। विश्वमोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिये अनगिनत राजा उस नगर में आये हुए थे।


नारद जी, शीलनिधि राजा के यहाँ पहुँचे तो राजा ने उनका पूजन कर  आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गये और उसे देखते ही रह गये। उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो ब्याह करेगा वह अमर हो जायेगा, उसे संसार में कोई भी जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। इन लक्षणों को नारद मुनि ने अपने तक ही सीमित रखा और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ अन्य अच्छे लक्षणों को कह दिया।


अब नारदजी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिये कि यह कन्या मुझे ही वरे। इस मामले में जप-तप से से तो काम चलना नहीं है, जो कुछ होना है, वह सुन्दर रूप से ही होना है ऐसा विचार कर के नारदजी ने श्री हरि को स्मरण किया और भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हो गये। नारदजी ने उन्हें सारा विवरण बता कर कहा, “हे नाथ आप मुझे अपना सुन्दर रूप दे दीजिये। जिस प्रकार से भी मेरा हित हो ,आप शीघ्र वही कीजिये।”
भगवान हरि ने कहा, “हे नारद! हम वही करेंगे जिससे तुम्हारा परम हित होगा। तुम्हारा हित करने के लिये हम तुम्हें हरि (हरि शब्द का एक अर्थ बन्दर भी होता है) का रूप देते हैं।” यह कह कर प्रभु अन्तर्धान हो गये साथ ही उन्होंने नारदजी को बन्दर जैसा मुँह दे दिया। माया के वशीभूत हुए नारद जी को इस बात का ज्ञान नहीं हुआ। वहाँ पर छिपे हुए शिवजी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया।


ऋषिराज नारद तत्काल विश्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुँच गये और साथ ही शिवजी के वे दोनों गण भी ब्राह्मण का वेश बना कर वहाँ पहुँच गये। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर कहने लगे कि भगवान ने इन्हें इतना सुन्दर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही रीझेगी। उनकी बातों से नारद जी अत्यन्त प्रसन्न हुए। स्वयं भगवान विष्णु भी उस स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गये। विश्वमोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजारूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी।


मोह के कारण नारद मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी अतः राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरते देख, वे विकल हो उठे। उसी समय शिव जी के गणों ने व्यंग करते हुए नारद जी से कहा जरा दर्पण में अपना मुँह तो देखये! मुनि ने जल में झाँक कर अपना मुँह देखा और अपनी कुरूपता देख कर अत्यन्त क्रोधित हो उठे। क्रोध में आकर उन्होंने शिवजी के उन दोनों गणों को राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में अपना मुँह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से प्राप्त हो चुका था।


यद्यपि नारद जी को अपना असली रूप वापस मिल गया था किन्तु भगवान विष्णु पर उन्हें अत्यन्त क्रोध आ रहा था क्योंकि विष्णु के कारण ही उनकी बहुत ही हँसी हुई थी। वे तुरन्त विष्णु जी से मिलने के लिये चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी, जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्वमोहिनी भी थीं, से हो गई। उन्हें देखते ही नारद जी ने कहा, “तुम दूसरों की सम्पदा देख ही नहीं सकते। तुम्हारे भीतर तो ईर्ष्या और कपट ही भरा हुआ है। समुद्र-मंथन के समय तुमने शिव को बावला बना कर विष और असुरों को मदिरा पिला दिया और स्वयं लक्ष्मी जी और कौस्तुभ-मणि को ले लिया। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। हमेशा कपट का व्यवहार करते हो। हमारे साथ तुमने जो किया है उसका फल तुम अवश्य पाओगे। तुमने मनुष्य रूप धारण करके विश्वमोहिनी को प्राप्त किया है इसलिये मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि तुम्हें मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा, तुमने हमें स्त्री वियोग दिया इसलिये तुम्हें भी स्त्री वियोग सह कर दुःखी होना पड़ेगा और तुमने हमें बन्दर का रूप दिया इसलिये तुम्हें बन्दरों से ही सहायता लेना पड़ेगा।”


नारद के श्राप को श्री विष्णुजी  ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन पर से अपनी माया को हटा लिया। माया के हट जाने से अपने द्वारा दिये श्राप को याद कर के नारद जी को अत्यन्त दुःख हुआ किन्तु दिया गया श्राप वापस नहीं हो सकता था। इसीलिये श्री विष्णु को श्री राम के रूप में मनुष्य बन कर अवतरित होना पड़ा।


शिवजी के उन दोनों गणों ने जब देखा कि देवर्षि नारद अब मोह-रहित हो चुके हैं तो उन्होंने नारद जी के पास आकर तथा उनके चरणों में गिर कर दीन वचन में कहा, “हे मुनिराज! हम दोनों शिवजी के गण हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया है जिसके कारण हमें आपसे श्राप मिल चुका है। अब हमें अपने शाप से मुक्त करने की कृपा कीजिये।”


नारद जी बोले, “मेरा श्राप मिथ्या नहीं हो सकता इसलिये तुम दोनों रावण और कुम्भकर्ण के रूप में महान ऐश्वर्यशाली, बलवान तथा तेजवान राक्षस बनोगे और अपनी भुजाओं के बल से सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त करोगे। उसी समय भगवान विष्णु राम के रूप में मनुष्य शरीर धारण करेंगे। युद्ध में तुम दोनों उनके हाथों से मारे जाओगे और तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी।”

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