ईश्वरीय तत्व प्रत्येक में विद्यमान हैं.



प्रत्येक मनुष्य में ईश्वरीय तत्त्व विद्यमान है, जो उसे धर्म और अधर्म, भले और बुरे, उचित और अनुचित का विवेक कराता है और निरन्तर सत्य मार्ग पर चलते रहने की प्रेरणा देता है। इस नीर-क्षीर विवेक शक्ति को हम धर्म-बुद्धि कह सकते हैं। ईश्वरीय दैवी विधान का स्वरूप कुछ ऐसा है कि सत्य, नीति और धर्म के मार्ग पर चलते रहने से हमें मानसिक और आत्मिक शान्ति मिलती है। इसके विपरीत असत्य, झूठ, पाप, अनीति, मिथ्याचार के रास्ते का अनुसरण करने से मानसिक क्लेश उत्पन्न होता हैं। नाना प्रकार की चिन्ताएँ व्यर्थ ही सताती रहती हैं। 

धर्मबुद्धि प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही होती है, पर कुछ व्यक्ति अपनी परिस्थितियाँ ऐसी बना लेते हैं कि वे उसके संकेत को नहीं सुनते। पर्याप्त समय तक समस्या पर सोच विचार नहीं करते। धार्मिक दृष्टि से निर्णय नहीं करते। फल यह होता हैं कि धीरे-2 धर्म बुद्धि का क्षय हो जाता है। निर्णयों में धर्म के प्रतिकूल आचरण करना पड़ जाता है। धर्म बुद्धि को दबा कर प्रतिकूल निर्णय और आचरण से मनुष्य को हानि या प्रतिशोध का गुप्त डर बना रहता है। मनुष्य चिन्ता में घुलता जाता है। शूल की तरह धर्म बुद्धि के प्रतिकूल आचरण मनुष्य में भय चिंता, बुरे स्वप्न, हृदय की धड़कन, सिर दर्द और अशाँति पैदा करता है। 

एक बार महाराज हरिश्चंद्र,  कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का निर्णय न कर सकने के कारण चिंता में फँस गये। क्या उचित है, क्या अनुचित है, यह न सोच सकने के कारण वे मानसिक क्लेश से पीड़ित थे। उनका मन अशान्ति से भरा हुआ था। मोह का पर्दा उन पर बुरी तरह छाया हुआ था। महारानी शैव्या ने इन शब्दों द्वारा उनके मानसिक क्लेश का निराकरण किया और धर्म बुद्धि को जाग्रत किया-
त्यज चिन्ता महाराज स्वमत्य मनुपालय।
श्मशानवद वर्जनीयों नरः सत्य बहिष्कृतः॥
नातः परतरं धर्म वदन्ति पुरु षस्य तु।
यादृशं पुरुषव्याघ्र स्वसत्यपरिपालनम्॥
अग्निहोत्रमधीतं वा दानाद्याश्चाखिलाः क्रियाः।
भजते तस्य वैफल्यं यस्य वाक्यमकारणम्॥
सत्य मत्यन्त मुदितं धर्मशास्त्रेषु धीमताम्।
ताराणायनृतं तद्वत् पातनायाकृतात्मनाम्॥ मार्क. 8।17-20 

महारानी शैव्या ने अपने पति महाराज हरिश्चन्द्र से कहा-
“महाराज। चिन्ता छोड़िये। अपने सत्य की रक्षा कीजिए। जो मनुष्य सत्य से विचलित होता है, वह श्मशान की भाँति त्याग देने योग्य है।  हे नरश्रेष्ठ। पुरुष के लिए अपने सत्य की रक्षा से बढ़ कर कोई धर्म नहीं बतलाया गया है।
जिसका वचन निरर्थक हो जाता है (जो धर्म-बुद्धि के अनुसार कर्तव्य निश्चित नहीं करता), उसके अग्निहोत्र, स्वाध्याय तथा दान आदि सम्पूर्ण निष्फल हो जाते हैं।

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