सूर्य.
श्री शुकदेव जी बोले, “हे राजन् परीक्षित! अब मैं तुम्हें द्युलोक का वर्णन सुनाता हूँ। भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है।
“हे राजन्! सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।
सूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं।”
चन्द्रमा.
“हे परीक्षित! जिस प्रकार कुम्हार के चलाने पर उसका चक्र स्वयं अपनी धुरी पर घूमता है उसी प्रकार ज्योतिषस्वरूप भगवान के चलाने पर यह ग्रह, नक्षत्र, तारे, सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी स्वतः अपनी अपनी गति पर चलते रहते हैं। भगवान भुवन भास्कर काल को बारह मासों में बाँट कर एक एक राशि में एक एक मास तक तप करते हैं। दो-दो मास की छः ऋतुएँ मानी गईं हैं। प्रत्येक मास को शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष नामक दो पक्षों में बाँटा गया है। छः छः मास के उत्तरायण और दक्षिणायण नामक दो अयण होते हैं। जितने काल में सूर्य भगवान बारह राशियों को भोग लेते हैं उसे संवत्सर कहते हैं।
“सूर्य से एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमा विराजते हैं। चन्द्रमा ग्रह की चाल अति तीव्र है। वह सब नक्षत्रों से आगे रहता है। जिस मार्ग को सूर्य एक वर्ष में तय करते हैं उसे चन्द्रमा एक मास में तय कर लेता है। जितने मार्ग को सूर्य एक मास में तय करते हैं उसे चन्द्रमा सवा दो दिन में तय कर लेता है। चन्द्रमा साठ घड़ी में एक नक्षत्र को पार करता है। अभिजित सहित अट्ठाईस नक्षत्र हैं। चन्द्रमा कृष्ण पक्ष में क्षीण कला तथा शुक्ल पक्ष में पूर्ण कला से रहता है।
“चन्द्रमा से तीन लाख योजन ऊपर अट्ठाईस नक्षत्र रहते हैं। ये विराट भगवान के का चक्र में स्थित हैं। इनसे दो लाख योजन ऊपर शुक्र ग्रह घूमता है। यह सूर्य की शीघ्र तथा मन्द दोनों ही गतियों से कभी आगे, कभी पीछे और कभी साथ-साथ चलता है। यह वर्षा कराने वाला ग्रह है। बुध की गति भी शुक्र के अनुसार है यह शुक्र से दो लाख योजन ऊपर रहता है। यह कभी मार्गी तो कभी वक्री हो जाता है। यह एक शुभ ग्रह है। जब सूर्य से आगे चलता है तो आँधी बवण्डर उत्पन्न करता है। बुध से दो लाख योजन ऊपर मंगल ग्रह है। यह अमंगलकारी है। यह भी वक्री तथा मार्गी दोनों चाल से चलता है। मार्गी होने पर एक राशि को तीन पक्ष में तय कर लेता है। इससे दो लाख योजन ऊपर वृहस्पति ग्रह रहता है। यह एक राशि को तेरह महीने में तय करता है। वृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनि ग्रह घूमता है। यह एक राशि को ढाई वर्ष में तय करता है। यह अशुभ तथा मन्द गति ग्रह है।
“हे राजन्! इन सब ग्रहों से ऊपर ग्यारह लाख योजन की दूरी पर सप्तर्षि ध्रुव लोक की प्रदक्षिणा करते हैं। ये सब लोकों की शुभ-कामना करते रहते हैं।”
श्री शुकदेव जी बोले, “हे राजन् परीक्षित! अब मैं तुम्हें द्युलोक का वर्णन सुनाता हूँ। भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है।
“हे राजन्! सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।
सूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं।”
चन्द्रमा.
“हे परीक्षित! जिस प्रकार कुम्हार के चलाने पर उसका चक्र स्वयं अपनी धुरी पर घूमता है उसी प्रकार ज्योतिषस्वरूप भगवान के चलाने पर यह ग्रह, नक्षत्र, तारे, सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी स्वतः अपनी अपनी गति पर चलते रहते हैं। भगवान भुवन भास्कर काल को बारह मासों में बाँट कर एक एक राशि में एक एक मास तक तप करते हैं। दो-दो मास की छः ऋतुएँ मानी गईं हैं। प्रत्येक मास को शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष नामक दो पक्षों में बाँटा गया है। छः छः मास के उत्तरायण और दक्षिणायण नामक दो अयण होते हैं। जितने काल में सूर्य भगवान बारह राशियों को भोग लेते हैं उसे संवत्सर कहते हैं।
“सूर्य से एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमा विराजते हैं। चन्द्रमा ग्रह की चाल अति तीव्र है। वह सब नक्षत्रों से आगे रहता है। जिस मार्ग को सूर्य एक वर्ष में तय करते हैं उसे चन्द्रमा एक मास में तय कर लेता है। जितने मार्ग को सूर्य एक मास में तय करते हैं उसे चन्द्रमा सवा दो दिन में तय कर लेता है। चन्द्रमा साठ घड़ी में एक नक्षत्र को पार करता है। अभिजित सहित अट्ठाईस नक्षत्र हैं। चन्द्रमा कृष्ण पक्ष में क्षीण कला तथा शुक्ल पक्ष में पूर्ण कला से रहता है।
“चन्द्रमा से तीन लाख योजन ऊपर अट्ठाईस नक्षत्र रहते हैं। ये विराट भगवान के का चक्र में स्थित हैं। इनसे दो लाख योजन ऊपर शुक्र ग्रह घूमता है। यह सूर्य की शीघ्र तथा मन्द दोनों ही गतियों से कभी आगे, कभी पीछे और कभी साथ-साथ चलता है। यह वर्षा कराने वाला ग्रह है। बुध की गति भी शुक्र के अनुसार है यह शुक्र से दो लाख योजन ऊपर रहता है। यह कभी मार्गी तो कभी वक्री हो जाता है। यह एक शुभ ग्रह है। जब सूर्य से आगे चलता है तो आँधी बवण्डर उत्पन्न करता है। बुध से दो लाख योजन ऊपर मंगल ग्रह है। यह अमंगलकारी है। यह भी वक्री तथा मार्गी दोनों चाल से चलता है। मार्गी होने पर एक राशि को तीन पक्ष में तय कर लेता है। इससे दो लाख योजन ऊपर वृहस्पति ग्रह रहता है। यह एक राशि को तेरह महीने में तय करता है। वृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनि ग्रह घूमता है। यह एक राशि को ढाई वर्ष में तय करता है। यह अशुभ तथा मन्द गति ग्रह है।
“हे राजन्! इन सब ग्रहों से ऊपर ग्यारह लाख योजन की दूरी पर सप्तर्षि ध्रुव लोक की प्रदक्षिणा करते हैं। ये सब लोकों की शुभ-कामना करते रहते हैं।”
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