सिद्धान्त की दृष्टि से, चाहे तर्क की दृष्टि से और चाहे उपयोगिता की दृष्टि से द्वैत की अपेक्षा अद्वैत की भावना रखना ही श्रेष्ठ और कल्याणकारी है। सदा परमात्मा के आगे यह रोना, रोते रहने से कि हम पापी हैं, पाखंडी हैं दीन-हीन, मलीन हैं, आप हमको शरण में लेकर हमारा उद्धार करें, इससे मनुष्य का उपकार तो कम और अपकार ज्यादा होने की संभावना है। उसके भीतर ऐसी दुर्बलता का भाव घुस जायगा कि उससे कभी कोई महान कार्य होना संभव ही न होगा। इसके बजाय अपने को सर्वशक्तिमान ईश्वरीय सत्ता का अंश मानने से, मनुष्य कैसी भी अच्छी या बुरी परिस्थिति में रहे उसका दृष्टि बिन्दु, उच्च रह सकेगा और वह अवसर आने पर अवश्य ऊँचा उठेगा। मनोविज्ञान की दृष्टि से भी हीनता की मनोवृत्ति रखना कभी श्रेयस्कर नहीं हो सकता, चाहे हम उसे कैसे भी धार्मिक शब्द में लपेट कर पेश करें। इसलिये हमको संसार में दिखलाई पड़ने वाली विभिन्नता से भ्रमित न होकर समस्त सृष्टि और परमात्मा के एकत्व में ही विश्वास रखना चाहिये। उपनिषद् में उच्च स्वर से इस तथ्य की घोषणा की गई है;...
यथोदकं वृष्टं दुर्गे पर्वतेषु निधावति।
एवं धर्मान्पृथक् पश्यं स्ताने वानुधावति॥
यथोदकं शुद्धेशुद्ध मासिक्तं तादृगेवभवति।
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम॥
अर्थात्—पर्वत शिखर पर बरसने वाला जल अनेक धाराओं में विभाजित होकर पर्वत की चारों दिशाओं में बहता है। इसी प्रकार, अज्ञानी पुरुष एक से अनेक रूप देखता है तो शिखर पर गिरने वाले जल के समान भ्राँत हो जाता है। पर पानी में डाला हुआ पानी उसके साथ मिलकर एक हो जाता है। यही बात ज्ञानी की आत्मा के सम्बन्ध में भी है, जो अनेक रूपों में एक रूप का दर्शन करता है।
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