मर्त्यलोक का कल्पवृक्ष..




मर्त्यलोक का कल्पवृक्ष..

सुर लोक में एक कल्पवृक्ष है। इस कल्पवृक्ष में ऐसा गुण है कि उसके नीचे बैठकर जैसी कुछ इच्छा की जाय वह पूरी हो जाती है। जैसे कोई आदमी उस वृक्ष के नीचे इच्छा करे कि मुझे एक सहस्र अशर्फी मिल जायं तो उसे अशर्फियाँ मिल जायेंगी। कोई दूसरी वस्तु चाहे तो वह भी उसे प्राप्त होगी। ऐसे कल्पवृक्ष की मानव जाति बहुत दिनों से इच्छा करती चली आ रही है। जिस दिन से इस बात का पता चला कि इस विश्व में कल्पवृक्ष का अस्तित्व है। उसी दिन से मर्त्यलोक के निवासी उसका पता लगाने और प्राप्त करने की कोशिश करने लगे। कारण यह है कि हर एक इच्छा को पूरा करने की, हर एक मनचाही वस्तु को देने की शक्ति जिसमें हैं, ऐसे बहुमूल्य पदार्थ की आकाँक्षा भला कौन न करेगा? सुख प्राप्त करने के लिए समस्त विश्व लालायित है। जिस कल्पवृक्ष के द्वारा सुख की इच्छा आसानी से पूरी हो सकती है उसे चाहना, उसकी उत्कट अभिलाषा करना स्वाभाविक है। कल्पवृक्ष की खोज करते हुए मनुष्य जाति को लाखों करोड़ों वर्ष बीत गये परन्तु अभी तक वह उस रूप में कहीं भी नहीं पाया जा सकता जैसा कि सुरलोक वाले कल्पवृक्ष के बारे में पुराणों में बताया गया है।

आध्यात्म विद्या के वैज्ञानिकों ने उस कल्पवृक्ष को ढूँढ़ निकाला है और प्रमाणित कर दिया है कि वह सर्वसुलभ है। उसे जो चाहे सो आसानी से पा सकता है। सुरलोक की वस्तुएं जब मर्त्यलोक में आती हैं तो उनका रूप कुछ ऐसा हो जाता है कि हमारी आँखों से दिखाई नहीं पड़ती या यों कहिये कि स्वर्ग लोक की चीजों को हमारे चर्म चक्षु ठीक उसी रूप से नहीं देख पाते। देवता लोग अपने लोक में शरीर सहित रहते होंगे किन्तु मर्त्यलोक में कोई देवता शरीर सहित विचरण करता हुआ नहीं देखा गया। देवता लोग मर्त्यलोक में आते जाते हैं परन्तु वे आँखों से दिखाई नहीं पड़ते। इसी प्रकार कल्पवृक्ष हमारी दुनिया में है तो सही परन्तु उसे आँखों से नहीं देखा जा सकता। परन्तु वह अदृश्य होते हुए भी अपने सम्पूर्ण गुणों से युक्त है। जो कार्य उस के द्वारा सुरलोक में होता है वही सब कार्य इस लोक में भी हो सकता है। अदृश्य होने के कारण उसकी शक्ल देखने से हम जरूर वंचित रहते हैं परन्तु उसके द्वारा प्राप्त होने वाले लाभों को उसी प्रकार पा सकते हैं जैसे कि देवता लोग पाते हैं।

मर्त्यलोक का कल्पवृक्ष है- ‘तप’ तप का अर्थ है कष्ट सहन करना, परिश्रम एवं प्रयत्न करना। प्राचीन काल में अनेक व्यक्तियों ने तप करके वरदान प्राप्त किये थे। उन वरदानों के बल से वे तपस्वी लोग बड़ी-बड़ी चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त कर चुके थे। पौराणिक कथाओं से प्रतीत होता है कि देवताओं को प्रसन्न करने का एकमात्र उपाय तप था। तपस्वी लोगों से ही वे सन्तुष्ट होते थे। क्योंकि ऐश्वर्य को भोगने का अधिकारी केवल तपस्वी, परिश्रमी ही है। खीर और मोहनभोग वही पचा सकता है जिसकी जठराग्नि प्रदीप्त हो, मन्दाग्नि वाले को गरिष्ठ भोजन देना तो मानो उसके मारने का प्रबंध करना है। कहते हैं कि सिंहनी का दूध स्वर्ण के पात्र में दुहा जाता है, दूसरे पात्र में इतनी शक्ति नहीं होती कि उसमें वह दूध रह सके। इसी प्रकार जो तपस्वी नहीं है उसमें ऐश्वर्य को धारण करने की क्षमता नहीं होती। ऐसे अयोग्य आदमियों को यदि कुछ मिल जाय तो वे उसे पाकर करीब-करीब पागल हो जाते हैं। बच्चों के हाथ में बन्दूक और बारूद पड़ जाय तो वे खेल-खेल में ही अपना या दूसरों का भयंकर अनिष्ट कर लें। अतएव परमात्मा ने यह सुनिश्चित नियम बना दिया है कि सम्पदाएं उन्हीं के पास रहें जो उन्हें रखने के अधिकारी हैं। अधिकारी होने की सबसे प्रधान कसौटी यह है कि उसमें पुरुषार्थ है या नहीं? इच्छित वस्तु को प्राप्त करने योग्य प्रयत्नमयी उत्कट अभिलाषा रखता है नहीं? देवता लोग जब इस बात की परख कर लेते हैं तो इसे वस्तु खुशी खुशी दे देते हैं जिसका वह अधिकारी है।

भागीरथ जी तप करके गंगा को मर्त्यलोक में लाये, पार्वतीजी ने तप करके शिव को वर रूप में पाया, ध्रुव ने तप करके अचल राज्य पाया, एक नहीं अनेकानेक प्रमाण इस बात के मौजूद हैं कि तप से ही सम्पदा मिलती है। मनोवाँछाएं पूर्ण करने का एक मात्र साधन तप ही है- परिश्रम एवं प्रयत्न ही है। क्या देव क्या असुर जिसने भी ऐश्वर्य पाया है, वरदान उपलब्ध किये हैं, तप के द्वारा पाये हैं? अनन्त सम्पदाओं के ढेर अपने चारों ओर बिखरा पड़ा हो तो भी कोई उसे तप बिना नहीं पा सकता। समुद्र के अन्दर अतीत काल से अनेक रत्न छिपे पड़े थे। उनके आस्तित्व किसी पर प्रकट न था किन्तु जब देवता और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उसमें से चौदह अमूल्य रत्न निकले। यदि मंथन न किया जाता तो चौदह क्या चौथाई रत्न भी किसी को न मिलते। प्रयत्न, परिश्रम और कष्ट सहन करने से ही किसी ने कुछ प्राप्त किया है। अकस्मात् छप्पर फाड़कर मिल जाने के कुछ अपवाद कहीं-कहीं देखे और सुने जाते हैं परन्तु यह इतने कम होते हैं कि उन्हें सिद्धाँत रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। पूर्व जन्मों का संचित पुण्य एक दम कहीं प्रकट होकर कुछ सम्पदा अकस्मात् उपस्थित कर दे ऐसा होना असंभव नहीं है, कभी-कभी ऐसा हो भी जाता है कि किन्हीं व्यक्तियों को बिना परिश्रम के भी कुछ चीज मिल जाती है परन्तु इसे भी मुफ्त का माल नहीं कहा जा सकता। पूर्व संचित पुण्य भी परिश्रम और कष्ट सहन द्वारा ही प्राप्त हुए थे। इन भाग्य से अकस्मात् प्राप्त होने वाले लाभों में भी प्रत्यक्ष रूप से परिश्रम ही मुख्य होता है।

परमात्मा की इस सुव्यवस्थित रचना में सब कार्य नियमित रूप से व्यवस्थापूर्वक हो रहे हैं इसमें ‘पो पो माई’ का राज नहीं है जहाँ से हर कोई लूट का मूसल उठा ले जावे। यहाँ अनियमित रूप से किसी को एक कण भी नहीं मिलता। कबीर की एक अनुभवपूर्ण वाणी है कि-

राम झरोखे बैठकर सबको मुजरा लेंय। जैसी जाकी चाकरी तैसो ताको देंय॥

झरोखे में बैठे हुए राम सब की जाँच पड़ताल करते हैं, जिनका जितना परिश्रम है उसको उतना ही देते हैं। संसार के बाजार में ‘इस हाथ दे उस हाथ ले’ के नीति चल रही है। जो जितना देता है वह उतना पाता है। उद्योगी पुरुष सिंहों को लक्ष्मी प्राप्त होती है और निखट्टू पुरुष दैव दैव-भाग्य-भाग्य बकते झकते हुए हाथ मलते रहते हैं।

तप करने से, एक निष्ठा के साथ विवेकपूर्ण प्रयत्न करने से, बड़े-बड़े दुर्लभ पदार्थ प्राप्त होते हैं। फावड़े के बल से वीर फरिहाद ने पहाड़ तोड़कर एक लम्बी नहर खोद निकाली। कालिदास ने भरी जवानी में ओलम बारहखड़ी सीखना शुरू किया और भारत के चमकते हुए साहित्यिक सितारे कुछ ही दिनों में बन गये। एक नहीं असंख्य उदाहरणों को हम अपने आस-पास फैला हुआ देख सकते हैं। तपाने से सोना चमकता है, माँजने से धातुएं निखरती हैं, घिसने से हथियार तेज होता है, रगड़ने से आग पैदा होती है। परिश्रम और प्रयत्न से मनुष्य के भीतर छिपी हुई अनेकानेक शक्तियाँ और योग्यताएं प्रस्फुटित होती हैं। फिर उनके द्वारा वह सब सम्पदाएं प्राप्त हो जाती हैं जो कि कल्पवृक्ष द्वारा प्राप्त होनी चाहिए।

यदि अपने घर कपड़े शरीर आदि को सुन्दर देखना चाहते हैं तो उनकी सफाई में जुट जाइए, धूलि में मिलकर मकान को लीप पोत डालिए, कपड़ों की धुलाई कर डालिये, टूट-फूट को ठीक कीजिए, सजावट में परिश्रम कीजिये, बस आपकी चीजें स्वच्छ, सुन्दर और आकर्षक बन जावेंगी। शारीरिक स्वास्थ्य को अच्छा बनाना चाहते हैं तो व्यायाम-मालिश, आत्म संयम आदि के लिए मेहनत कीजिए थोड़े ही दिनों में शरीर बलवान होने लगेगा। ज्ञान, पैसा, कीर्ति नेतृत्व, मनोबल, स्वर्ग, मुक्ति, सुख शाँति जो कुछ भी आप चाहते हैं उसके लिए तप कीजिये, कठिन प्रयत्न, एकनिष्ठा पूर्ण प्रयत्न, अटूट प्रयत्न। सफलता का मूलमंत्र है। आज के कष्टों को भविष्य की स्वर्णिम आशा पर निछावर कर देना तप है। यह तप प्रत्यक्ष फलदायक है। सिद्धियाँ तपस्या की चेरी हैं। पुरुषार्थी के गले में विजय माला पड़ने का ईश्वरीय सुनिश्चित विधान है उस को कोई नहीं पलट सकता, कोई नहीं बदल सकता। प्रयत्न करने वाले को आज नहीं तो कल मनोवाँछित वस्तु मिलकर रहेगी। जो अपनी मदद आप करता है परमात्मा उसकी मदद जरूर करता है।

मुफ्त में मनचाहा माल लूटने की सुविधा देने वाला यदि कोई कल्पवृक्ष होता भी हो तो वह सर्व साधारण के लिये कुछ लाभदायक न होगा वरन् हानिकारक सिद्ध होगा। क्योंकि लूट के माल में मनुष्य की बुद्धि अव्यवस्थित हो जाती है। नाना प्रकार के उचित, अनुचित, अनियंत्रित संकल्पों का ऐसा जमघट मन में जमा होने लगता है जिसका परिणाम सर्वनाश जैसा निकलता है। कहते हैं कि एक बार कोई आदमी कल्पवृक्ष के पास पहुँच गया। उसने इच्छा की कि शीतल जल पीने को होता तो बड़ा अच्छा था। इच्छा करने की देर थी कि ठण्डा जल सामने हाजिर हो गया। अब उसने स्वादिष्ट भोजन चाहा, वह हाजिर। इसी प्रकार उसने क्रमशः पलंग, बिस्तर, दास, दासी, महल, खजाने, राजपाट, माँगे वह सब भी मिले। अब जब कि सम्पत्तियों की ओर से मन भर गया तो उसका चित्त दूसरी ओर को चला, उसे भय लगा कि कहीं कोई हिंसक जन्तु न आ जाय, सोचने की देर थी दहाड़ते हुए सिंह देवता सामने आ खड़े हुए। अब वह भय के मारे काँपने लगा और मन ही मन ऐसा डरने लगा मानों यह सिंह अभी मुझे खाये जा रहा है। यह विचार आया ही था कि सिंह ने उसे धर दबोचा और अपने पेट में पहुँचा दिया। बिना उचित परिश्रम और योग्यता के कुछ मिलने का विधान न्यायकारी परमात्मा ने अपनी सुव्यवस्थित सृष्टि में नहीं रखा है। यदि किसी को किसी प्रकार ऐसा कुछ मिल भी जाय तो वह उसके पास ठहरता नहीं वरन् असहाय पीड़ाएं देता हुआ वह सब वैसे ही चला जाता है जैसा कि आया था।

भूलोक का कल्पवृक्ष तप है। उत्साह, स्फूर्ति लगन, धुन, परिश्रम प्रियता, साहस, धैर्य, दृढ़ता और कठिनाई को देखकर विचलित न होना यह तप के लक्षण हैं। जिसने तप द्वारा इन गुणों को पैदा किया, अपने मनोवाँछित तत्व को पाने के लिये खून पसीना बहाना सीखा, वह एक प्रकार का सिद्ध है। कल्पवृक्ष की सिद्धि उसके आगे हाथ बाँधे खड़ी रहती है। ऐसे आदमी जो चाहते हैं कर गुजरते हैं, जो चाहते हैं प्राप्त कर लेते है। नेतृत्व, लोक सेवा, धन उपार्जन, प्रतिष्ठा, ज्ञान, भोग आदि सम्पदायें पाने की जिनके मन में लालसाएं उठती हों उन्हें सबसे पहले अपने को तपस्वी बनाना चाहिए। आलस्य, प्रमाद, समय का अपव्यय, बकवाद, ठलुआपंथी, निराशा, निरुत्साह, अस्थिरता आदि दुर्गुणों को हटाकर तपश्चर्या के सद्गुणों को अपने अन्दर धारण करना चाहिए। यह प्रगति जिस क्रम के साथ होती है उसी क्रम से सम्पदाओं और वैभवों का समूह सामने उपस्थित होता है।

याद रखिये तप ही कल्पवृक्ष है। जिस किसी ने इस दुनिया में कुछ पाया है परिश्रम से पाया है। आप भी कुछ पाना चाहते हैं तो अदम्य उत्साह के साथ घोर परिश्रम करना अपना स्वभाव बनाइये। इस साधना के फलस्वरूप आपको कल्पवृक्ष जैसी प्रतिभा मिलेगी और उसके द्वारा आपकी सब प्रकार की इच्छा आकाँक्षाएं आसानी से पूरी हो जाया करेंगी।


(अखंड ज्योति-1945)

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