ज्ञान के नेत्र.



ज्ञान के नेत्र
(1) गोस्वामी तुलसीदास अपनी पत्नी को बड़ा प्रेम करते थे। सारे दिन उससे वार्तालाप और साहचर्य करने पर भी उनकी उस नारी के प्रति बड़ी आसक्ति थी। नारी-सुख के अतिरिक्त उन्हें अन्य किसी सुख की इच्छा न थी। वे शरीर को सुख भोगने का ही प्रधान साधन मानते थे। वासना तथा इंद्रियों के माया जाल ने उन्हें बाँध रखा था। जितना ही वे इंद्रिय सुख के इस मार्ग पर बढ़ते गए, उतनी ही उन्हें इसकी आवश्यकता अधिकाधिक प्रतीत होती गई। आसक्ति उनकी प्रधान भावना थी।

एक दिन उसी नारी ने उनके ज्ञान के नेत्र खोल दिये। उसने कहा, “मेरे इस हाड़ माँस के नश्वर शरीर के प्रति जो मोह आपको है, यदि वही कहीं ईश्वर के प्रति होता, तो आपकी मुक्ति हो जाती।”

तुलसीदास देर तक उपर्युक्त कथन को सोचते रहे। चिंतन करते रहे। चिंतन करते-करते वे अंत में इस फल पर पहुँचे कि वास्तव में नारी का कथन सत्य है। आसक्ति से बढ़कर संसार में कोई दूसरा दुःख नहीं है। इंद्रियों के विषयों में फँसे रहने से मनुष्य दुःखी रहता है।

उनके ज्ञान के नेत्र खुल गये। अब दूसरा ही दृश्य था। उन्होंने देखा, संसार भोगों की ओर तीव्रता से दौड़ रहा है। तृष्णा की पीड़ा उनके दुःखों का बड़ा भारी कारण है। वासना मनुष्य को पागल बना रही है। मनुष्य मन से ही संसार से बंधता है।

वे संसार से विरक्त हो गये। नारी के प्रति उनका प्रेम अपने आराध्य राम के प्रति मुड़ गया। अब वे वासना-तृप्ति के पीछे न भाग राम की लीलाएँ कविता में गाने लगे। उन्होंने भक्ति रस की अजस्र धारा संसार में प्रवाहित की और शाँति का संदेश दिया।

(2) भक्त सूरदास का भी कुछ ऐसा ही अनुभव रहा। वे भी रमणी के अनुराग में फँसे रहे। नारी सुँदर थी, अतीव सुँदर और आकर्षक। उससे तिरस्कृत और अपमानित होकर उन्हें प्रतीत हुआ कि संसार के भोगों में वास्तव में स्थायी सुख नहीं, सुखाभास है। मनुष्य इन्हीं के प्रति आसक्त होकर इधर-उधर भागता है। इंद्रियाँ उसे मायाजाल में डालती हैं। सूर को अपने प्रति किये गये अपमान के प्रति बड़ी आत्मग्लानि हुई। उन्होंने उस नारी से दो गर्म गर्म तकुए लाने को कहा। जब वे लाल-लाल तकुए आ गये तो शरीर के नेत्रों में ठूँस दिये। सूर के पार्थिव नेत्र बंद हो गये, पर इस तिरस्कार से ज्ञान के नेत्र खुल गये। उनका अनुभव था “तैः (इंद्रियैः) एव नियतैः सुखी” इंद्रियों को अपने वश में रखने से ही मानव सुखी हो सकता है।

भक्त मीराबाई के ज्ञान के नेत्र इतनी जल्दी खुले थे कि उन्हें अपने विवाह तथा दाम्पत्य जीवन के प्रति कुछ भी मोह न हुआ। उनके सम्मुख नाना प्रकार के प्रलोभन और भयंकर यातनायें आईं, लेकिन वे सभी को ज्ञान के नेत्रों से निरखती रहीं। साँसारिकता के असत्य व्यवहार को त्याग कर उन्होंने वह भक्ति का मार्ग अपनाया जो मुक्ति देने वाला था। उन्हें ज्ञान के नेत्रों से यह दिखायी दिया कि कुविचार और कुकर्म ही दुःख और अतृप्ति का मूल हैं। मानसिक पापों का परित्याग करो। मन की जमी हुई वासना ही दुष्कर्म कराती है। पाप का प्रधान कारण आत्मज्ञान का अभाव ही है।

हम प्रायः मोह और आलस्य की निद्रा में पड़े रहते हैं। आलस्य में पड़े हुए हमें सुख मिलता तो दिखायी देता है, परंतु उसका फल हमेशा दुःख होता है। हमें अपनी कमजोरियों का ज्ञान नहीं होता। जो आदमी गलती करता है, उस अल्पज्ञ को यह ज्ञान नहीं होता कि वह गलत राह पर है। अंधकार ही अंधकार में वह न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है। अंत में किसी कठोर भाव-शिला पर टकराकर उसे अपनी गलती या दुर्बलता का ज्ञान होता है। उसके ज्ञान चक्षु यकायक खुल जाते हैं। यहीं से वास्तविक आत्मिक उन्नति का सुप्रभात प्रारम्भ होता है।

ज्ञान के नेत्र हमें अपनी दुर्बलता से परिचित कराने आते हैं। जब तक इंद्रियों में सुख दिखता है, तब तक आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ मानना चाहिए।

जो अपनी दुर्बलता से परिचित हो जाता है उसके लिए सच्चा पश्चाताप कर उसे दूर करने की इच्छा और सतत उद्योग प्रारम्भ करता है, उसकी उन्नति का आधा काम तो बन गया, मानना चाहिए।

दुर्बलता ही पाप का मूल है। इसका कारण अज्ञान है। जब ज्ञान के नेत्र खुलते हैं, तो मनुष्य को अपनी दुर्बलता के दर्शन हो जाते हैं। यजुर्वेद का वचन है-

“अपतस्य हतंतमो व्यावृत्तः स पाप्मना (यजु. 32)”

जिसका अज्ञान दूर होगा वही पाप से छूटेगा। पाप का प्रधान कारण आत्म-ज्ञान का अभाव है।”

इदमहमनतात् सत्यमुपैमि (यजु 1-5)

“असत्य को त्याग कर सत्य ही ग्रहण करना चाहिए। जो सत्य को त्याग कर असत्य अपनाते हैं, उन्हें अपयश ही मिलता है। “

ज्ञान के नेत्रों के प्रकाश में हम उन विचारों को त्याग देते हैं जो आत्मा को कष्ट देने वाले हैं, धर्म के शत्रु हैं, या अशाँति उत्पन्न करने वाले हैं। शक्तियों का मूल स्रोत आत्मा है। दुर्बलता का ज्ञान सच्ची, आत्मग्लानि, फिर उस दुर्बलता को हटाने की सच्ची साधना-यही हमारी उन्नति के सूत्र हैं। जब मन गलत राह से हटकर सन्मार्ग पर आरुढ़ हो जाता है, तभी आध्यात्मिक सिद्धियाँ मिलनी प्रारम्भ हो जाती हैं। वेदों में ऐसे अनेक अमूल्य ज्ञान-कण बिखरे पड़े हैं, जिनमें गलत राह से हटाकर मन को कल्याणकारी मार्ग पर चलने के लिए प्रार्थनाएं की गयी हैं-

न भद्रं नो अपिवातय मनः। (ऋग. 10-28-1)

“हे परमात्मन्! मेरे मन को कल्याण की ओर ले चलो।”

असंतापं में हृदयम् (अथर्व 163/6)

“हे परमात्मन्! मेरा हृदय संताप से हीन होता चले। अर्थात् अपनी दुर्बलताओं के दर्शन कर मेरे मन में जो आत्मग्लानि उत्पन्न हो, वह सत्कर्म और शुभ विचार द्वारा दूर होती चले। “

ति नो राये दुरोवृधि (ऋ. 9/45/3)

“हे प्रभो! ऐश्वर्य के लिए हमारे आँतरिक मनः द्वार खोल दो” (अर्थात् हमें निकृष्ट विचारों से मुक्त कर दो और दैवी एकता, विपुलता, आत्म-कल्याण के विचारों से परिपूर्ण कर दो।)

स्वामी दयानंद जी ने “सत्यार्थ प्रकाश” में एक स्थान पर लिखा है, “सज्जनों और उन्नति करने वालों की यह रीति है कि वे गुणों को ग्रहण कर दोषों का परित्याग सदा करते रहते हैं।”

कद व ऋतं कद नृतं कव प्रज्जा (ऋग. 1/105।5)

“क्या उचित है, या अनुचित, यह निरंतर विचारते रहो। विवेक और आत्मा के आदेश का आश्रय ग्रहण करो।”


(डॉक्टर रामचरण महेन्द्र एम.ए., पी.एच.डी.)
अखंड ज्योति- August 1957

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