नूरुद्दीन अली और बदरुद्दीन हसन की
कहानी-२-अलिफ लैला
कुछ देर में बदरुद्दीन को हाथ पाँव फैलने से चेत हुआ तो उसने अपने को विवाह के लिए सजे हुए कमरे में पाया। उसे याद आया कि यह उसकी सुहागरात वाला कक्ष है। पासवाले कमरे को देख कर भी उसने पहचाना कि यही उस कुबड़े गुलाम के पास मैं बैठा था। उसका ताज्जुब और बढ़ा। दो क्षणों के बाद उसने देखा कि उसके विवाह के वस्त्र और थैली उसी तरह वहाँ रखी है जैसी सुहागरात को रखी थी। इससे आश्चर्य के मारे उसका सिर चकरा गया। वह सोचने लगा कि समझ में नहीं आता कि मैं जाग रहा हूँ या स्वप्न देख रहा हूँ।
इतमें ही में उसकी पत्नी ने मसहरी से सिर उठा कर कहा, 'प्रियतम, तुम द्वार पर क्यों खड़े हो। यहाँ पलंग पर आ कर आराम करो। तुम दिन भर कहाँ रहे? आज सुबह मेरी आँख खुली तो मैंने तुम्हें पलंग पर नहीं देखा। बहुत देर तक प्रतीक्षा करने पर भी तुम न आए तो मैं दिन भर बहुत दुखी रही। खैर अब तुम मेरे पास आओ।'
बदरुद्दीन को यह सुन कर बड़ा हर्ष हुआ। वह आश्चर्य और उसके बाद पैदा हुए उल्लास के कारण यह भी भूल गया कि मंत्री ने उसे कैद किया था और मृत्यु दंड दिया था। उसका चेहरा चमकने लगा और निराशा की काली छाया उसके चेहरे से हट गई। उसने देखा कि उसकी पत्नी अब भी वैसी सुंदर और मनोहारणी है जैसी विवाह की रात को थी।
कमरे के अंदर जा कर उसने प्रत्येक वस्तु को फिर अच्छी तरह देखा और उसे मालूम हुआ कि सारी चीजें बिल्कुल वैसी ही हैं जैसी दस बरस पहले विवाह की रात को थीं। चौकी पर उसके वस्त्र और द्रव्य की थैली भी जैसी की तैसी थी। वह उच्च स्वर में कहने लगा, 'हे भगवान, यह क्या लीला है। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि मैं कहाँ हूँ।' उसकी पत्नी बोली, 'यह क्या कह रहे हो? क्या खड़े-खड़े अजीब बातें कर रहे हो।' बदरुद्दीन ने कहा, 'सच बताओ तुम कब से मुझ से अलग हो?' उसने कहा, 'आज सुबह ही तो तुम उठ कर गए थे।'
बदरुद्दीन बोला, 'तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आती। मैंने तुम्हारे साथ सुहागरात बिताई जरूर थी किंतु इस बात को हुए दस बरस हो गए। इस सारे समय मैं दमिश्क में रहा। मेरी अक्ल चक्कर खा रही है कि अपने विवाह का समय कौन-सा मानूँ, वर्तमान समय या दस बरस पहले का। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा, तुम्हीं बताओ कि मैं दस बरस तुम से अलग रहने को सवप्न समझूँ या इस समय तुमसे होनेवाली बातचीत को।
उसकी पत्नी ने कहा, 'तुम कैसी पागलों की सी बातें करते हों। स्पष्ट बताओ कि यह दमिश्क बीच में कहाँ से आ गया।' बदरुद्दीन ने हँस कर कहा, 'मालूम नहीं मैं पागल था या अब हूँ। दस बरस पहले मैं यही शयनकालीन वस्त्र पहने दमिश्क की मस्जिद के द्वार पर पड़ा था। वहाँ के निवासी मुझे देख कर हँस रहे थे और मेरा मजाक उड़ा रहे थे। मैं वहाँ से उठ कर भागा और एक हलवाई की दुकान में जा छुपा। उसने मुझे गोद लिया और अपना धंधा सिखाया। जब वह मरा तो सारी संपत्ति मुझे दे गया। मैं दस बरस तक उसी दुकान पर हलवाई का व्यवसाय करता रहा।
'एक दिन कहीं का मंत्री दमिश्क में आया। उसका लड़का बड़ा भोला भाला और सुंदर था। उसे देख कर मेरे हृदय में बहुत प्यार उमड़ा। एक दिन वह अपने नौकर के साथ मेरी दुकान पर आया और वहाँ बैठ कर मलाई खाई। तब वह वापस अपने डेरे में गया तो उसके पिता ने मेरी दुकान से मलाई मँगवाई। इसके बाद मुझे पकड़वा बुलाया और यह कह कर कि तूने बगैर काली मिर्च की मलाई क्यों बनाई, मेरी दुकान लुटवा दी और मुझे संदूक में बंद ऊँट पर रखवा कर अपने देश को लाया। फिर कल रात उसने फाँसी की टिकटी बनवाई और आज के लिए कहा कि तुझे नगर में घुमाने के बाद फाँसी दी जाएगी। मैं यह सुन कर भय से अचेत हो गया। जब होश आया तो देखा तुम्हारे पास मौजूद हूँ।'
उसकी पत्नी यह सुन कर हँसने लगी और मजाक में बोली, 'यह तो नहीं हो सकता कि इतनी-सी बात पर किसी को फाँसी दे दी जाए, तुमने कोई बड़ा अपराध किया होगा।' बदरुद्दीन ने कहा, 'मैं सच कहता हूँ इसके अलावा मेरा कोई अपराध नहीं था कि मलाई में काली मिर्च नहीं पड़ी थी।'
अब यह अजीब-सी बहस चल पड़ी। उसकी पत्नी हँस-हँस कर कहती जाती थी कि तुमने जरूर कोई बड़ा अपराध किया होगा। और बेचारा बदरुद्दीन बार-बार सफाई दिए जाता था कि मेरा अपराध बगैर काली मिर्च डाले मलाई भेजने के अलावा कुछ नहीं था और इतनी ही बात पर मंत्री ने मुझे फाँसी चढ़ाने के लिए टिकटी बनवा ली जिसके ऊपर मुझे लटकाने के लिए लोहे की मजबूत सलाख लगाई गई थी।
बादशाह शहरयार यहाँ तक कहानी सुन कर हँसने लगा और बहुत देर तक हँसता रहा। उसने कहा, 'मंत्री शम्सुद्दीन ने अपने दामाद के साथ अच्छा मजाक किया और आश्चर्य यह है कि उसकी भावज ने भी बेटे के इस तरह तंग किए जाने पर कुछ न कहा। उसने कहा कि रात भर बदरुद्दीन इसी चक्कर में रहा कि मैं अपनी पत्नी के पास वास्तव में हूँ या सपना देख रहा हूँ। वह बार-बार पलँग से उठता और घूम-घूम कर भवन को देखता। उसे हर चीज वैसी ही दिखाई देती जैसी विवाह की रात को थी। उधर पिछले दस बरसों की घटनाओं की अनदेखी भी वह नहीं कर पाता था। सारी रात उसने उसी उधेड़बुन में काटी।
सुबह हुई तो शम्सुद्दीन ने बेटी के शयन कक्ष के द्वार पर आ कर ताली बजाई। उसकी बेटी ने द्वार खोला तो शम्सुद्दीन ने अंदर जा कर स्वयं अपनी ओर से बदरुद्दीन को प्रणाम किया। बदरुद्दीन ने कहा, 'आपने तो मुझे फाँसी देने का प्रबंध किया था। उसके विचार से मैं अब तक काँप रहा हूँ और मेरा अपराध क्या था, सिर्फ यह कि मैंने मलाई में काली मिर्च नहीं डाली थी।'
मंत्री ने मुस्करा कर कहा, 'तुम मेरे भतीजे हो और मैंने अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ किया था। बादशाह के हुक्म से उसका विवाह कुबड़े गुलाम से होनेवाला था।' यह कह कर उसने नूरुद्दीन का लिखा हुआ वृत्तांत उसे दिखाया और कहा, 'तुम्हारी खोज में ही मैं बसरा, दमिश्क और न जाने कौन-कौन-सी जगह-जगह मारा-मारा फिरता रहा। मैंने तुम पर प्रकट में जो अन्याय किया है उसे भूल जाओ। मैं सिर्फ यह चाहता था कि बगैर झंझट के दमिश्क से तुम्हें यहाँ लाऊँ, साथ ही यह ख्याल था कि अगर तुम्हारी भेंट अचानक तुम्हारी माँ और पत्नी से हो जाय तो कहीं तुम आनंदातिरेक मे मर न जाओ।' यह कह कर उसने दामाद को सीने से लगा लिया।
बदरुद्दीन यह सुन कर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने रात के कपड़े उतार कर दिन के कपड़े पहने। फिर उसने अपनी माँ से भेंट की। इस अवसर पर सारे परिवार में आनंद की कैसी लहर आईं उसका वर्णन नहीं हो सकता। उसकी माँ उसे सीने से लगा कर बहुत देर तक रोती रही और बताती रही कि तेरे लापता होने पर यह दस बरस कितने कष्ट से काटे। इतने ही में अजब, जिसे उसके नाना ने असलियत बता दी थी, अपने बाप से आ कर लिपट गया। बदरुद्दीन ने कहा, 'अरे तूने ही तो मेरे यहाँ मलाई खाई थी।' यह कह कर उसने अपने बेटे को छाती से लगा लिया। शम्सुद्दीन ने दामाद को बादशाह के सामने पेश किया और सारी कहानी सुनाई। बादशाह ने इस वृत्तांत को लिखने का आदेश दिया और बदरुद्दीन को भी सम्मानित किया।
हारूँ रशीद से उसके मंत्री जफर ने यह कहानी सुना कर कहा कि आप भी उदारता दिखाएँ और मेरे गुलाम रैहान का अपराध क्षमा कर दें। हारूँ रशीद ने ऐसा ही किया और उस आदमी को, जिसने भ्रमवश अपनी पत्नी को मार डाला था, अपनी एक दासी दे दी कि विवाह कर ले और सुखपूर्वक रहे।
यह कहानी पूरी करके मालिक शहरजाद ने कहा, 'स्वामी, अब सवेरा हो गया, अगर आज मुझे आज प्राणदान मिले तो मैं और अच्छी कहानी सुनाऊँ।' बादशाह चुपचाप दरबार को चला गया किंतु कहानी के लालच में उसने शहरजाद के वध का आदेश मुल्तवी रखा।
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