“आदर्श राजा, प्रजावत्सल
होता हैं”
एक बार अनेक ऋषि-मुनि बैठकर आत्मा और ब्रह्म के विषय में विचार-विमर्श करने लगे। बहुत विचार करने पर भी जब वे सहमत न हो पाये तब उन्होंने सोचा-क्यों न इसके समाधान के लिए अरुण ऋषि के पुत्र, ऋषि आरुणि (उद्दालक) की शरण में जाया जाय?
जब ऋषिगण उद्दालक के आश्रम के निकट पहुँचे तो उन्होंने इस समूह को आता देख लिया था। ऋषि होने के कारण वे उनके आने के उद्देश्य के विषय में भी कुछ-कुछ समझ गये थे। उद्दालक मन में सोचने लगे कि कदाचित् वे उनका समाधान भली प्रकार न कर पाएँ। क्यों न इन्हें महाराज अश्वपति के पास ले जाया जाय!
ऋषि-समुदाय उद्दालक के आश्रम में पहुँचा। यथावत् उनका स्वागत-सम्मान किया गया। यह सब हो जाने पर जब ऋषि उद्दालक ने उनके आगमन का कारण जानना चाहा तो उन्होंने अपनी शंका के विषय में विस्तार से बता दिया। तब उद्दालक बोले, “ऋषिगण ! आप लोगों के यहाँ आने का अभिप्राय तो मैंने कुछ-कुछ अनुमान लगा लिया था। मेरा विचार है कि इस समस्या के समाधान के लिए हमें राजा अश्वपति के पास चलना चाहिए। कदाचित् वे हमें इसका रहस्य भली-भाँति समझा सकेंगे।”
सभी लोग राजा अश्वपति के पास जा पहुँचे।
अपने सभागार में ऋषि-मुनियों के समूह को देखकर राजा अश्वपति बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सबका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। उनकी पूजा-अर्चना की। जो विधि थी, वह पूर्ण की। उन्होंने उन्हें बहुत सारा धन भी दान में दिया, किन्तु किसी ने उसे छुआ तक नहीं।
राजा द्वारा प्रदत्त दान को ग्रहण न करने पर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि कदाचित् ये लोग मेरे धन को अन्याय से अर्जित धन मानते हों। उसका भ्रम मिटाने के लिए राजा ने उनसे कहा, “भगवन्! न तो मेरे राज्य में कोई चोर है, न कोई कृपण है, न कोई मद्यपान करनेवाला है, हमारे यहाँ के ब्राह्मण और विद्वान् बिना अग्निहोत्र के अपनी दिनचर्या आरम्भ नहीं करते। यहाँ कोई भी पुरुष व्यभिचारी नहीं है। जब कोई व्यभिचारी नहीं है तो व्यभिचारिणी होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अतएव मेरे अन्न और धन में किसी प्रकार का दोष नहीं है। आप इसे निस्संकोच स्वीकार कीजिए।”
ऋषियों ने इस सम्बन्ध में मौन ही साधे रखा।
तब राजा ने विचार किया कि कदाचित् उन्हें दान में दिया गया धन कम लग रहा हो। तब राजा ने उनसे कहा, “भगवन्! मैं शीघ्र ही एक महायज्ञ का आयोजन कर रहा हूँ। उसमें प्रत्येक ऋत्विक् को मैं जितना धन दूँगा, आप में से प्रत्येक ऋषि को भी मैं उतना ही धन दूँगा। अब तो आप इसे ग्रहण कीजिए।”
ऋषि उद्दालक को अब बोलना ही पड़ा। उन्होंने कहा, “राजन्! इस समय हम आपके पास धन की लालसा लेकर नहीं उपस्थित हुए हैं। हम तो आपके पास आत्मा और परमात्मा के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से आये हैं।”
राजा ने यह सुनकर कुछ मन में विचार किया और फिर कहा, “कल प्रातःकाल मैं इस विषय में आपका समाधान करने का यत्न करूँगा।”
राजा का उत्तर सुनकर ऋषिगण विस्मय में पड़ गये। वे परस्पर विचार-विमर्श करने लगे कि सारा दिन उनके सम्मुख है। राजा को कोई विशेष कार्य होता, तो वे उस ओर संकेत अवश्य करते; उन्होंने तो केवल इतना ही कहा कि वे कल प्रातःकाल इस विषय में बात करेंगे। ऐसा क्यों?
उद्दालक ऋषि उनमें वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध भी थे। तभी तो शंका-समाधान के लिए ऋषिगण उनके पास आये थे। उन्हीं उद्दालक ने उन्हें समझाते हुए कहा, “देखिए, हम लोग राजा की सेवा में जिज्ञासु के रूप में उपस्थित हुए हैं, ऋषि के रूप में भिक्षार्जन करने के लिए नहीं। अतः हमें चाहिए था कि हम समिधा हाथ में लेकर महाराज की सेवा में उपस्थित होते।”
ऋषिसमूह को अपनी भूल का ज्ञान हो गया। उन्होंने समिधा की व्यवस्था की और प्रातःकाल होने पर सभी ऋषिगण समिधा लेकर महाराज के सम्मुख उपस्थित हुए। राजा ने संक्षेप में उन्हें सबकुछ समझाया और अन्त में कहा, “यह समस्त विश्व भगवत्स्वरूप है। आत्मा और ब्रह्म में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है।”
ऋषिगणों को आधा ब्रह्मज्ञान तो तभी हो गया था जब राजा ने कहा था कि उनके राज्य में न कोई चोर है और न कोई मद्यपायी आदि है। शेष ज्ञान उन्हें राजा अश्वपति ने अब दे दिया था।
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