श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)\
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

विराट् शरीर की उत्पत्ति मैत्रेय ऋषि ने कहा- सर्वशक्तिमान्! भगवान् ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महत्तत्त्व आदि शक्तियाँ विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे काल शक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, पंचतन्मात्रा और मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ- इन तेईस तत्त्वों के समुदाय में प्रविष्ट हो गये। उसमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए। उस तत्त्व समूह को अपनी क्रिया शक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया। इस प्रकार जब भगवान् ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्त्वों के समूह ने भगवान् की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुष-विराट् को उत्पन्न किया।

अर्थात् जब भगवान् ने अंशरूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्व रचना करने वाला महत्तत्त्वादि समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणाम को प्राप्त हुआ। यह तत्त्वों का परिणाम हो विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है। जल के भीतर जो अण्डरूप आश्रय स्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा। वह विश्व रचना करने वाले तत्त्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्मशक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमशः एक (हृदय रूप), दस (प्राण रूप) और तीन (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) विभाग किये। यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव रूप होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीवरूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान् का आदि अवतार है। यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है।

यह अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव रूप से तीन प्रकार का, प्राणरूप से दस प्रकार का और हृदयरूप से एक प्रकार का है। फिर विश्व की रचना करने वाले महत्तत्त्वादि के अधिपति श्रीभगवान ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिये अपने चेतनरूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया। उसके जाग्रत् होते ही देवताओं के लिये कितने स्थान प्रकट हुए-यह मैं बतलाता हूँ, सुनो।

विराट् पुरुष के पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है। फिर विराट् पुरुष के तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रिय के सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता। इसके पश्चात् उस विराट् पुरुष के नथुने प्रकट हुए; उसमें दोनों अश्विनीकुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रिय के सहित प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है। इसी प्रकार जब उस विराट् देह में आँखें प्रकट हुईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहित-लोकपति सूर्य ने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रिय से पुरुष विविध रूपों का ज्ञान होता है। फिर उस विराट् विग्रह में त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रिय से जीव स्पर्श का अनुभव करता है। जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उसमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है। 



साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 45-50 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 45-50 का हिन्दी अनुवाद

देव! आपके कथामृत का पान करने से उमड़ी हुई भक्ति के कारण जिनका अन्तःकरण निर्मल हो गया है, वे लोग-वैराग्य ही जिसका सार है-ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधाम को चले जाते हैं। दूसरे धीर पुरुष चित्त निरोधरूप समाधि के बल से आपकी बलवती माया को जीतकर आपमें ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है; किन्तु आपकी सेवा के मार्ग में कुछ भी कष्ट नहीं है।

आदिदेव! आपके सृष्टि रचना की इच्छा से हमें त्रिगुणमय रचा है। इसलिये विभिन्न स्वभाव वाले होने के कारण हम आपस में मिल नहीं पाते और इसी से आपकी क्रीड़ा के साधनरूप ब्रह्माण्ड की रचना करके उसे आपको समर्पण करने में असमर्थ हो रहे हैं। अतः जन्मरहित भगवन्! जिससे हम ब्रह्माण्ड रचकर आपको सब प्रकार के भोग समय पर समर्पण कर सकें और जहाँ स्थित होकर हम भी आपनी योग्यता के अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं से दूर रहकर हम और आप दोनों को भोग समर्पण करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजिए। आप निर्विकार पुराण पुरुष ही अन्य कार्य वर्ग के सहित हम देवताओं के आदि कारण हैं।

देव! पहले आप अजन्मा ही ने सत्त्वादि गुण और जन्मादि कर्मों की कारणरूपा माया शक्ति में चिदाभासरूप वीर्य स्थापित किया था।

परमात्मादेव! महत्तत्त्वादि रूप हम देवगण जिस कार्य के लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्ध में हम क्या करें?

देव! हम पर आप ही अनुग्रह करने वाले हैं। इसलिये ब्रह्माण्ड रचना के लिये आप हमें क्रियाशक्ति के सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिये।




साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद

महत्तत्त्व के विकृत होने पर अहंकार की उत्पत्ति हुई- जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कर्ता (अधिदैव) रूप होने के कारण भूत, इन्द्रिय और मन का कारण है। वह अहंकार वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और तामस- भेद से तीन प्रकार का है; अतः अहंतत्त्व के विकार होने पर वैकारिक अहंकार से मन और जिनसे विषयों का ज्ञान होता है, वे इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए। तैजस अहंकार से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्द-तन्मात्र हुआ और उससे दृष्टान्तरूप से आत्मा का बोध कराने वाला आकाश उत्पन्न हुआ। भगवान् की दृष्टि जब आकाश पर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभास के योग से स्पर्श तन्मात्र हुआ और उसके विकृत होने पर उससे वायु की उत्पत्ति हुई। अत्यन्त बलवान् वायु ने आकाश के सहित विकृत होकर रूप तन्मात्र की रचना की और उससे संसार का प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ। फिर परमात्मा की दृष्टि पड़ने पर वायुयुक्त तेज ने काल, माया और चिदंश के योग से विकृत होकर रसतन्मात्र के कार्य जल को उत्पन्न किया। तदनन्तर तेज से युक्त जल ने ब्रह्मा का दृष्टिपात होने पर काल, माया और चिदंश के योग से गन्धगुणमयी पृथ्वी को उत्पन्न किया। विदुर जी!

इन आकाशादि भूतों में से जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतों के गुण भी अनुगत समझने चाहिये। ये महत्तत्त्वादि के अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांश विशिष्ट देवगण श्रीभगवान् के ही अंश हैं, किन्तु पृथक्-पृथक् रहने के कारण जब वे विश्व रचनारूप अपने कार्य में सफल नहीं हुए, तब हाथ जोड़कर भगवान् से कहने लगे।

देवताओं ने कहा- देव! हम आपके चरण-कमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरण में आये हुए जीवों का ताप दूर करने के लिये छत्र के समान हैं तथा इनका आश्रय लेने से यतिजन अनन्त संसार दुःख को सुगमता से ही दूर फेंक देते हैं। जगत्कर्ता जगदीश्वर! इस संसार में तापत्रय से व्याकुल रहने के कारण जीवों को जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये भगवन्! हम आपके चरणों की ज्ञानमयी छाया का आश्रय लेते हैं। मुनिजन एकान्त स्थान में रहकर आपके मुखकमल का आश्रय लेने वाले वेदमन्त्ररूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगा जी के उद्गम स्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्मों का हम आश्रय लेते हैं। हम आपके चरणकमलों की उस चौकी का आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवण-कीर्तनादि रूप भक्ति से परमार्जित अन्तःकरण में धारण करके वैराग्य पुष्ट ज्ञान के द्वारा परम धीर हो जाते हैं। ईश! आप संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये ही अवतार लेते हैं; अतः हम सब आपके उन चरणकमलों की शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करने वाले भक्तजनों को अभय कर देते हैं। जिन पुरुषों का देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखने वाले अन्य तुच्छ पदार्थों में अहंता, ममता का दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीर में (आपके अन्तर्यामी रूप से) रहने पर भी जो अत्यन्त दूर हैं; उन्हीं आपके चरणारविन्दों को हम भजते हैं। परम यशस्वी परमेश्वर! इन्द्रियों के विषयाभिमुख रहने के कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामर लोग आपके विलासपूर्ण पादविन्यास की शोभा के विशेषज्ञ भक्तजनों के दर्शन नहीं कर पाते; इसी से वे आपके चरणों से दूर रहते हैं।



साभार krishnakosh.org

पुरूषार्थ की शक्ति.


पुरूषार्थ की शक्ति.  

सुधारवादी तत्वों की स्थिति और भी उपहासास्पद है। धर्म, अध्यात्म, समाज एवं राजनीतिक क्षेत्रों में सुधार एवं उत्थान के नारे जोर- शोर से लगाये जाते हैं। पर उन क्षेत्रों में जो हो रहा है, जो लोग कर रहे हैं, उसमें कथनी और करनी के बीच जमीन आसमान जैसा अंतर देखा जा सकता है। ऐसी दशा में उज्जवल भविष्य की आशा धूमिल ही होती चली जा रही है। 


क्या, हम सब ऐसे ही समय की प्रतिक्षा में, ऐसे ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें। अपने को असहाय,, असमर्थ अनुभव करते रहें और स्थिति बदलने के लिए किसी दूसरे पर आशा लगाये बैठे रहें। मानवी पुरुषार्थ कहता है, ऐसा नहीं होना चाहिए। 

पं श्रीराम शर्मा आचार्य


भटकना मत.


भटकना मत.

लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लंबी राह पर चलने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहॉं से कहॉं घसीट कर ले जाते हैं। हमको भी घसीट ले गये होते। ये सामान्य आदमियों को घसीट ले जाते हैं। बहुत से व्यक्तियों में जो सिद्धान्तवाद की राह पर चले, इन्हीं के कारण भटक कर कहॉं से कहॉं जा पहुँचे।

आप भटकना मत। आपको जब कभी भटकन आये तो आप अपने उस दिन की उस समय की मन:स्थिति को याद कर लेना, जब कि आपके भीतर से श्रद्धा का एक अंकुर उगा था। उसी बात को याद रखना कि परिश्रम करने के प्रति जो हमारी उमंग और तरंग होनी चाहिए, उसमें कमी तो नहीं आ रही।


पं श्रीराम शर्मा आचार्य

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद

मुझे तो उन शोचनीयों के भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषों के लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापों के कारण श्रीहरि की कथाओं से विमुख रहते हैं। हाय! काल भगवान् उनके अमूल्य जीवन को काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मन से व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तन में लगे रहते हैं।

मैत्रेय जी! आप दीनों पर कृपा करने वाले हैं; अतः भौरा जैसे फूलों में से रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओं में से इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्र-कीर्ति श्रीहरि की कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याण के लिये सुनाइये। उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने के लिये अपनी माया शक्ति को स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारों के द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- जब विदुर जी ने जीवों के कल्याण के लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान् मैत्रेय जी ने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा।

श्रीमैत्रेय जी बोले- साधुस्वभाव विदुर जी! आपने सब जीवों पर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान् में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसार में भी आपका बहुत सुयश फैलेगा। आप श्रीव्यास जी के औरस पुत्र हैं; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि आप अनन्य भाव से सर्वेश्वर श्रीहरि के ही आश्रित हो गये हैं। आप प्रजा को दण्ड देने वाले भगवान् यम ही हैं। माण्डव्य ऋषि का शाप होने के कारण ही आपने श्रीव्यास जी के वीर्य से उनके भाई विचित्रवीर्य की भोगपत्नी दासी के गर्भ से जन्म लिया। आप सर्वदा ही श्रीभगवान् और उनके भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान् निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करने की आज्ञा दे गये हैं। इसलिये अब मैं जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये योगमाया के द्वारा विस्तारित हुई भगवान् कि विभिन्न लीलाओं का क्रमशः वर्णन करता हूँ।

सृष्टि रचना के पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे- न द्रष्टा था न दृश्य! सृष्टिकाल में अनेक् वृत्तियों के भेद से जो अनेकता दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी। वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के समान समझने लगे। वस्तुतः वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्तियाँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था। इस द्रष्टा और दृश्य का अनुसन्धान करने वाली शक्ति ही-कार्यकारण रूपा माया है।

महाभाग विदुर जी! इस भावाभावरूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही भगवान् ने इस विश्व का निर्माण किया है। काल शक्ति से जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभ को प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंशपुरुषरूप से उसमें चिदाभासरूप बीज स्थापित किया। तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महत्तत्त्व प्रकट हुआ। वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञान स्वरूप और अपने में सूक्ष्म रूप से स्थित प्रपंच की अभिव्यक्ति करने वाला था। फिर चिदाभास, गुण और काल के अधीन उस महत्तत्त्व ने भगवान् की दृष्टि पड़ने पर इस विश्व की रचना के लिये अपना रूपान्तर किया।



साभार krishnakosh.org

तैरिये यही जीवन है.


तैरिये, यही जीवन है.

एक दिन एक लड़का समुद्र के किनारे बैठा हुआ था। उसे दूर कहीं एक जहाज लंगर डाले खड़ा दिखाई दिया। वह जहाज तक तैर कर जाने के लिए मचल उठा। तैरना तो जानता ही था, कूद पड़ा समुद्र में और जहाज तक जा पहुंचा।

उसने जहाज के कई चक्कर लगाए। विजय की खुशी और सफलता से उसका आत्मविश्वास और बढ़ गया लेकिन जैसे ही उसने वापस लौटने के लिए किनारे की तरफ देखा तो उसे निराशा होने लगी। उसे लगा कि किनारा बहुत दूर है।

वह सोचने लगा, वहां तक कैसे पहुंचेगा? हाल में मिली सफलता के बाद अब निराशा ऐसी बढ़ रही थी कि स्वयं पर अविश्वास-सा हो रहा था। जैसे-जैसे उसके मन में ऐसे विचार आते रहे, उसका शरीर शिथिल होने लगा। फुर्तीला होने के बावजूद बिना डूबे ही वह डूबता-सा महसूस करने लगा ।

लेकिन जैसे ही उसने संयत होकर अपने विचारों को निराशा से आशा की तरफ मोड़ा, क्षण भर में ही जैसे कोई चमत्कार होने लगा। उसे अपने भीतर त्वरित परिवर्तन अनुभव होने लगा। शरीर में एक नई ऊर्जा का संचार हो गया। वह तैरते हुए सोच रहा था कि किनारे तक न पहुंच पाने का मतलब है, मर जाना और किनारे तक पहुंचने का प्रयास है, डूब कर मरने से पहले का संघर्ष।

इस सोच से जैसे उसे कोई संजीवनी ही मिल गई। उसने सोचा कि जब डूबना ही है तो फिर सफलता के लिए संघर्ष क्यों न किया जाए।

उसके भीतर के भय का स्थान विश्वास ने ले लिया। इसी संकल्प के साथ वह तैरते हुए किनारे तक पहुंचने में सफल हो गया। इस घटना ने उसे जीवन की राह में आगे चल कर भी बहुत प्रेरित किया। यही लड़का आगे चल कर विख्यात ब्रिटिश लेखक मार्क रदरफोर्ड के नाम से जाना गया।

(Source-awgpskj.blogspot.com)

याचक ने पारस फेंक दिया.


याचक ने पारस फेंक दिया.

एक व्यक्ति एक संत के पास आया व उनसे याचना करने लगा कि वह निर्धन है। वे उसे कुछ धन आदि दे दें, ताकि वह जीविका चला सके। सन्त ने कहा- 'हमारे पास तो वस्त्र के नाम पर यह लंगोटी व उत्तरीय है। लंगोटी तो आवश्यक है पर उत्तरीय तुम ले जा सकते हो। इसके अलावा और कोई ऐसी निधि हमारे पास है नहीं।'' वह व्यक्ति बराबर गिड़गिड़ाता ही रहा, तो वे बोले- 'अच्छा, झोपड़ी के पीछे एक पत्थर पड़ा होगा। कहते हैं, उससे लोहे को छूकर सोना बनाया जा सकता है। तुम उसे ले जाओ। ''प्रसन्नचित्त वह व्यक्ति भागा व उसे लेकर आया, खुशी से चिल्ला पड़ा- 'महात्मन्! यह तो पारस मणि है। आपने इसे ऐसे ही फेंक दी। ''सन्त बोले' हाँ बेटा! मैं जानता हूँ और यह भी कि यह नरक की खान है। मेरे पास प्रभु कृपा से आत्म सन्तोष रूपी धन है जो मुझे निरन्तर आत्म ज्ञान, और अधिक यान प्राप्त करने को प्रेरित करता है। मेरे लिए इस क्षणिक उपयोग की वस्तु का क्या मूल्य?' वह व्यक्ति एकटक देखता रह गया।

फेंक दी उसने भी पारस मणि। बोला- भगवन्! जो आत्म सन्तोष आपको है, व जो कृपा आप पर बरसी है उससे मैं इस "पत्थर" के कारण वंचित नहीं होना चाहता। आप मुझे भी उस दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दें जो सीधे प्रभु प्राप्ति की ओर ले जाती है। सन्त ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया। वे दोनों मोक्ष सुख पा गए।

विवेकवान के समक्ष हर वैभव, हर सम्पदा तुच्छ है। वह सतत् अपने चरम लक्ष्य, परम पद की प्राप्ति की ओर बढ़ता रहता है।



(awgpblogs.blogspot.com) 

सही हल.


सही हल.

'आदि-आदि'...निशा ने लगभग चिल्लाते हुए, अपने सोलह साल के बेटे को आवाज़ दी, क्या हुआ- मम्मा,क्यूँ इतनी ज़ोर से आवाज़ लगा रही हो? आदि ने अपने कमरे से बाहर आते हुए पूछा- 

'आदि आज मेरे पर्स में से फिर कुछ रुपये ग़ायब हैं, तुमने लिए हैं क्या, निशा ने ग़ुस्से से पूछा। 

नहीं। मम्मा मैं भला बिना बताए, आपके पैसे क्यूँ लूँगा, आप हर थोड़े दिन बाद मुझसे यही पूछती रहती हो, आख़िर अपना पर्स इतनी लापरवाही से रखती ही क्यूँ हो। 

आदि उलटा अपनी माँ को ही ग़लत ठहरा कर, अपने कमरे में वापिस चला गया ।निशा ग़ुस्से का घूँट पी कर रह गयी। पिछले कुछ महीनों से वो यूँ ही परेशान हो रही थी। जबसे उसके पर्स में से कुछ ना कुछ पैसे ग़ायब होने शुरू हुए थे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो शक करे तो किस पर? घर में वो तीन ही लोग थे- निशा, उसके पति मयंक और उनका इकलौता बेटा आदित्य। इन तीनों के अलावा घर में सिर्फ़ उनकी मेड आशा आती थी, जो पिछले दस सालों से उनके घर काम करती थी, लेकिन तबसे आज तक उसने एक भी पैसे की गड़बड़ नहीं की थी, इसलिए निशा चाहकर भी उस पर शक नहीं कर सकती थी। लेकिन अब समस्या बहुत गम्भीर हो चुकी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो करे तो क्या करे? 

पहली बार जब उसके पैसे चोरी हुए थे, तो उसने अपने पति और बेटे से बात की, तब मयंक ने उसे ये कहकर दिलासा दिया था कि शायद वो ही कहीं रखकर भूल गयी होगी या फिर ग़लती से कहीं गिर गये होंगे, तब उसे भी ऐसा लगा था कि शायद उसे ही ग़लतफ़हमी हो गयी होगी; लेकिन तब से लेकर अब तक ऐसा बहुत बार हो चुका था। जब उसे लगा कि पर्स में रुपये कम हैं। फिर आज ही की बात ले लो, कल शाम को ही उसने पूरे दस हज़ार रुपए गिनकर अपने पर्स में रखे थे; लेकिन आज एक पार्सल आने पर उसकी पेमेंट के लिए जैसे ही उसने पर्स खोला नौ हज़ार रुपए देखकर, उसका माथा ठनक गया, अब उसका शक, यक़ीन में बदल गया कि उसके पैसे लगातार चोरी हो रहे हैं। आशा कल शाम से अब तक आयी नहीं थी; इसलिए उस पर शक करना बेमानी था, मयंक ऐसा करना तो दूर, सोच भी नहीं सकते थे। आख़िर वो ही तो उसे घर ख़र्च के अलावा उसका जेब-ख़र्च भी देते थे। अब सिर्फ़ आदित्य था, उसका अपना बेटा; जिस पर उसका शक जा रहा था। उसे ये सोचकर ही घबराहट हो रही थी कि आदित्य ऐसा काम कैसे कर सकता है? उसको बचपन से ही निशा ने अपनी तरफ़ से बहुत अच्छे संस्कार दिए थे। उसकी हर जायज़ फ़रमाइश, वो दोनो पूरी करते थे। फिर भी आदि ऐसा काम कैसे कर सकता है, वो बहुत चिंतित हो गयी कि क्या करे अब? अब अगर उसने मयंक से बात की, तो वो भी उसे ही डाँटेगे कि तुम सही से रुपए पैसे का ध्यान नहीं रखती हो। लेकिन ये तो तय था कि उसे इस समस्या का सही हल तो निकालना ही था। 

उसने सारी बातों को सोच विचार कर आदि से बात करने का सोचा। सबसे पहले उसने अपना ग़ुस्सा शांत किया क्योकि वो जानती थी कि टीनेज बच्चों के साथ कैसे डील किया जाए। अगर किशोरावस्था में बच्चों के साथ सख़्ती की जाए या उन पर हाथ उठाया जाए, तो बच्चे अक्सर माता पिता को अपना दुश्मन समझने लगते हैं; जोकि बिल्कुल ग़लत होता है, क्यूँकि असल में माता पिता से बड़ा हमारा कोई हितैषी नहीं होता। यही बात आज उसे आदि को समझानी थी। 

ख़ुद को संयत करते हुए वो आदि के कमरे में गयी, 'आदि , मुझे तुमसे कुछ बात करनी है बेटा'। बोलो मम्मा, आदि बोला- देखो बेटा तुम जानते हो कि पिछले कुछ समय से घर में क्या हो रहा है। आए दिन मेरे पैसे चोरी हो रहे हैं। मैंने हर बार तुमसे पूछा, लेकिन तुमने मना कर दिया, तुम कहते हो कि हो सकता है कि आशा [कामवाली] ने लिए होंगे; लेकिन बेटा मैंने कल शाम को ही अच्छे से पैसे गिनकर रखे थे; अब उसमें से भी एक हज़ार रुपए गायब हैं। आशा तो अभी तक आयी भी नहीं है, सोचो फिर पैसे कहाँ जा सकते हैं। 

इतना कहकर निशा ने ग़ौर से आदि के चेहरे की तरफ़ देखा, एक पल में उसके चेहरे का रंग बदला था, लेकिन दूसरे ही पल वो ग़ुस्सा हो गया। मम्मा- आपको क्या लगता है; मैं चोर हूँ, क्या जो बार बार आपके पैसे चुराऊँगा, निशा को उससे इसी प्रतिक्रिया की उम्मीद थी। 

इसलिए वो उसके भड़कने पर भी शांत रही, क्यूँकि आज उसने ठान लिया था कि वो आदि से सच उगलवा कर रहेगी। नहीं बेटा मैं ये बिल्कुल नहीं कह रही कि तुम चोर हो, लेकिन तुम हो तो अभी बच्चे ही ना और बेटा ग़लती तो किसी से भी हो जाती है, बड़ों से भी और बच्चों से भी। देखो बेटा! हम सबसे अपनी ज़िंदगी में कुछ ना कुछ ग़लतियाँ ज़रूर हुई होती हैं लेकिन अच्छा और समझदार इंसान वही होता है, जो अपनी की हुई ग़लतियों से सबक़ सीखे और उन्हें फिर से ना दोहराए, ऐसा कहकर निशा ने उसे समझना चाहा। लेकिन वो इतनी आसानी से कहाँ मानने वाला था इसलिए बोला ... पर मम्मा मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है। लेकिन निशा जो बहुत ग़ौर से उसकी तरफ़ देख रही थी, उसने महसूस किया कि ये बात कहते हुए आदि ने उससे नज़रें चुरा ली थी। निशा ने बात जारी रखते हुए कहा ..ठीक है, आदि अगर तुम कहते हो तो मैं आशा के आते ही उससे बात करूँगी; लेकिन सोचो अगर उसने ऐसा कोई काम नहीं किया होगा, तो उसे कितना बुरा लगेगा, हो सकता है, वो हमारा काम भी करना बंद कर दे और यही नहीं जिन और लोगों के घर में वो काम करती है, उन लोगों को भी ये बात पता चल जाएगी। हो सकता है, वो लोग यही कहें कि होगा कोई घर का ही सदस्य, जिसने चोरी की होगी; क्यूँकि वो सब लोग भी आशा को अच्छे तरीक़े से जानते हैं कि वो बहुत मेहनती और ईमानदार है। 

आदि मैं नहीं चाहती कि हमारे घर की बाते इस तरह फैलें, अगर मैं तुम्हारे पापा से बात करूँगी, तो उन्हें भी तुमपे ही शक होगा और हो सकता है कि वो तुमपे ग़ुस्से में हाथ उठाएँ और ऐसा मैं बिल्कुल नहीं चाहती बेटा, इसलिए आदि प्लीज़ बेटा! अगर तुमने ग़लती से भी ये ग़लती की है, तो अपनी माँ को बता दो। मैं तुमसे ये वादा करती हूँ कि मैं इसे तुम्हारा बचपना समझ कर माफ़ कर दूँगी; लेकिन तुम्हें भी मुझसे ये वादा करना होगा कि तुम फिर कभी ऐसा कोई काम नहीं करोगे। बेटा तुम्हारी उम्र में अक्सर बच्चे बुरी संगत में पड़कर ऐसी ग़लतियाँ कर जाते हैं; तुम्हें डरने और घबराने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। तुम्हारी माँ तुम्हारे साथ है बेटा, निशा ने बहुत प्यार से उम्मीद भरी नज़रों से आदि को देखते हुए कहा। 

माँ की आँखों में ग़ुस्से की जगह प्यार देखकर आदि टूट गया और रोने लगा, निशा ने प्यार से उसे गले लगा कर चुप कराया, उसे पानी पिलाया। 

हाँ मम्मा मैंने ही आपके पर्स में से पैसे चुराए हैं, वो भी एक नहीं कई बार। 

लेकिन ऐसा क्यूँ किया आदि? निशा ने पूछा – 

मम्मा मेरा एक दोस्त है; उसे उसके पापा से बहुत ज़्यादा पॉकेट-मनी मिलती है; मुझसे भी काफ़ी ज़्यादा। तो वो रोज़ मुझे आकर चिढ़ाता था कि देख आदि, मेरे पास तुझसे ज़्यादा पैसे हैं। तब मुझे बहुत ग़ुस्सा आता था, इसलिए उसे सबक़ सिखाने के लिए मैंने आपके पर्स से पैसे चुराने शुरू कर दिए ताकि मैं उसे ये बता सकूँ कि मेरे पास उससे भी ज़्यादा पैसे हैं। आई ऐम सॉरी मम्मा! मैं मानता हूँ मेरी ग़लती है, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था; प्लीज़ आप मुझे माफ़ कर दो। आदि ये कहकर फि से रोने लगा। 

निशा ने आगे बढ़कर उसे गले लगाते हुए कहा - ठीक है, आदि। मैं तुम्हें इस बार माफ़ करती हूँ; पर बेटा तुम वादा करो, मुझसे। 

पक्का, मम्मा! मैं आपसे पक्का वादा करता हूँ कि आज के बाद ऐसी कोई ग़लती नहीं करूँगा आप मुझ पर विश्वास करो। 

टीनेज में बच्चे ग़लत संगत में पड़ कर अक्सर इस तरह की ग़लतियाँ कर जाते हैं। पर हम, माँ-बाप का फ़र्ज़ है कि हम उनके दोस्त बनें, उन्हें समय दें, उनके संगी साथियों पर भी नज़र रखें। अच्छे बुरे का ज्ञान तो सब लोग अपने बच्चों को देते ही हैं; लेकिन निशा की तरह, ग़लती होने पर उसे सुधारने और उसे फिर से ना दोहराने का ज्ञान भी दीजिए।

आत्मशक्ति पर विश्वास रखो.


आत्मशक्ति पर
विश्वास रखो.  

क्या करें, परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं हैं, कोई हमारी सहायता नहीं करता, कोई मौका नहीं मिलता आदि शिकायतें निरर्थक हैं। अपने दोषों को दूसरों पर थोपने के लिए इस प्रकार की बातें अपनी दिल जमाई के लिए की जाती हैं। लोग कभी प्रारब्ध को मानते हैं, कभी देवी देवताओं के सामने नाक रगड़ते हैं। इन सबका कारण है, अपने ऊपर विश्वास का न होना।

दूसरों को सुखी देखकर हम परमात्मा के न्याय पर उंगली उठाने लगते हैं। पर यह नहीं देखते कि जिस परिश्रम से उन सुखी लोगों ने अपने काम पूरे किये हैं, क्या वह हमारे अंदर है? ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता, उसने वह आत्मशक्ति सबको मुक्त हाथों से प्रदान की है, जिसके आधार पर उन्नति की जा सके। 


(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी का प्रश्न और मैत्रेय जी का सृष्टिक्रम वर्णन.

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वार क्षेत्र में) विराजमान थे। भगवद्भक्ति से शुद्ध हुए हृदय वाले विदुर जी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर उन्होंने पूछा।

विदुर जी ने कहा- भगवन्! संसार में सब लोग सुख के लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुःख की वृद्धि ही होती है। अतः इस विषय में क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये। जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुःखी हैं, उन पर कृपा करने के लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसार में विचरा करते हैं।

साधुशिरोमणि! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधन का उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करने से भगवान् अपने भक्तों के भक्तिपूत हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरूप का अपरोक्ष अनुभव कराने वाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं। त्रिलोकी के नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्प के आरम्भ में इस सृष्टि की रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत् के जीवों की जीविका का विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाश में लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमाया का आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होने पर भी इस ब्रह्माण्ड में अन्तर्यामी रूप से अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपों में प्रकट होते हैं-वह सब रहस्य आप हमें समझाइये। ब्राह्मण, गौ और देवताओं के कल्याण के लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीला से ही नाना प्रकार के दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये। यशस्वियों के मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता। हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियों के स्वामी श्रीहरि ने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक-पर्वत से बाहर के भोगों को, जिसमें ये सब प्रकार के प्राणियों के अधिकारानुसार भिन्न-भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्त्वों से रचा है।

द्विजवर! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजा के स्वभाव, कर्म, रूप और नामों के भेद की किस प्रकार रचना की है? भगवन्! मैंने श्रीव्यास जी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्ण कथामृत के प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प-सुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है। उन तीर्थपाद श्रीहरि के गुणानुवाद से तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओं के समाज में कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्यों के कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसार चक्र में डालने वाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं। भगवन्! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान् के गुणों का वर्णन करने की इच्छा से ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषय सुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान् की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है। यह भगवत्कथा की रुचि श्रद्धालु पुरुष के हृदय में जब बढ़ने लगती है, तब अन्य विषयों से उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणों के निरन्तर चिन्तन से आनन्द मग्न हो जाता है।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 29-33 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 29-33 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेव जी ने कहा- जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरि ने ब्राह्मणों के शापरूप काल के बहाने अपने कुल का संहार कर अपने श्रीविग्रह को त्यागते समय विचार किया। ‘अब इस लोक से मेरे चले जाने पर संयमी शिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करने के सच्चे अधिकारी हैं। उद्धव मुझसे अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अतः लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा देते हुए वे यहीं रहे’।

वेदों के मूल कारण जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देने पर उद्धव जी बदरिकाश्रम में जाकर समाधियोग द्वारा श्रीहरि की आराधना करने लगे।

कुरुश्रेष्ठ परीक्षित! परमात्मा श्रीकृष्ण ने लीला से ही अपना श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीला से ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया। उनका वह अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषों का उत्साह बढ़ाने वाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर पुरुषों के लिये अत्यन्त दुष्कर था।

परम भागवत उद्धव जी के मुख से उनके प्रशंसनीय कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होने का समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान् ने परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुर जी उद्धव जी के चले जाने पर प्रेम से विह्वल होकर रोने लगे।

इसके पश्चात् सिद्धशिरोमणि विदुर जी यमुना के तट से चलकर कुछ दिनों में गंगा जी के किनारे जा पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेय जी रहते थे।

साभार krishnakosh.org

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद


(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद

प्रभो! आप निःस्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, कालरूप होकर भी शत्रु के डर से भागते हैं और द्वारका के किले में जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियों के साथ रमण करते हैं- इन विचित्र चरित्रों को देखकर विद्वानों की बुद्धि भी चक्कर में पड़ जाती है। देव! आपका स्वरूपज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर भी आप सलाह लेने के लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्यों की तरह बड़ी सावधानी से मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो! आपकी वह लीला मेरे मन को मोहित-सा कर देती है। स्वामिन्! अपने स्वरूप का गूढ़ रहस्य प्रकट करने वाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्मा जी को बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी संसार-दुःख को सुगमता से पार कर जाऊँ’।

जब मैंने इस प्रकार अपने हृदय का भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे अपने स्वरूप की परम स्थिति का उपदेश दिया। इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्ण से आत्मतत्त्व की उपलब्धि का साधन सुनकर तथा उन प्रभु के चरणों की वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ। इस समय उनके विरह से मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है।

विदुर जी! पहले तो उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे हृदय को उनकी विरह व्यथा अत्यन्त पीड़ित कर रही है। अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र बदरिकाश्रम को जा रहा हूँ, जहाँ भगवान् श्रीनारायणदेव और नर- ये दोनों ऋषि लोगों पर अनुग्रह करने के लिये दीर्घकालीन सौम्य, दूसरों को सुख पहुँचाने वाली एवं कठिन तपस्या कर रहे हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- इस प्रकार उद्धव जी के मुख से अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार सुनकर परम ज्ञानी विदुर जी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने ज्ञान द्वारा शान्त कर दिया। जब भगवान् श्रीकृष्ण के परिकरों में प्रधान महाभागवत उद्धव जी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब कुरुश्रेष्ठ विदुर जी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा।

विदुर जी ने कहा- उद्धव जी! योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप के गूढ़ रहस्य को प्रकट करने वाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान् के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य सिद्ध करने के लिये ही विचरा करते हैं।

उद्धव जी ने कहा- उस तत्त्व ज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेय जी की सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोक को छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान् ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा दी थी।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- इस प्रकार विदुर जी के साथ विश्वमूर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों की चर्चा होने से उस कथामृत के द्वारा उद्धव जी का वियोगजनित महान् ताप शान्त हो गया। यमुना जी के तीर पर उनकी वह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी। फिर प्रातःकाल होते ही वे वहाँ से चल दिये।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! वृष्णिकुल और भोजवंश के सभी रथी और यूथपतियों के भी यूथपति नष्ट हो गये थे। यहाँ तक कि त्रिलोकीनाथ श्रीहरि को भी अपना वह रूप छोड़ना पड़ा था। फिर उन सबके मुखिया उद्धव जी ही कैसे बच रहे?
साभार krishnakosh.org

चिंतन और चरित्र का समन्वय.


चिंतन और चरित्र का समन्वय.  
 
अपने दोष दूसरों पर थोपने से कुछ काम न चलेगा। हमारी शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं के लिए दूसरे उत्तरदायी नहीं वरन् हम स्वयं ही हैं। दूसरे व्यक्तियों,परिस्थितियों एवं प्रारब्ध भोगों का भी प्रभाव होता है। पर तीन चौथाई जीवन तो हमारे आज के दृष्टिकोण एवं कर्तव्य का ही प्रतिफल होता है। अपने को सुधारने का काम हाथ में लेकर हम अपनी शारीरिक और मानसिक परेशानियों को आसानी से हल कर सकते हैं। 

प्रभाव उनका नहीं पड़ता जो बकवास तो बहुत करते हैं,पर स्वयं उस ढाँचे में ढलते नहीं। जिन्होंने चिंतन और चरित्र का समन्वय अपने जीवन क्रम में किया है, उनकी सेवा साधना सदा फलती-फूलती रहती है। 

(पं श्रीराम शर्मा आचार्य)

श्रेष्ट कथन. (57)


श्रेष्ट .
01.
दुर्लभता का अस्तित्व वहीं तक है, जब तक हम वहां पहुंचते नहीं हैं।
02.
एक जगह पर खडे रहने पर संसार छोटा लगता है और बढ़ते जाने पर बड़ा होते जाता हैं।
03.
हमेशा दूसरों पर आश्रित रहना, अपनी बुद्धि को गिरवी रख देने जैसा ही है।
04.
दबी हुई प्रतिभा, अनुकूल अवसर आने पर, विशाल आकार ले लेती है।
05.
ज्ञानी को प्राकृतिक सुन्दरता संतुष्ट करती है, अज्ञानी को कृत्रिम।
06.
धन की सुरक्षा तिजोरी कर लेती है; किन्तु  तन की सुरक्षा स्वयं करनी पड़ती है।
07.
कोई अचानक अमीर बन तो सकता है; लेकिन विद्वान नहीं।
08.
भीड़ में उन्हीं चेहरों को पहचाना जाता है, जिन्होंने अपनी पहचान कायम कर ली है।
09.
जो आंतरिक भय से ग्रस्त होते हैं, उनका स्वाभाव शंकालु होता हैं।
10.
काबिल व्यक्ति के जब हाथ-पाँव चलने लगते हैं; तो व्यवस्था सृजन का नया मोड़ ले लेती है।
11.
बड़प्पन दिखाने का शौक भी आदमी को बहुत सी उलझनों में डालता है।
12.
प्रकाश की गति से भी तेज केवल मानवमनहोता हैं।
13.
ईमानदारी के ओज से सिर्फ बेईमान डगमगाते हैं।
14.
आपसी वैर की आग, अगर दीये की लौ की तरह अपने तक ही सिमित रहे; तो किसी का कोई नुकसान नहीं होता।
15.
संगठित शक्ति जब एक ही दिशा में सकारात्मक रूप से बढ़े, तब लाभ दिखलाती है।
16.
मूर्खता का काम ही है, अंधेरे को ढोकर चारों और फैलाना।
17.
कुछ चीजें समीप जाने पर बगैर मांगे मिल जाती है, जैसेबर्फ के पास शीतलता” “अग्नि के पास गरमाहटऔरगुलाब के पास सुगंध
18.
कांटे अपने आप नहीं चुभते, जब तक उन पर पैर न रखा गया हो।
19.
जिस अम्बर से कड़कती धूप आती है, उसीमें शीतल फुहारें भी हैं, बस थोडा धैर्य बनाये रखिये।
20.
क्रोध हवा का वह झोंका है, जो बुद्धि के दीपक को बुझा देता है।
21.
असंतुष्ट और दुखी लोगों से घिरा हुआ व्यक्ति कभी संतुष्ट और सुखी नहीं हो सकता।
22.
संत ऐसों को ही कहा जाता है, जिन्हें दुनिया में दुःखी दिखाई देते हैं और वे दुःखों के निवारण का प्रयास करते हैं।
23.
जिनकी कामनाएँ अतृप्त होती हैं। उन्हें भोग- विलास में ही सब कुछ नजर आता है। ऐसे ही व्यक्ति इस संसार में दुखी होते हैं।
24.
जो चादर से ज्यादा पाँव पसारते हैं; उन्हें एक दिन हाथ भी पसारना पड़ता हैं।
25.
अच्छा दिखने के लिये मत जिओ; बल्कि अच्छा बनने के लिए जिओ।
26.
हर समझदार, कलात्मक और बुद्धिमान व्यक्ति सादगी पसन्द होते हैं
27.
क्रोध हवा का वह झोंका है, जो बुद्धि के दीपक को बुझा देता है
28.
धन को बरबाद करने पर तो आप केवल निर्धन होते हैं, लेकिन समय को बरबाद करने पर आप जीवन का एक हिस्सा गंवा देते हैं 
29.
गुण से भरी हुई बातें अपना लेनी ही चाहिए, उनका कहने वाला कोई भी क्यों न हो; किन्तु अवगुण युक्त बाते नहीं अपनाना चाहिए, चाहे उसका कहने वाला ब्रह्मा ही क्यों न हो।
30.
बात करने से ही बात बनती हैं; बात ना करने से, दूरी बढती हैं।
31.
अपनी ग़लतियों को दूसरों पर न थोपें, इस तरह आप खुद के साथ धोखा करते हैं और दूसरों का विश्वास भी खोते हैं
32.
अपनी वाणी के प्रभाव की क्षमता बनाए रखने के लिए हमेशा अर्थपूर्ण शब्दों का ही उपयोग करें
33.
जीवन में स्थायित्व की कमी हैं; इसलिए यह विश्वास करना कि ऐसा  सदा बना रहेगा, सिर्फ धोखा हैं।
34.
प्रेम अपमानित होकर द्वेष का रूप ले लेता हैं।
35.
यदि हाथ में घाव न हो तो उस हाथ में विष रख लेने पर भी शरीर में विष का प्रभाव नहीं होता हैं। इसी प्रकार मन में पाप न रखने वाले को, बाहरी कर्म का पाप नहीं लगता।
36.
जो दुखोत्पत्ति का कारण ही नहीं समझ पाते, वे उसके निरोध/समाधान का उपाय भी नहीं ढूंढ़ पाते।
37.
अपने ही भीतर बड़ा हिस्सा बदलाव चाहता हैं। खुद को उसके मुताबिक ढालें। आत्म-मंथन करें।
38.
समाजिक कुरीतियों का उल्लंघन एवं विरोध; केवल चरित्र-बल पर ही किया जा सकता हैं; अन्यथा समाज में विकार का कारण बनता हैं।
39.
दूसरों को क्षति पंहुचाकर अपनी भलाई की आशा करना, जहर खाने के समान हैं।
40.
चरित्र के बिना ज्ञान, बुराई की ताकत बन जाता है।
41.
अज्ञानी साधक, उस जन्मांध व्यक्ति के समान हैं, जो सछिद्र नौका पर चढ़ कर नदी किनारे पहुचना चाहता हैं, जिसका डूबना तय हैं।
42.
“पाप कर्म” ताजा दूध की तरह तुरंत विकार नहीं लाता, वह तो सुप्त-अग्नि की तरह धीरे धीरे सुलगते हुए, उस मनुष्य का पीछा करता हैं।
43.
उद्वेगपूर्ण विचार वैयक्तिक होते हैं, उनकी मानसिक शक्ति सीमित होती है। शान्त विचार वृहद मन के विचार हैं, उनकी शक्ति अपरिमित होती है।
44.
सरल मन से जियों; पर मन में बारूद भर के मत जियों।
45.
माना दुनियाँ बुरी है, सब जगह धोखा है; लेकिन हम तो अच्छे बनें, आदर्श रखें, हमें किसने रोका है?
46.
यदि हुल्लड़ को सांस्कृतिक जामा पहिना दिया जाए, तब पिटने वाला अपने आपको सांस्कृतिक कहने लगेगा।
47.
संसार के व्यवहारों के लिए धन ही सार वस्तु हैं| अत: मनुष्य को उसकी प्राप्ति के लिए सदाचार युक्त, युक्ति एवं साहस के साथ यत्न करना चाहिए।
48.
जहाँ मुर्ख नहीं पूजे जाते, जहाँ अनाज की सुरक्षा की जाती हैं और जहाँ परिवार में कलह नहीं होती, वहां लक्ष्मी निवास करती हैं।
49.
कभी भी ज्यादा से ज्यादा लोगों को खुश करने की कोशिश न करें, क्योकि जिन चीजों के बारे में आप जानते हैं, उनमे से कुछ लोग नहीं मानेंगे और जिन चीजों में वे लोग विश्वाश रखते होंगे, उसे आप पसंद नहीं करेंगे।
50.
नेकी के राही का; मंजिल भी सिर झुका कर स्वागत करती हैं।
51.
मनचाहा बोलते हो तो; अनचाहा सुनना भी पड़ेगा।
52.
अभी उतनी ही राह पर चल पड़िये, जितना दिख रहा हैं। वहाँ पहुचने पर आगे फिर दिखने लगेगा।
53.
सुन्दरता समय के साथ ढलने लगती है; लेकिन ज्ञान समय के साथ निखरने लगता है।

54.

जिन्हें सीढ़ी चढ़ना बोझ लगता है;  वे कभी ऊंचाई पर पहुच नहीं पाते।
55.
संयुक्त परिवार में एक सदस्य कादुःख-सुखसभी के चेहरे पर दिखाई पड़ने लगता हैं।
56.
सम्पदा को हासिल करने पर लोग बुद्धिमान और गंवाने पर मूर्ख कहलाते हैं।
57.
प्रलोभन किसी का भी हाल; कांटे में फंसी मछलियों जैसा कर देता है।

हाथी और छह अंधे व्यक्ति.


हाथी और छह अंधे व्यक्ति.

बहुत समय पहले की बात है, किसी गावं में 6 अंधे आदमी रहते थे। एक दिन गाँव वालों ने उन्हें बताया, अरे, आज गावँ में हाथी आया है। उन्होंने आज तक बस हाथियों के बारे में सुना था, पर कभी छू कर महसूस नहीं किया था। उन्होंने निश्चय किया, भले ही हम हाथी को देख नहीं सकते, पर आज हम सब चल कर, उसे महसूस तो कर सकते हैं ना? और फिर वो सब उस जगह की तरफ बढ़ चले, जहाँ हाथी आया हुआ था।

सभी ने हाथी को छूना शुरू किया।

मैं समझ गया, हाथी एक खम्भे की तरह होता है, पहले व्यक्ति ने हाथी का पैर छूते हुए कहा। अरे नहीं, हाथी तो रस्सी की तरह होता है, दूसरे व्यक्ति ने पूँछ पकड़ते हुए कहा। मैं बताता हूँ, ये तो पेड़ के तने की तरह है, तीसरे व्यक्ति ने सूंढ़ पकड़ते हुए कहा।

तुम लोग क्या बात कर रहे हो, हाथी एक बड़े हाथ के पंखे की तरह होता है, चौथे व्यक्ति ने कान छूते हुए सभी को समझाया। नहीं-नहीं, ये तो एक दीवार की तरह है, पांचवे व्यक्ति ने पेट पर हाथ रखते हुए कहा।

ऐसा नहीं है, हाथी तो एक कठोर नली की तरह होता है, छठे व्यक्ति ने अपनी बात रखी। और फिर सभी आपस में बहस करने लगे और खुद को सही साबित करने में लग गए। उनकी बहस तेज होती गयी और ऐसा लगने लगा, मानो वो आपस में लड़ ही पड़ेंगे।

तभी वहां से एक बुद्धिमान व्यक्ति गुजर रहा था। वह रुका और उनसे पूछा, क्या बात है, तुम सब आपस में झगड़ क्यों रहे हो? हम यह नहीं तय कर पा रहे हैं कि आखिर हाथी दीखता कैसा है, उन्होंने ने उत्तर दिया।

और फिर बारी बारी से उन्होंने अपनी बात, उस व्यक्ति को समझाई। बुद्धिमान व्यक्ति ने सभी की बात शांति से सुनी और बोला, तुम सब अपनी-अपनी जगह सही हो। तुम्हारे वर्णन में अंतर इसलिए है; क्योंकि तुम सबने हाथी के अलग-अलग भाग छुए हैं, पर देखा जाए तो तुम लोगो ने जो कुछ भी बताया वो सभी बाते हाथी के वर्णन के लिए सही बैठती हैं।

अच्छा!! ऐसा है। सभी ने एक साथ उत्तर दिया। उसके बाद कोई विवाद नहीं हुआ, और सभी खुश हो गए कि वो सभी सच कह रहे थे।

कई बार ऐसा होता है कि हम अपनी बात को लेकर अड़ जाते हैं कि हम ही सही हैं और बाकी सब गलत है। लेकिन यह संभव है कि हमें सिक्के का एक ही पहलु दिख रहा हो और उसके आलावा भी कुछ ऐसे तथ्य हों, जो सही हों। इसलिए हमें अपनी बात तो रखनी चाहिए पर दूसरों की बात भी सब्र से सुननी चाहिए, और कभी भी बेकार की बहस में नहीं पड़ना चाहिए। वेदों में भी कहा गया है कि एक सत्य को कई तरीके से बताया जा सकता है। तो, जब अगली बार आप ऐसी किसी बहस में पड़ें तो याद कर लीजियेगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके हाथ में सिर्फ पूँछ है और बाकी हिस्से किसी और के पास हैं।

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