मानव मात्र का कल्याण..भाग-1


परमात्म प्राप्ति बहुत सुगम है। इतना सुगम दूसरा कोई काम नहीं है। परन्तु केवल परमात्मा की ही चाहना रहे, साथ में दूसरी कोई चाहना न रहे। कारण कि परमात्मा के समान दूसरा कोई है ही नहीं। जैसे परमात्मा अनन्य हैं, ऐसे ही उनकी चाहना भी अनन्य होनी चाहिये। सांसारिक भोगों के प्राप्त होने में तीन बातें होनी जरुरी हैं—इच्छा, उद्योग और प्रारब्ध। पहले तो सांसारिक वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा होनी चाहिये, फिर उसकी प्राप्ति के लिये कर्म करना चाहिये। कर्म करने पर भी उसकी प्राप्ति तब होगी, जब उसके मिलने का प्रारब्ध होगा। अगर प्रारब्ध नहीं होगा तो इच्छा रखते हुए और उद्योग करते हुए भी वस्तु नहीं मिलेगी। इसलिये उद्योग तो करते हैं नफे के लिये, पर लग जाता है घाटा! परन्तु परमात्मा की प्राप्ति इच्छा मात्र से होती है। इसमें उद्योग और प्रारब्ध की जरूंरत नहीं है। परमात्मा के मार्ग में घाटा कभी होता ही नहीं, नफा-ही-नफा होता है।
एक परमात्मा के सिवाय कोई भी चीज इच्छा मात्र से नहीं मिलती। कारण यह है कि मनुष्य शरीर परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही मिला है। अपनी प्राप्ति का उद्देश्य रखकर ही भगवान्‌ ने हमारे को मनुष्य शरीर दिया है। दूसरी बात, परमात्मा सब जगह हैं। सुई की तीखी नोक टिक जाय, इतनी जगह भी भगवान्‌ से खाली नहीं है। अतः उनकी प्राप्ति में उद्योग और प्रारब्ध का काम नहीं है। कर्मों से वह चीज मिलती है, जो नाशवान् होती है। अविनाशी परमात्मा कर्मों से नहीं मिलते। उनकी प्राप्ति उत्कट इच्छा मात्र से होती है।
पुरुष हो या स्त्री हो, साधु हो या गृहस्थ हो, पढ़ा-लिखा हो या अपढ़ हो, बालक हो या जवान हो, कैसा ही क्यों न हो, वह इच्छा मात्र से परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। परमात्मा के सिवाय न जीने की चाहना हो, न मरने की चाहना हो, न भोगों की चाहना हो, न संग्रह की चाहना हो। वस्तुओं की चाहना न होने से वस्तुओं का अभाव नहीं हो जायगा। जो हमारे प्रारब्ध में लिखा है, वह हमारे को मिलेगा ही। जो चीज हमारे भाग्य में लिखी है, उसको दूसरा नहीं ले सकता—‘यदस्मदीयं न ही तत्परेषाम्’ । हमारे को आने वाला बुखार दूसरे को कैसे आयेगा? ऐसे ही हमारे प्रारब्ध में धन लिखा है तो जरुर आयेगा। परन्तु परमात्मा की प्राप्ति में प्रारब्ध नहीं है।
परमात्मा किसी मूल्य के बदले नहीं मिलते। मूल्य से वही वस्तु मिलती है, जो मूल्य से छोटी होती है। बाजार में किसी वस्तु के जितने रुपये लगते हैं, वह वस्तु उतने रुपयों की नहीं होती। हमारे पास ऐसी कोई वस्तु )क्रिया और पदार्थ( हैं ही नहीं, जिससे परमात्मा को प्राप्त किया जा सके। वह परमात्मा अद्वितीय है, सदैव है, समर्थ है, सब समय में है और सब जगह है। वह हमारा है और हमारे में है—‘सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः’ (गीता १५/१५(‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८/६१(। वह हमारे से दूर नहीं है। हम चौरासी लाख योनियो में चले जायँ तो भी भगवान् हमारे हृदय में रहेंगे। स्वर्ग या नरक में चले जायँ तो भी वे हमारे हृदय में रहेंगे। पशु-पक्षी या वृक्ष बन जायँ तो भी वे हमारे हृदय में रहेंगे। देवता बन जायँ तो भी वे हमारे हृदय में रहेंगे। तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त बन जायँ तो भी वे हमारे हृदय में रहेंगे। दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापी, अन्यायी-से-अन्यायी बन जायँ तो भी भगवान् हमारे हृदय में रहेंगे। ऐसे सबके हृदय में रहने वाले भगवान्‌ की प्राप्ति क्या कठीन होगी? पर जीने की इच्छा, मान की इच्छा, बड़ाई की इच्छा, सुख की इच्छा, भोग की इच्छा आदि दूसरी इच्छाएँ साथ में रहते हुए भगवान् नहीं मिलते। कारण कि भगवान्‌ के समान तो भगवान् ही हैं। उनके समान दूसरा कोई था ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं, फिर वे कैसे मिलेंगे? केवल भगवान्‌ की चाहना होने से ही वे मिलेंगे। अविनाशी भगवान्‌ के सामने नाशवान्‌ की क्या कीमत है? क्या नाशवान् क्रिया और पदार्थ के द्वारा वे मिल सकते हैं? नहीं मिल सकते। जब साधक भगवान्‌ से मिले बिना नहीं रह सकता, तब भगवान् भी उससे मिले बिना नहीं रहते; क्योंकि भगवान्‌ का स्वभाव हैं—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४/११(‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ।’
मान लें कि कोई मच्छर गरुड़जी से मिलना चाहे और गरुड़जी भी उससे मिलना चाहें तो पहले मच्छर गरुड़जी के पास पहुँचेगा या गरुड़जी मच्छर के पास पहुँचेंगे? गरुड़जी से मिलने में मच्छर की ताकत काम नहीं करेगी। इसमें तो गरुड़जी की ताकत ही काम करेगी। इसी तरह परमात्म-प्राप्ति की इच्छा हो तो परमात्मा की ताकत ही काम करेगी। इसमें हमारी ताकत, हमारे कर्म, हमारा प्रारब्ध काम नहीं करेगा, प्रत्युत हमारी चाहना ही काम करेगी। हमारी चाहना के सिवाय और किसी चीज की आवश्यकता नहीं है।
हम तो भगवान्‌ के पास नहीं पहुँच सकते तो क्या भगवान्‌ भी हमारे पास नहीं पहुँच सकते? हम कितना ही जोर लगायें, पर भगवान्‌ के पास नहीं पहुँच सकते। परन्तु भगवान्‌ तो हमारे हृदय में ही विराजमान हैं। द्रौपदी ने भगवान्‌ को ‘गोविन्द द्वारकावासिन्’ कहकर पुकारा तो भगवान्‌ को द्वार का जाकर आना पड़ा। वह यहाँ कहती तो वे चट यहीं प्रकट हो जाते| अगर हम ऐसा मानते हैं कि भगवान्‌ अभी नहीं मिलेंगे तो वे नहीं मिलेंगे; क्योंकि हमने आड़ लगा दी।
गोरखपुर की एक घटना है। संवत् २००० से पहले की बात है। मैं गोरखपुर में व्याख्यान देता था। वहाँ सेवारामजी नाम के एक सज्जन थे, जो बैंक में काम करते थे। एक दिन मैंने व्यख्यान में कह दिया कि अगर आपका दृढ़ विचार हो जाय कि भगवान्‌ आज मिलेंगे तो वे आज ही मिल जायँगे| उन सज्जन को यह बात लग गयी। उन्होंने विचार कर लिया कि हमें तो आज ही भगवान्‌ से मिलना है। वे पुष्पमाला, चन्दन आदि ले आये कि भगवान्‌ आयेंगे तो उनको माला पहनाऊँगा, चन्दन चढाऊँगा| वे कमरा बन्द करके भगवान्‌ के आने की प्रतीक्षा में बैठ गये। समय पर भगवान्‌ के आने की सम्भावना भी हो गयी और सुगन्ध भी आने लगी, पर भगवान्‌ प्रकट नहीं हुए। दूसरे दिन उन्होंने मेरे से कहा कि आज आप मेरे घर से भिक्षा लें। मैं कई घरों से भिक्षा लेकर पाता था। उस दिन उनके घर गया तो उन्होंने मेरे से पूछा कि भगवान्‌ मिलने वाले थे, सुगन्ध भी आ गयी थी, फिर बाधा क्या लगी कि वे मिले नहीं ? मैंने कहा कि भाई! मेरे को इसका क्या पत ? परन्तु मैं तुम्हारे से पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे मन में यह बात आती थी कि इतनी जल्दी भगवान्‌ कैसे मिलेंगे? वे बोले कि यह बात तो आती थी| मैंने कहा कि इसी बात ने अटकाया! अगर मनमें यह बात होती कि भगवान्‌ मेरेको अवश्य मिलेंगे, उनको मिलना ही पड़ेगा तो वे जरूर मिलते। भगवान्‌ ऐसे कैसे जल्दी मिलेंगे—ऐसा भाव करके तुमने ही बाधा लगायी है।
अगर आप विचार कर लें कि भगवान्‌ आज मिलेंगे तो वे आज ही मिल जायँगे| परन्तु मन में यह छाया नहीं आनी चाहिये कि इतनी जल्दी कैसे मिलेंगे? भगवान्‌ आपके कर्मों से अटकते नहीं। अगर आपके दुष्कर्म से, पाप-कर्म से भगवान्‌ अटक जायँ तो वे मिलकर भी क्या निहाल करेंगे? परन्तु भगवान्‌ किसी कर्म से अटकते नहीं। ऐसी कोई शक्ति है ही नहीं, जो भगवान्‌ को मिलने से रोक दे। वे न तो पाप-कर्मों से अटकते हैं, न पुण्य-कर्मों से अटकते हैं। वे सबके लिये सुलभ हैं। अगर भगवान्‌ हमारे पापों से अटक जायँ तो हमारे पाप भगवान्‌ से प्रबल हुए| अगर पाप प्रबल बलवान हैं तो भगवान् मिलकर भी क्या निहाल करेंगे? जो पापों से अटक जाय, उसके मिलने से क्या लाभ? परन्तु भगवान्‌ इतने निर्बल नहीं हैं, जो पापों से अटक जायँ। उनके समान बलवान् कोई है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता ही नहीं। आपकी जोरदार इच्छा हो जाय तो आप कैसे ही हों, भगवान्‌ तो मिलेंगे, मिलेंगे, मिलेंगे! उनको मिलना पड़ेगा, इसमें सन्देह नहीं है। परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही तो मानव-जन्म मिला है, नहीं तो पशु में और मनुष्य में क्या फर्क हुआ?
खादते मोदते नित्यं शुनकः शूकरः खरः । 
तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी ॥
सूकर कूकर ऊँट खर, बड़ पशुअन में चार । 
तुलसी हरि की भगति बिनु, ऐसे ही नर नार ॥

देवता भोगयोनि है। वे भी चाहते हैं कि भगवान्‌ हमारे को मिलें—‘देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः’ (गीता ११/५२) । वे भगवान्‌ को चाहते तो हैं, पर भोगों की इच्छा को नहीं छोडते। यही दशा मनुष्यों की है। अगर आप हृदय से भगवान्‌ को चाहो तो उनको मिलना ही पड़ेगा, इसमें सन्देह नहीं है। पर आप ही बाधा लगा दो कि भगवान्‌ नहीं मिलेंगे, तो फिर वे नहीं मिलेंगे! गीतामें साफ लिखा है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति । कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ (९/३०-३१)

‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।’

‘वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन! मेरे भक्त का पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।’

तात्पर्य है कि दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी यदि ‘अनन्यभाक्’ हो जाय अर्थात् भगवान्‌ के सिवाय कोई चाहना न रखे तो उसको भी साधु मान लेना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय पक्‍का कर लिया है कि भगवान्‌ जरूर मिलेंगे।

आप केवल भगवान्‌ की ही इच्छा करो और कोई इच्छा मत करो। न जीने की इच्छा करो, न मरने की इच्छा करो। न मान की इच्छा करो, न बड़ाई की इच्छा करो। न भोगों की इच्छा करो, न रुपयों की इच्छा करो। केवल एक भगवान्‌ की इच्छा करो तो वे मिल जायँगे। कम-से-कम मेरी बात की परीक्षा तो करके देखो! भगवान्‌ आपको मिलते नहीं; क्योंकि आप उनको चाहते नहीं। आपके भीतर रुपयों की चाहना हो तो भगवान्‌ बीच में कूद-कर क्यों पड़ेंगे? संसार में सबसे रद्दी वस्तु रुपया है। रुपयों से रद्दी चीज दूसरी कोई है ही नहीं। ऐसी रद्दी चीज में आपका मन अटका हुआ हो तो भगवान्‌ कैसे मिलेंगे? रुपये देकर आप भोजन, वस्त्र, सवारी आदि खरीद सकते हो, पर रुपया खुद न तो खाने के काम आता है, न पहनने के काम आता है, न सवारी के काम आता है। तात्पर्य है कि रुपये काम नहीं आते, प्रत्युत उनका खर्च काम आता है।

परमात्मा इच्छा-मात्र से मिलते हैं। उनको रोकने की ताकत किसी में भी नहीं है। छोटा बालक रोता है तो माँ आ ही जाती है। बालक घर का कुछ काम नहीं करता, उल्टे काम करने में आपको बाधा लगाता है, पर जब वह रोने लगता है, तब सब घर वाले उसके पक्ष में हो जाते हैं। सास-ससुर, देवर-जेठ सभी कहते हैं कि बहू ! बालक रो रहा है, उसको उठा ले। माँ को सब काम छोड़कर बालक को उठाना पडता है। बालक का एक मात्र बल रोना ही है—‘बालानां रोदनं बलम्’। रोने में बड़ी ताकत है। आप सच्‍चे हृदय से व्याकुल होकर भगवान्‌ के लिये रोने लग जाओ तो जितने भगवान्‌ के भक्त हुए हैं, सन्त-महात्मा हुए हैं, वे सब-के-सब आपके पक्ष में हो जायँगे और भगवान्‌ को उलाहना देंगे कि आप मिलते क्यों नहीं? वे ही भगवान्‌ के सास-ससुर आदि हैं!


क्रमश:..

—‘मानव मात्र के कल्याण के लिये’ पुस्तक से 

गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित.

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