एक नयी बात ..भाग-1



एक नयी बात ..भाग-1

जिससे क्रिया की सिद्धि होती है, जो क्रिया को उत्पन्न करने वाला है,  उसको कारक कहते हैं। कारकों में कर्ता मुख्य होता है;  क्योंकि सब क्रियाएँ कर्ता के अधीन होती हैं। अन्य कारक तो क्रिया की सिद्धि में सहायक मात्र होते हैं,  पर कर्ता स्वतन्त्र होता है। कर्ता में चेतन का आभास होता है;  परन्तु वास्तव में चेतन कर्ता नहीं होता। इसलिये गीता में जहाँ भगवान्‌ ने कर्ममात्र की सिद्धि में अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैवये पाँच हेतु बताये हैं, वहाँ शुद्ध आत्मा(चेतन) को कर्ता मानने वाले की निन्दा की है

तत्रैवं सति  कर्तारमात्मानं  केवलं  तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥   (१८/१६)


ऐसे पाँच हेतुओं के होने पर भी जो कर्मों के विषय में केवल (शुद्ध) आत्मा को कर्ता देखता है, वह दुष्ट बुद्धि वाला ठीक नहीं देखता;  क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है अर्थात्‌ उसने विवेक को महत्त्व नहीं दिया है।

गीता में भगवान्‌ ने कहीं प्रकृति को,  कहीं गुणों को और कहीं इन्द्रियों को कर्ता बताया है। प्रकृति का कार्य गुण हैं और गुणों का कार्य इन्द्रियाँ हैं। अतः वास्तव में कर्तृत्व प्रकृति में ही है। हमारे चेतन स्वरूप में कर्तृत्व नहीं है। भगवान्‌ ने कहा है

       प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
       यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ (१३/२९)
       प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
       अहङ्कारविमूढात्मा  कर्ताहमिति मन्यते ॥   (३/२७)
       तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः ।
       गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥     (३/२८)
       नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं    यदा द्रष्टानुपश्यति ।
       गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥(१४/१९)
       इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥     (५/९)

भगवान्‌ ने अपने में भी कर्तृत्व-भोक्तृत्व का निषेध किया है;  जैसे

चातुर्वर्ण्यं    मया   सृष्टं    गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां    विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति   कर्मभिर्न स बध्यते ॥     (गीता ४/१३-१४)

मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभाग पूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस (सृष्टि-रचना आदि) का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है,  इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ।
उदासीनवदासीनमसक्तं      तेषु     कर्मसु ॥   (गीता ९/९)


हे धनजंय! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मों में अनासक्त और उदासीन की तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते।


अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः    
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥   (गीता १३/३१)

हे कुन्तीनन्दन! यह पुरुष स्वयं अनादी होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।

दो विभाग हैं जड़ और चेतन। जड़-विभाग नाशवान्‌ है और चेतन-विभाग अविनाशी है। गीता में भगवान्‌ ने जड़-विभाग को प्रकृति, क्षेत्र, क्षर, आदि नामों से कहा है और चेतन-विभाग को पुरुष, क्षेत्रज्ञ, अक्षर आदि नामों से कहा है। ये दोनों विभाग अन्धकार और प्रकाश की तरह परस्पर सर्वथा असम्बद्ध हैं। जड़-विभाग असत्‌ है, जिसकी सत्ता ही विद्यमान नहीं है और चेतन-विभाग सत्‌ है, जिसकी सत्ता विद्यमान है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६)। सम्पूर्ण क्रियाएँ जड़-विभाग में ही होती हैं। चेतन-विभाग में कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती। स्थूल शरीर तथा उससे होने वाली क्रियाएँ,  सूक्ष्म शरीर तथा उससे होने वाला चिन्तन और कारण शरीर तथा उससे होने वाली स्थिरता और समाधिये सभी जड़-विभाग में ही हैं। कामना, ममता, अहंता आदि सम्पूर्ण विकार जड़-विभाग में ही हैं। सम्पूर्ण पाप-ताप भी जड़-विभाग में है। पराश्रय तथा परिश्रमये दोनों जड़-विभाग में हैं और भगवदाश्रय तथा विश्राम (अपने लिये कुछ न करना), ये दोनों चेतन-विभाग में हैं। जड़ और चेतन के विभाग को अलग-अलग जानना ही ज्ञान है‒‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा’ (गीता १३/३४)। इस ज्ञानरूपी अग्नि से सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं

अपि चेदसि पापेभ्यः   सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव    वृजिनं   सन्तरिष्यसि ॥
यथैधांसि   समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ (गीता ४/३६-३७)
                                         

तात्पर्य है कि चेतन-विभाग में अपनी स्वतःस्वाभाविक स्थिति का अनुभव करते ही साधक सम्पूर्ण विकारों तथा पापों से छूट जाता है और जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है। कारण कि जड़-विभाग के साथ अपना सम्बन्ध मानना ही जन्म-मरण का मूल कारण है कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (१३/२१)।

यहाँ एक शंका हो सकती है कि चेतन के बिना केवल जड़ में पाप-पुण्यआदि होना कैसे सम्भव है? इसका समाधान है कि जैसे एकगाड़ी की टक्कर से कोई मनुष्य मर जाय तो उसका दण्ड गाड़ी को न होकर उसके चालक कोहोता है। दुर्घटना-रूप क्रिया तो गाड़ी के द्वारा ही हुई, परउसका दण्ड उसको भोगना पड़ता है, जिसने उस गाड़ी से अपनासम्बन्ध जोड़ा अर्थात्‌ जो उस गाड़ी का चालक (कर्ता) बना। जो कर्ता होता है, वहीभोक्ता होता है। ऐसे ही पाप-पुण्य रूप क्रिया तो जड़ (शरीर)-के द्वारा ही होती है, परउसका फल जड़ के साथ अपना सम्बन्ध मानने वाले कर्ता (चेतन)-को ही भोगना पड़ता है।तात्पर्य है कि सभी विकार जड़-विभाग में ही होते हैं, परजड़ से तादात्म्य मानने के कारण उसका परिणाम चेतन पर होता है। जैसे ज्वर शरीर मेंआता है, पर शरीर से तादात्म्य करने के कारण मनुष्य मान लेता है किमेरे में ज्वर आ गया। स्वयं(चेतन) में ज्वर नहीं आता, यदिआता तो कभी मिटता नहीं। जड़-विभाग के साथ अर्थात्‌ अपरा प्रकृति के अंश अहम्‌ केसाथ अपना सम्बन्ध (तादात्म्य) मान लेने के कारण ही अज्ञानी मनुष्य अपने को कर्तातथा भोक्ता मान लेता है‒‘अहङ्कारविमूढात्माकर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३/२७), ‘पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता१३/२१) । तात्पर्य है कि स्वयं (चेतन स्वरूप) में कर्तापन तथा भोक्तापन बनता नहींहै,प्रत्युत वह अविवेक पूर्वक अपने को कर्ता-भोक्ता मान लेताहै। सुख-लोलुपता अथवा फलेच्छा के कारण वह अपने को कर्ता मानता है और अपने को कर्तामानने के कारण उसको कर्म फल का भोक्ता बनना पड़ता है। कारण कि अपने को कर्ता मानलेने से वह प्रकृति की जिस क्रिया के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, वहक्रिया उसके लिये फल जनक ‘कर्म’ बन जाती है।

स्वयं में लेश-मात्र  भी कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है‒‘नैव किंचित्करोति सः’ (गीता ४/२०), नैव किंचित्करोमीति’ (गीता ५/८) । आज तक चौरासी लाख योनियों में जो भी क्रियाएँ की गयी हैं, उनमें से कोई भी क्रिया स्वयं तक नहीं पहुँची; क्योंकि स्वयं का विभाग ही अलग है और क्रिया का विभाग ही अलग है। जब तक अपने लिये करनाहै, तब तक कर्तापन (अहंकार) है; क्योंकि कर्तापन के बिना अपने लिये करनासिद्ध नहीं होता। इसलिये अपने उद्धार के लिये जो साधन किया जाता है, उससे अहंकार ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रहता है। अहंकार पूर्वक किया गया कोई भी कर्म कल्याण कारक नहीं होता; क्योंकि अहंकार ही जन्म-मरण का मूल है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह क्रिया को महत्त्व न देकर स्वयं को महत्त्व दे।

शरीर का सम्बन्ध संसार के साथ है और स्वयं का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। शरीर प्रकृति का अंश है और स्वयं परमात्मा का अंश है। अतः स्वयं कभी शरीरस्थ (शरीरमें स्थित) हो सकता ही नहीं। परन्तु अज्ञान के कारण मनुष्य अपने को शरीरस्थ मान लेता है। इसमें एक मार्मिक बात है कि अपने को शरीरस्थ मान लेने पर भी वास्तव में स्वयं कर्ता-भोक्ता नहीं बनता‒‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१)। इससे सिद्ध होता है कि स्वयं का कर्ता-भोक्ता न होना साधन जन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक है। अतः साधक को कर्तृत्व-भोक्तृत्व मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपने में स्वीकार नहीं करना है; क्योंकि वास्तव में ये अपने में हैं ही नहीं। गीता में भगवान्‌ ने आत्मा में भोक्तृत्व के अभाव को आकाश का दृष्टान्त देकर और कर्तृत्व के अभाव को सूर्य का दृष्टान्त देकर समझाया है

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥
                                            (गीता १३/३२)

जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यंत सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होता।
=शेष दुसरे भाग में=

 ‒‘एक नयी बातपुस्तक से
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित.

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