भगवत्प्राप्ति के लिये भविष्य की अपेक्षा नहीं. भाग-1



भगवत्प्राप्ति के लिये भविष्य की अपेक्षा नहीं.  भाग-1

एक बहुत ही मार्मिक बात है, जिसकी तरफ साधकों का ध्यान बहुत कम है। यदि उस पर विशेष ध्यान दिया जाय तो जल्दी-से-जल्दी बहुत बड़ा लाभ हो सकता है।

साधकों के भीतर एक गलत धारणा दृढ़ता से जमी हुई है कि जैसे संसार का कोई काम करते-करते होता है, तत्काल नहीं होता,  वैसे ही अर्थात् उसी रीति से भगवान्‌ की प्राप्ति भी साधन करते-करते होती है, तत्काल नहीं होती। ऐसी धारणा ही भगवत्प्राप्ति में देर कर रही है। जैसे, यदि बालक माँ के पीछे पड़ जाय कि मुझे तो अभी ही लड्‌डू दे तो लड्‌डू बना हुआ नहीं होने पर माँ उसे तत्काल कैसे बनाकर दे देगी?  यद्यपि माँ का अपने बालक पर बड़ा स्नेह, बड़ा प्यार है;  क्योंकि उसके लिये अपने बालक से बढ़कर और कौन है? परन्तु फिर भी लड्‌डू बनाने में समय तो लगेगा ही। ऐसे ही किसी स्थान पर जाना हो,  किसी वस्तु का सुधार करना हो, किसी वस्तु को बदलना होइन सब में समय की अपेक्षा है। तात्पर्य यह है कि सांसारिक वस्तु को प्राप्त करने में तो समय लगता है,  पर भगवान को प्राप्त करने में समय नहीं लगतायह एक बहुत मार्मिक बात है।

हम सब-के-सब परमात्म रूप कल्पवृक्ष की छाया में रहते हैं। इस कल्पवृक्ष की छाया में रहते हुए यदि हम ऐसा भाव रखते हैं कि बहुत साधन करने पर भविष्य में कभी भगवत्प्राप्ति होगी,  तो अपनी धारणा के अनुसार भगवान् भविष्य में ही कभी मिलेंगे। यदि हम ऐसा भाव बना लें कि भगवान् तो अभी मिलेंगे, तो वे अभी ही मिल जायँगे। भगवान्‌ने स्वयं कहा है

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । (गीता ४ । ११)
                                                

जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ।

अतएव भगवान्‌ की प्राप्ति में भविष्य नहीं है। हम लोगों की भावना में ही भविष्य है।

इस विषय में एक बात विशेष महत्त्व की है कि संसार के जितने भी काम हैं, सब-के-सब बनने और बिगड़ने वाले हैं। बनने वाले काम में देर लगती है,  परन्तु बने-बनाये (विद्यमान) काम में देर कैसे लग सकती है? परमात्मा भी विद्यमान हैं और हम भी विद्यमान हैं। उनके और हमारे बीच देश-काल आदि का कोई भी व्यवधान नहीं है;  फिर परमात्मा की प्राप्ति में देर क्यों लगनी चाहिये?


भगवान् सब समय में सब देश (स्थान)-में, सब वस्तुओं में तथा सब प्राणियों में विद्यमान हैं। समय, देश, वस्तु, प्राणी आदि सब-के-सब बदलने वाले हैं, अर्थात् निरन्तर नहीं रहते। इसके विपरीत हम (स्वयं) भी निरन्तर रहने वाले हैं और भगवान् भी। ऐसे भगवान्‌ को प्राप्त करने के लिये हमने ऐसी धारणा बना ली है कि जब संसार का कोई साधारण काम भी शीघ्र नहीं होता, तब जो सबसे महान् हैं, उन भगवान्‌ की प्राप्ति का कार्य शीघ्र कैसे हो जायगा? परन्तु वास्तव में सबसे ऊँची वस्तु सबसे सहज-सुलभ भी होती है। भगवान् सबके लिये हैं और सबको प्राप्त हो सकते हैं। स्वयं हमने ही भगवान्‌ की प्राप्ति में आड़ लगा रखी है कि वे वैरागी-त्यागी पुरुषों को मिलते हैं,  हम गृहस्थियों को कैसे मिलेंगे? वे जंगल में रहने वालों को मिलते हैं,  हम शहर में रहने वालों को कैसे मिलेंगे?  कोई अच्छे गुरु नहीं मिलेंगे तो भगवान् कैसे मिलेंगे?  कोई बढ़िया साधन नहीं करेंगे तो भगवान् कैसे मिलेंगे?  आजकल भगवत्प्राप्ति का मार्ग बतलाने वाले कोई अच्छे महात्मा भी नहीं रहे तो हमें भगवान् कैसे मिलेंगे?  हमारे भाग्य में ही नहीं है तो भगवान् कैसे मिलेंगे?  हम तो अधिकारी ही नहीं हैं तो भगवान् हमें कैसे मिलेंगे?  हमारे कर्म ही ऐसे नहीं है तो भगवान् हमें कैसे मिलेंगे? इस प्रकार न जाने कितनी आड़े हमने स्वयं ही लगा रखी हैं। भगवान्‌ को हमने इन आड़ों के, पहाड़ों के ही नीचे दबा दिया है! ऐसी स्थिति में बेचारे भगवान् क्या करें? हमें कैसे मिलें?

पार्वती ने तप करने से शिवजी मिलेंगे, ऐसा भाव रखकर स्वयं ही शिवजी की प्राप्ति में आड़ लगा दी थी,  इसी कारण उन्हें तप करना पड़ा। तपस्या का भाव भीतर रहने के कारण तप करने से ही शिवजी मिले। इसी प्रकार भाव के कारण ही ध्रुव को छः मास के तप के बाद भगवान् मिले। भगवान्‌ के मिलने में वस्तुतः कोई देर नहीं लगी। जिस समय ऐसा भाव हुआ कि अब मैं भगवान्‌ के बिना रह नहीं सकता, उसी समय भगवान् मिल गये।

‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहींपुस्तक से’
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित.

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