एक नयी बात ..भाग-2 (अंतिम)



एक नयी बात ..भाग-2

चिन्मय सत्ता शरीरस्थ अथवा प्रकृतिस्थ हो ही नहीं सकती। वह आकाश की तरह सर्वत्र स्थित (सर्वगत) है नित्यः सर्वगतः’ (गीता २/२४) । वह सम्पूर्ण शरीरों के बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है। वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है।

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं   प्रकाशयति भारत ॥   ..(गीता १३/३३)

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्रों को प्रकाशित करता है।

सूर्य के प्रकाश में सम्पूर्ण शुभ-अशुभ क्रियाएँ होती हैं। सूर्य के प्रकाश में कोई वेद का पाठ करता है, कोई शिकार करता है। परन्तु सूर्य को उन क्रियाओं का न तो पुण्य लगता है, न पाप। कारण कि सूर्य उन क्रियाओं का न तो कर्ता बनता है, न भोक्ता ही बनता है। इसी तरह आत्मा (सर्वव्यापी सत्ता) सम्पूर्ण शरीरों को सत्ता-स्फूर्ति देता है, पर वास्तव में वह न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है। इसलिये भगवान्‌ कहते हैं

यस्य नाहंकृतो भावो   बुद्धिर्यस्य  न लिप्यते ।
हत्वाऽपि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥..(गीता १८/१७)
                                                 
जिसका अहंकृतभाव (मैं कर्ता हूँऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती,  वह (युद्ध में) इन सम्पूर्ण प्राणियों को मारकर भी न मारता है और न बँधता है।

जैसे गंगाजी में कोई डूबकर मर जाता है तो गंगाजी को पाप नहीं लगता और कोई स्नान आदि करता है तो गंगाजी को पुण्य नहीं लगता। कारण कि गंगाजी में अहंकृत भाव (कर्तृत्व) और बुद्धि की लिप्तता (भोक्तृत्व) नहीं है।

कर्तृत्व-भोक्तृत्व प्रकृति में ही है, स्वरूप में नहीं। इसलिये अपने स्वरूप में स्थित तत्त्वज्ञ महापुरुषमैं कुछ भी नहीं करता हूँ ऐसा अनुभव करता हैनैव किञ्चित्-करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् (गीता ५/८) । खाने-पीने, सोने-जगने, नौकरी-धन्धा करने आदि सम्पूर्ण लौकिक क्रियाएँ और श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि सम्पूर्ण पारमार्थिक क्रियाएँ प्रकृति में ही हो रही हैं। स्वरूप में कोई भी क्रिया सम्भव नहीं है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह शास्त्रविहित लौकिक तथा पारमार्थिक क्रियाओं का बाहर से त्याग तो न करे, पर उनमें अपना कर्तृत्व न माने अर्थात्‌ उनको अपने द्वारा होने वाली और अपने लिये न माने। क्रिया का महत्त्व वास्तव में जड़ता का ही महत्त्व है। क्रिया की मुख्यता होने पर वर्षों तक साधन करने पर भी प्रत्यक्ष लाभ नहीं दीखता। इसलिये साधक के अन्तःकरण में क्रिया का महत्त्व न होकर चेतन-विभाग का ही महत्त्व होना चाहिये। साधक शरीर नहीं होता, जबकि क्रिया शरी रके द्वारा ही होती है। साधक का स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और सत्तामात्र में कोई क्रिया नहीं होती। क्रिया और पदार्थ संसार का स्वरूप है।

कर्तृत्व-भोक्तृत्व अपने में नहीं हैं, प्रत्युत अज्ञान के कारण अपने में माने हुए हैं। अपने में मानने पर भी वास्तव में हम कर्तृत्व-भोक्तृत्व से रहित ही हैंशरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते। तात्पर्य है कि शरीर में अपनी स्थिति मानने पर भी वास्तव में हम शरीर से असंग हैं। अपने में बन्धन की मान्यता करने पर भी वास्तव में हम मुक्त ही हैं। इस सत्य को स्वीकार करना साधक के लिये बहुत ही आवश्यक है।

कर्तृत्व-भोक्तृत्व प्रकृति में ही है, स्वरूप में नहीं। इसलिये अपने स्वरूप में स्थित तत्त्वज्ञ महापुरुष मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’‒ऐसा अनुभव करता हैनैव किञ्चित्-करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् (गीता ५/८) । खाने-पीने, सोने-जगने, नौकरी-धन्धा करने आदि सम्पूर्ण लौकिक क्रियाएँ और श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि सम्पूर्ण पारमार्थिक क्रियाएँ प्रकृति में ही हो रही हैं। स्वरूप में कोई भी क्रिया सम्भव नहीं है। इसलिये साधक को चाहिये कि वह शास्त्रविहित लौकिक तथा पारमार्थिक क्रियाओं का बाहर से त्याग तो न करे, पर उनमें अपना कर्तृत्व न माने अर्थात्‌ उनको अपने द्वारा होने वाली और अपने लिये न माने। क्रिया का महत्त्व वास्तव में जड़ता का ही महत्त्व है। क्रिया की मुख्यता होने पर वर्षों तक साधन करने पर भी प्रत्यक्ष लाभ नहीं दीखता। इसलिये साधक के अन्तःकरण में क्रिया का महत्त्व न होकर चेतन-विभाग का ही महत्त्व होना चाहिये। साधक शरीर नहीं होता, जबकि क्रिया शरीर के द्वारा ही होती है। साधक का स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और सत्तामात्र में कोई क्रिया नहीं होती। क्रिया और पदार्थ संसार का स्वरूप है।

कर्तृत्व-भोक्तृत्व अपने में नहीं हैं,  प्रत्युत अज्ञान के कारण अपने में माने हुए हैं। अपने में मानने पर भी वास्तव में हम कर्तृत्व-भोक्तृत्व से रहित ही हैं शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते तात्पर्य है कि शरीर में अपनी स्थिति मानने पर भी वास्तव में हम शरीर से असंग हैं। अपने में बन्धन की मान्यता करने पर भी वास्तव में हम मुक्त ही हैं। इस सत्य को स्वीकार करना साधक के लिये बहुत ही आवश्यक है।

  ‘एक नयी बातपुस्तक से
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित.

कोई टिप्पणी नहीं: