* ईश्वर
ज्ञान के सामान
कोई ज्ञान नहीं।
* ईश्वर
प्रभाव के सामान कोई प्रभाव नहीं।
* ईश्वर
दर्शन के सामान कोई दर्शन नहीं।
* महापुरुषों
के आचरण से बढ़कर कोई अनुकरणीय आचरण नहीं।
*
भगवद्भाव से बढ़कर
कोई भाव नहीं।
* समता
से बढ़कर कोई न्याय नहीं।
* सत्य
के सामान कोई तप नहीं।
*
परमात्मा की प्राप्ति के सामन कोई लाभ नहीं ।
* सत्संग
के समान कोई मित्र नहीं ।
* कुसंग
के समान कोई शत्रु नहीं।
दया के समान कोई धर्म नहीं, हिंसा के समान कोई पाप नहीं,
ब्रह्मचर्य
के समान कोई व्रत नहीं, ध्यान के समान कोई साधन नहीं,
शान्ति के समान कोई सुख नहीं, ऋण के समान कोई दुःख नहीं,
ज्ञान के समान कोई पवित्र नहीं, ईश्वर के समान कोई इष्ट नहीं,
पापी के समान कोई दुष्ट नहीं|
ये एक-एक अपने -अपने स्थान पर अपने-अपने विषयमें सबसे बढ़कर प्रधान हैं।
** कामी की साख नहीं होती, लोभी की
मर्यादा नहीं होती, क्रोधी के कोई साथ नहीं होता, अज्ञानी का
कोई ठिकाना नहीं होता,भक्त को कष्ट की अनुभूति नहीं होती,
नास्तिक को धर्म का सहारा नहीं मिलता, ग्यानी
को किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती|
* गंगा के सामान कोई तीर्थ नहीं, गौ के सामान कोई सेव्य नहीं , गीता के सामान कोई शास्त्र नहीं, गायत्री के सामान
कोई मंत्र नहीं एवं गोविन्द के सामान कोई देव नहीं।
* गंगा-स्नान, गौ की सेवा, अर्थ सहित गीता का अभ्यास, गायत्री का जप और गोविन्द का ध्यान — इनमें से किसी एक का भी निष्काम भाव और श्रद्धा- भक्ति पूर्वक सेवन करने से कल्याण हो सकता है।
* जिसने सत्य,अहिंसा,क्षमा,दया,समता,शान्ति,संतोष,सरलता,तितिक्षा, त्याग आदि शस्त्र धारण कर रखें हैं , उसका कोई भी शत्रु किंचिन्मात्र भी अनिष्ट नहीं कर सकताI
* आचरणोंके सुधार की जड़ स्वार्थका त्याग है।
* झूठसे बचने के लिये जहाँ तक हो, भविष्य के लिए निश्चित वचन नहीं कहने चाहिये।
* भगवान् की प्राप्ति के सिवा मन में किसी भी प्रकार की इच्छा
नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि कोई भी इच्छा रहेगी तो
उसके लिये पुनर्जन्म धारण करना पड़ेगा । इसलिये इच्छा, वासना,
कामना , तृष्णा आदि का त्याग कर देना चाहिये।
* बार बार मन से
पूछे कि “ बतला, तेरी
क्या इच्छा है?” और मनसे यह उत्तर मिले कि “कुछ भी इच्छा नहीं है।“ इस प्रकार के अभ्यास से
इच्छा का नाश होता है। यह निश्चित बात है।
* महात्मा के हृदय में किसी भी प्रकार की इच्छा रहती ही नहीं , हमें भी उसी प्रकार का बनना चाहिये।
संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका
संकल्प हो सकता है । संकल्प होने पर जन्म लेना पड़ता है।
सत्ता और आसक्ति को लेकर जो स्फुरणा होती है, उसी का नाम संकल्प है।
महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि उनके हृदय में किसी प्रकार का भी
किंचिन्मात्र संकल्प रहता ही नहीं । प्रारब्ध के अनुसार केवल स्फुरणा होती है , जो कि सत्ता और आसक्ति का अभाव होने के
कारण जन्म देने वाली नही है तथा कार्य की सिद्धि या असिद्धि में उनके
हर्ष-शोकादि कोई भी विकार लेशमात्र भी नहीं होते। यही संकल्प और स्फुरणा का भेद
है।
आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा
प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है।
निन्दा-स्तुति सुनकर जरा भी हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि विकार नहीं होने चाहिये ।
कल्याण-कामी पुरुष को उचित है कि मान और किर्ति को कलंक के
सामान समझे।
हर समय संसार और शरीर को काल के मुख में देखे।
मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते
हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के
लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती।
जीवन्मुक्त,
ज्ञानी महात्माओं की दृष्टि में संसार स्वप्नवत है ।इसलिये वे
संसार में रहकर भी संसार के भोगों में लिप्त नहीं होते।
—श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तक से, गीताप्रेस
गोरखपुर
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