श्रद्धालु मनुष्य के लिये तो महात्मा का प्रभाव माने जितना
ही थोडा है; क्योंकि महात्मा का प्रभाव अपरिमेय है।
महापुरुषों के प्रभाव से भगवान् की प्राप्ति होना - यह
तो उनका अलौकिक प्रभाव है तथा सांसारिक कार्य की सिद्धि होना -लौकिक
प्रभाव है ।
महापुरुषों की चेष्टा उनके तथा लोगों के प्रारब्ध से होती है
एवं लोगों के श्रद्धा-प्रेम तथा ईश्वराज्ञा से भी होती हैं ।
सर्वस्व जाय तो भी कभी किसी निमित्त से कहीं किन्चिन्मात्र
भी पाप न करे, न करवावे और न उसमे सहमत ही हो ।
ईश्वर भक्ति और धर्म को कभी छोड़े ही नहीं,प्राण
भले ही चले जायँ ।
धैर्य,क्षमा,मनोनिग्रह,अस्तेय, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, सात्त्विकबुद्धि,
अध्यात्मविद्या,
सत्यभाषण, और क्रोध न करना—
ये दस सामान्य धर्मके लक्षण हैं ।
विपत्ति में भगवान् की स्मृति बनी रहे, इसलिये
कुन्ती ने भगवान् से निरंतर विपत्ति के लिये प्रार्थना की ।
पाण्डवों ने अपने से निम्न-श्रेणी के राजा विराट की नौकरी
स्वीकार कर ली, पर धर्म का किंचिन्मात्र भी कभी त्याग नहीं
किया।
महाराज युधिष्ठि रने स्वर्ग को ठुकरा दिया, पर
अपने अनुगत कुत्ते का भी त्याग नहीं किया।
स्वार्थ का त्याग सामान व्यवहार से भी श्रेष्ठ है, इसलिये
नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करनी चाहिये ।
स्त्री के लिये पातिव्रत्य धर्म ही सबसे बढ़कर है । इसलिये भगवान् को याद रखते हुए ही पति की आज्ञा का
पालन विशेषता से करना चाहिये तथा पति के और बड़ों के चरणों में नमस्कार करना और
उन सबकी यथा-योग्य सेवा करनी चाहिये ।
विधवा स्त्री के लिये तो विषय-भोगों से वैराग्य, ईश्वर की भक्ति, सद्गुण-सदाचार का पालन और नि:स्वार्थ-भाव से सबकी सेवा ही सर्वोत्तम धर्म है ।
दूसरों को दुःख पहुँचाने के सामान कोई पाप नहीं है और सुख
पहुँचाने के सामान कोई धर्म नहीं है । इसलिये हर समय दूसरों के हित के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।
किसी के भी दुर्गुण-दुराचार का दर्शन, श्रवण, मनन, और कथन नहीं करना चाहिये। यदि उसमे किसी का हित हो तो कर सकते हैं; किन्तु
मन धोखा दे सकता है, अत: खूब सावधानी के साथ विचार पूर्वक करना चाहिये ।
किसी का उपकार करके उसपर अहसान न करे, न
किसी से कहे और न मनमे अभिमान ही करे; नहीं तो किया हुआ उपकार क्षीण हो जाता है । ऐसा समझे कि सब कुछ भगवान् करवाते हैं, मैं तो निमित्तमात्र हूँ ।
यदि अनिष्ट करने-वाले को दण्ड देने से उसका उपकार होता हो तो
ऐसी अवस्था में उसे दण्ड देनेमें दोष नहीं है ।
अपने पर किये हुए उपकार को आजीवन कभी न भूले एवं अपना उपकार करने वाले का बहुत भारी प्रत्युपकार करके भी
अपने ऊपर उसका अहसान ही समझे ।
अपने द्वारा किसी का अनिष्ट हो जाय तो सदा उसका
हित ही करता रहे, जिससे कि अपने किये हुए अपराध को वह मनसे भूल जाय, यही इसका असली प्रायश्चित है ।
मन और इन्द्रियोंको इस प्रकार वशमें रखना
चाहिये कि जिस से व्यर्थ और पापके काममें न जाकर जहाँ हम लगाना चाहें उसी
भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर लगी रहें ।
ब्रह्मचर्य के पालन पर हरेक मनुष्य को विशेष
ध्यान देना चाहिये ।
काम की उत्पत्ति संकल्प से होती है, सुन्दर जवान स्त्री और बालक आदि के संग से ब्रह्मचर्य का नाश होता है ।
गृहस्थी मनुष्य को महीने में एक बार से अधिक
स्त्री-प्रसंग नहीं करना चाहिये। ऋतुकाल पर महीने में एक बार स्त्री-प्रसंग करने वाला गृहस्थी ब्रह्मचारी के तुल्य है।
जीते हुए मन-इन्द्रिय मित्र के सामान है और न जीते हुए विषयासक्त मन-इन्द्रिय शत्रु के सामान हैं ।
शरीर और संसार में जो आसक्ति है , वही सारे अनर्थों का मूल है, उसका सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
कोई भी सांसारिक भोग खतरे से खाली नहीं, इसलिये उससे दूर रहना चाहिये।
कंचन, कामिनी, मान, बडाई, ईर्ष्या, आलस्य, प्रमाद, ऐश ,आराम, भोग,
दुर्गुण और पाप को साधन में महान विघ्न समझकर इन सबका विष के
तुल्य सर्वथा त्याग करना चाहिये।
ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, सद्गुण, सदाचार, सेवा, और संयम को अमृत के सामान समझकर सदा सर्वदा
इनका सेवन करना चाहिये ।
शौचाचार से सदाचार बहुत ऊँचा है, उस
से भी भगवान् की भक्ति और ऊँचे दर्जे की चीज है ।
भगवान् जाती-पाँति कुछ नहीं देखते, केवल असली प्रेम ही देखते हैं, अत: मनुष्य को केवल भगवान् से ही प्रेम करना चाहिये।
ईश्वर, महात्मा,
शास्त्र
और परलोक में विश्वास करने वाले पुरुष से कभी पाप नहीं बन सकते । उसमे धीरता, वीरता, गम्भीरता, निर्भयता, समता और शान्ति आदि अनेक गुण अनायास ही आ जाते
हैं, जिससे
उसके सारे आचरण स्वाभाविक ही उत्तम-से-उत्तम होने लगते हैं ।
भगवान् के नाम,रूप, गुण , प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और चरित्रोंको हर समय याद करते हुए मुग्ध
रहना चाहिये ।
भगवान् के गुण, प्रभाव, चरित्र तत्त्व और रहस्य की बातें सुनने, पढ़ने और मनन करने से श्रद्धा होती है ।
एकान्त में भगवान् के आगे करूण भाव से रोते हुए स्तुति
प्रार्थना करने से भी श्रद्धा बढती है ।
ऊपर बतलाई हुयी बातों पर विश्वास करके उनके अनुसार अनुष्ठान
करने से भी श्रद्धा होती है ।
श्रद्धा होने पर श्रद्धेय पुरुष की छोटी-से-छोटी क्रिया में भी बहुत ही होने लगता है ।
माता,पिता,पति,स्वामी,ज्ञानी, महात्मा, और गुरुजनों की श्रद्धा पूर्वक नि:स्वार्थ सेवासे आत्मा का शीघ्र कल्याण हो सकता है
।
निष्काम-कर्म और भगवान् के नाम-जपसे, धारणा
और ध्यान से एवं सत्संग और स्वाध्याय से मल-विक्षेप और आवरण का सर्वथा नाश होकर भगवत्प्राप्ति शीघ्र हो
सकती है ।
{इस
पुस्तक का सबसे विशेष भाग }
शीघ्र कल्याण
चाहने वाले मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति के सिवा और किसी भी बात की इच्छा नहीं
रखनी चाहिये; क्योंकि इसके सिवा सब इच्छाएँ
जन्म-मृत्यु रूप संसार-सागर में भरमाने वाली हैं ।
परमात्मा की
प्राप्ति के लिये मनुष्य को अर्थ और भाव के सहित शास्त्रों का अनुशीलन और एकान्त
में बैठकर जप-ध्यान तथा आध्यात्मिकविषय का विचार नियमपूर्वक नित्य करना चाहिये ।
अनिच्छा या
परेच्छा से होने वाली घटना को भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार मान लेने पर काम- क्रोध
आदि शत्रु पास नहीं आ सकते, जैसे सूर्य के सम्मुख अन्धकार
नहीं आ सकता ।
जीव, ब्रह्म और माया के तत्त्व को समझने के लिये एकान्त में बैठकर विवेक और वैराग्ययुक्त चित्त से नित्यप्रति परमात्मा का चिंतन
करते हुए अध्यात्म-विषय का विचार करना चाहिये ।
जिसने ईश्वर
की दया और प्रेम के तत्त्व-रहस्य को जान लिया है, उसके शान्ति और आनन्द की सीमा नहीं रहती ।
जो अपने-आप को
ईश्वरके अर्पण कर चुका है और ईश्वरपर ही निर्भर है, उसकी सदा-सर्वदा सब प्रकार से ईश्वर रक्षा करता है, इससे वह सदा के लिये निर्भय-पदको प्राप्त हो जाता है ।
प्रेमपूर्वक
जप सहित भगवान् के ध्यान का अभ्यास, श्रद्धापूर्वक सत्पुरुषों का संग, विवेक पूर्वक
भाव सहित सत- शास्त्रों का स्वाध्याय, दु:खी, अनाथ, पूज्यजन तथा वृद्धों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा —
इनको यदि कर्तव्य बुद्धि से किया जाय तो ये एक-एक साधन शीघ्र कल्याण
करने वाले हैं ।
भगवान् बहुत
बड़े दयालु और प्रेमी हैं । जो साधक उनका तत्त्व समझ जायगा, वह भगवान् की शरण होकर शीघ्र ही परम शान्ति
को प्राप्त हो जायगा ।
सर्वत्र
भगवद्भाव के सामान कोई भाव नहीं है और सर्वत्र भगवद्भाव होने से दुर्गुण और
दुरुचारों का अत्यंत अभाव होकर सद्गुण और सदाचार अपने –आप ही आ जाते हैं ।
—श्रद्धेय जयदयाल जी
गोयन्द का-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें
पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
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